Monday, July 9, 2007

ज्ञान का नक्शा भीतर-बाहर

नक्शे से अगर मतलब भूगोल के नक्शे जैसा कुछ हो तो ज्ञान का ऐसा कोई नक्शा बनाने में मेरी कुछ खास दिलचस्पी नहीं है। अन्य तमाम शक्ति संरचनाओं की तरह ज्ञान भी एक शक्ति संरचना है, जिसे अब सत्ता के समरूप मानते हुए पोस्ट-मॉडर्न लोग 'नॉलेज/पॉवर' की संज्ञा देने लगे हैं। जाहिर है, जो समाज या देश ज्यादा ताकतवर होता है, उसके मौद्रिक सिक्के के अलावा उसके ज्ञान का सिक्का भी दुनिया में चलता है । यह बात कभी चीन, भारत और यूनान के लिए लागू होती थी, फिर पैक्स रोमाना और पैक्स ब्रिटेनिका होते हुए पैक्स अमेरिकाना के लिए लागू हो रही है।

ज्ञान का ऐसा भूगोल बनता-बिगड़ता रहता है और इसका नक्शा बनाने की आम उपयोगिता सामान्य ज्ञान के दायरे में ही मानी जा सकती है। इसमें दिलचस्पी की बात मुझे सिर्फ इतनी लगती है कि ज्ञान के कौन-कौन से क्षेत्र इस नक्शे का अतिक्रमण करते हैं- मसलन, गणित के मामले में पूरे यूरोप के छोटे से देश हंगरी का दुनिया में पिछले डेढ़ सौ साल से राज चल रहा है, या योग और अक्यूपंक्चर जैसी होलिस्टिक चिकित्सा पद्धतियां आज भी शरीर को एक जटिल मशीन मानने की देकार्तीय सोच पर आधारित पश्चिमी चिकित्सा पद्धति को कड़ी चुनौती दे रही हैं।

बात अगर ज्ञान के किसी ऐसे नक्शे की करनी हो, जो ठीक-ठीक देश-काल के द्वारा निर्धारित न होता हो, जो समय बदलने के साथ-साथ इस बुरी तरह बनता बिगड़ता न हो तो इसका फैलाव मानव चेतना के भीतर से बाहर की तरफ, या बाहर से भीतर की तरफ दर्ज किया जाना चाहिए, ताकि इसके अपने पैटर्न में आ रहे बदलावों को समझने में मदद मिल सके। एक मोटा खाका पेश करना हो तो एक तरफ मैं चेतना से संबंधित ज्ञानों को रखना चाहूंगा- दर्शन, अध्यात्म, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान, मिथक, साहित्य, कलाएं आदि, और दूसरी तरफ बाह्य जगत से संबंधित ज्ञानों को- मसलन भूगोल, इतिहास, गणित, विज्ञान की सभी शाखाएं, समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र इत्यादि।

अक्सर बिना सोचे-समझे जब हम पूर्वी और पश्चिमी ज्ञान पद्धतियों की बात करते हैं तो पूर्वी ज्ञान को अध्यात्म आदि आत्मिक पहलुओं से जोड़कर देखते हैं और पश्चिमी ज्ञान को विज्ञान आदि वस्तुगत पहलुओं से जोड़कर। यह बिल्कुल गलत सोच है और इसमें तथ्य का लेश तक नहीं है। प्राचीन यूनानी ज्ञानीजनों में अरस्तू और आर्किमीडीज को छोड़ दें तो अभी की पश्चिमी ज्ञान पद्धति से बाकी किसी का कुछ भी लेना-देना नहीं है।

