Monday, August 13, 2007

अपने हिस्से की रोशनाई का एक छींटा

एक शाम गुलमर्ग में, हम चारों लकड़ी के कॉटेज के बाहर खड़े, हरी घास से ढकी उन ढलानों को देख रहे थे जो जाड़ों में बर्फ से ढककर स्कीइंग का बेहतरीन मर्कज़ बनती हैं। दूर एक टीले पर, हाथ में मुड़ी हुई अपने कद से ऊंची छड़ी लिए एक आदमी नजर आया- 'देखो-देखो रज़िया, कोई गड़रिया है। देखना, टीले पर खड़ा होकर अपनी भेड़ों को आवाज देगा।'

देखते-देखते वह हवा में उड़ता जुब्बा उस टीले पर चढ़ा और गाने और पुकारने के मिले-जुले सुरों में भेड़ों से मुखातिब हुआ। कुछ पहले के सन्नाटे के बाद सैकड़ों घंटियों की आवाजें फ़िज़ा में फैलने लगीं और छोटे-छोटे सफेद और काले गोले लुढ़कते हुए उस गड़रिए के पास जमा होने लगे- 'अब यह आग जलाए तो समझो रात यहीं गुजारने वाला है।'

मुझसे रहा नहीं गया, 'अब्बा, जो हो रहा है वह तो सामने ही हो रहा है। अम्मी देख ही रही हैं। आप क्यों रनिंग कमेंट्री दे रहे हैं?'

पहले तो अब्बा मुस्कुराए और मेरी उम्र से मेल खाते, मजाक के अंदाज़ में जवाब देने लगे। फिर रुककर संजीदा हो गए, जैसे मेरी कही हुई बात का नपा-तुला और सच्चा जवाब देना जरूरी हो। जैसे उस सच को जिसे अम्मी भी जानती थीं और अब्बा भी मानते थे, आज सरेआम तस्लीम करना जरूरी हो- 'बेटी, और कुछ तो कभी तुम्हारी मां को दिया नहीं। जो क़ुदरत ने दिल खोलकर दिया है, उसे ही दिखाकर खुश हो लेते हैं।'

अब्बा अक्सर प्यार से अम्मी के कंधे पर हाथ रख देते। कभी उनका हाथ थामकर टहलते। अम्मी इस तरह की सरेआम नुमाइश कभी अपनी तरफ से नहीं करतीं, और जो औरतें ऐसा करतीं, उन्हें पसंद नहीं करतीं। अब्बा की यह बात सुनकर उन्होंने अब्बा का बाज़ू थाम लिया और उनकी चौड़ी छाती पर अपना सिर टिका दिया।

...अम्मी और अब्बा ने तो एक-दूसरे को शादी से पहले देखा तक नहीं था। उम्र का भी काफी बड़ा फर्क था। खानदानों की तहज़ीब एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थी। फिर कैसे वे दोनों एक-दूसरे के इश्क में इस कदर मुब्तिला हो गए कि हम, उनकी लड़कियां, जो कि उस इश्क का जीता-जागता सुबूत थीं, उस इश्क के दायरे से अक्सर खुद को बाहर पाती थीं।


प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे सज्जाद ज़हीर और उनकी जीवनसाथी रज़िया सज्जाद ज़हीर की सबसे छोटी बेटी नूर ज़हीर ने हाल में आई किताब 'मेरे हिस्से की रोशनाई' में अपने मां-बाप की स्मृतियां संजोई हैं। 1943 में रजिया और सज्जाद विवाह-बंधन में बंधे। 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी के फैसले के तहत पाकिस्तान में वाम आंदोलन को मजबूत करने के लिए सज्जाद ज़हीर अपने बीबी-बच्चों बच्चों को लखनऊ में उनके हाल पर छोड़कर पाकिस्तान चले गए, वहां कुछ दिन भूमिगत आंदोलन चलाने के बाद गिरफ्तार हुए, उम्रकैद के सजायाफ्ता हुए। अयूब की तानाशाही के खात्मे के बाद मिली रिहाई ने उन्हें दुबारा वतन की सूरत दिखाई। 1964 में रज़िया और सज्जाद ने दिल्ली में नए सिरे से अपना घर बसाया और कुल नौ साल अपने परिवार के साथ बिताकर 1973 में सज्जाद ज़हीर इस दुनिया से विदा हुए। नूर ज़हीर की इस किताब में एक अलग तरह के प्यार की झलक मिलती है, जिसे फ़ैज़ के रूमान के एक जमीनी संस्करण की तरह पढ़ा जा सकता है। मेधा बुक्स नाम के दिल्ली के एक प्रकाशन से छपी यह सवा सौ पेजों की किताब शायद प्रगतिशील साहित्य बेचने वाले किसी दुकानदार के यहां रखी हुई मिल जाए, या शायद कहने पर वह इसे मंगा दे।

4 comments:

अभय तिवारी said...

अंदाज़ तो लुभावना है..

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस अंश के प्रस्तुतिकरण के लिये. शायद पुस्तक भी कभी हाथ लग जाये.

इन्दु said...

नूर ज़हीर की किताब मेरे हिस्से की रोशनाई की सबसे बड़ी खासियत है भाषा की रवानगी । किसी भी रचना की सफलता यही है कि उसे पढ़ने मे मज़ा आये । एक बार पढ़ने बैठो तो बस पढ़ते रह जाओ । यह सिर्फ एक संस्मरण भर नही है बल्कि खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोगो को आईना दिखने का काम भी करती है । विचारो मे ही नही अपने व्यवहार मे भी सच्चे कम्युनिस्ट थे सज्जाद ज़हीर । अगर आप एक मकसद के लिए काम कर रहे है तो ज़िन्दगी की छोटी-छोटी मुश्किले खुद ब खुद हल होने लगती है । इस मायने मे भी यह संस्मरण लाजवाब है । घर के भीतर भी एक लोकतांत्रिक माहौल कैसे बनाया जा सकता है, इसका उदाहरण देखना हो तो इसे ज़रूर पढ़ना चाहिये ।

इरफ़ान said...

what is roshanaai bye the way?