सबसे बुरी बात यह है कि जिन नवजागरणकालीन यूरोपीय ज्ञानियों के मार्फत यूनानी ज्ञानियों के साथ हमारी वाकफियत बनी है, उन्होंने अपने फायदे के लिए यूनानी चिंतन को यूनानी सुखवाद (हेडोनिज्म) के साथ जोड़कर पेश किया और इस क्रम में यूनानियों के आध्यात्मिक जगत का बिल्कुल सफाया ही कर दिया। इससे ईसाइयत भी सुरक्षित रही- इस नाम पर कि प्राचीन यूनानी सभ्यता आध्यात्मिक रूप से दरिद्र थी और इस खोखलेपन को भरकर ईसाइयत ने इतिहास में अपनी प्रासंगिकता सिद्ध की, दूसरी तरफ खुद कट्टर रूढिवादी ईसाइयत से लड़कर इसका एक उदार रूप बनाने में भी उन्हें सहूलियत हुई कि अगर ज्ञान-विज्ञान में यूनानियों जैसी तरक्की करनी है तो चिर-दुःखवादी ईसाइयत के भीतर सुखवाद के लिए भी कुछ न कुछ जगह जरूर बनानी पड़ेगी। बहरहाल, इससे दुनिया को सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि प्राचीन यूनानी समाज की एक कटी-फटी तस्वीर ही सामने आई, जो सोलहवीं सदी के बाद के यूरोप का एक प्रोटोटाइप भर थी।

ठीक ऐसी ही गलती भारतीय और अन्य पूर्वी समाजों के साथ भी दोहराई गई। उन्नीसवीं सदी में एक विचारधारा के रूप में उभरे प्राच्यवाद ने सचेत ढंग से पूरब का एक आध्यात्मिक स्टीरियोटाइप गढ़ा, ताकि पश्चिम को उससे बुनियादी तौर पर भिन्न बताते हुए पूरब पर पश्चिम के शासन का एक ज्ञानात्मक औचित्य प्रस्तुत किया जा सके। नतीजा यह है कि भारत और चीन के आध्यात्मिक और मिथकीय महत्व के तमाम ग्रंथ हमें यूरोपीय भाषाओं में अनूदित हुए मिलते हैं, लेकिन आर्यभट और भास्कराचार्य जैसे खगोलविद-गणितज्ञों, चरक और सुश्रुत जैसे चिकित्साविदों, रसायनशास्त्र में पारे के दो सल्फाइड बना लेने जैसी अद्भुत खोजें करने वाले बौद्ध रसायनज्ञों का काम हमें कहीं उपलब्ध नहीं होता।

बाकायदा एक रणनीति के तहत तैयार की गई इन ज्ञानात्मक श्रेणियों से यदि हम बच सकें तो जो सवाल सबसे पहले हमारे मन में आता है, वह यह कि पिछले दो-तीन सौ वर्षों में भीतरी और बाहरी- आत्मगत और वस्तुगत- ज्ञानों के बीच कोई ऐसी चीन की दीवार खड़ी होती गई है, जिसका इससे पहले कोई अस्तित्व नहीं था? क्या दर्शन और नीतिशास्त्र जैसे आत्मगत ज्ञान क्षेत्रों में अतीत में किए गए सारे काम अब पूरी तरह कालातीत हो चुके हैं और आधुनिक समाज के लिए उनका कोई महत्व नहीं है? गनीमत है कि पोस्ट मॉडर्निज्म ने इन बंद सवालों को दुबारा खोल दिया है, हालांकि इस नाम पर खुली अमेरिकी दुकानों में जो-जो माल बिक रहा है, उनमें से कुछ को देखकर ही दिमाग खराब हो जाता है।

हो सकता है इस काम में दो-तीन सौ साल का समय और लगे, लेकिन कम से कम अपनी उम्र भर इंतजार करने के लिए मैं तैयार हूं- काम है नई जरूरतों के मुताबिक पुराने ग्रंथों का पाठ तैयार किया जाना। आधुनिक भौतिकी में कुछ गिने-चुने सिद्धांतों को ही प्रश्नातीत माना जाता है- हाइजेनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धांत उनमें से एक है। उन्हीं हाइजेनबर्ग ने आधुनिक भौतिकी की उलझनों को व्यक्त करने के लिए जरूरी भाषा की खोज में जिस तरह शंकराचार्य के दर्शन का अवगाहन किया है, वह किसी की भी आंख खोल देने के लिए पर्याप्त है।

सवाल शंकर के दर्शन से सहमत या असहमत होने का नहीं है- भारत के शीर्ष आत्मन् वादी दार्शनिक के रूप में शंकर मेरे लिए अपना वश चलते पराए खेमे के ही रहेंगे। लेकिन यथार्थ और ज्ञान के जितने जटिल पहलुओं को उनकी बुद्धि खंगालती है, उसकी थाह पाने में मेरे जैसों की क्या बिसात, हाइजेनबर्ग तक दहल जाते हैं। (हाल में हाइजेनबर्ग और शंकर के बीच की दार्शनिक अंतःक्रिया पर लिखे गए रंजीत नायर के एक लेख (बहुचर्चित किताब 'माइंड, मैटर ऐंड मिस्ट्री' में संकलित) का अनुवाद करते समय इस विषय में मेरे ज्ञानचक्षु थोड़े से खुले। )

मुझे लगता है कि ज्ञान के दायरे से चेतन तत्व का सफाया और वस्तुतत्व की भीड़ ज्ञान के नक्शे पर दर्ज होने वाली सबसे बड़ी दुर्घटना है, जिसपर आने वाली सदियां काम करेंगी और इसका निदान खोजने का प्रयास करेंगी। गणित, भौतिकी, रसायनशास्त्र, स्नायु विज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्र में चल रहे नवीनतम काम इस समस्या को निरंतर संबोधित कर रहे हैं। भौतिकशास्त्रियों के लिए सीमावर्ती क्षेत्र में पड़ने वाला सबसे बड़ा सवाल यही है कि वे काल (समय) का अतिक्रमण करने वाले एक द्रव्य-गुण के रूप में चेतना का अध्ययन कैसे करें।

यह एक ऐसी जगह है, जहां उनकी मुलाकात गणितज्ञों, रसायनशास्त्रियों, स्नायुविज्ञानियों और मनोविज्ञानियों से हो रही है। मामला अब 'साइंस ऑफ द साइंस' के दायरे में पहुंच रहा है, जहां आधुनिक विज्ञान की मुलाकात आत्मगत विज्ञानों से होनी तय है। हम कह सकते हैं कि विज्ञान की दुनिया अब गोल साबित होने के कगार पर है और अगली एक-दो सदियों में इसका शक्ति संरचनाओं से इतर, इनके समानांतर एक अलहदा, मुख्तलिफ नक्शा बनने की गुंजाइश नजर आने लगी है।

5 comments:

बोधिसत्व said...

ज्ञान का नक्शा हर तरफ टूटा पड़ा है।
आप से गप्प की इच्छा है
चाहे तो फोने
09820212573
या फोन नंबर दें
हुड़क लगी है।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत अच्छा लेख लिखा है।शायद आगे यही होने वाला है।
"मामला अब 'साइंस ऑफ द साइंस' के दायरे में पहुंच रहा है, जहां आधुनिक विज्ञान की मुलाकात आत्मगत विज्ञानों से होनी तय है"

azdak said...

मेरे लिए थोड़ा दुरूह पाठ है.. एक-दो मर्तबा और पढ़ना होगा.. फ़ि‍लहाल इतना कहूंगा कि चिंताएं बड़ी दुरुस्‍त हैं.. मगर अंत में जिस नतीजे तक तुम पहुंच रहे हो, 'साइंस ऑफ द साइंस'- वह कितना सोसायटी-सर्विंग होगा, उसके बारे में मैं बहुत आश्‍वस्‍त नहीं हूं.

अभय तिवारी said...

शानदार लिखा है.. मज़ेदार.. धारदार.. लिखा है..

अनुनाद सिंह said...

सम्यक भाषा, स्तरीय विचार, बृहद दृष्टि से से परिपूर्ण लेख! ऐसे ही लेखों से हिन्दी का भला होगा। बाकी तो सब कचरा कहा जायेगा।