Tuesday, July 10, 2007

लाल मस्जिद का संदेश

इस्लामाबाद की लाल मस्जिद में निर्णायक फौजी कार्रवाई को लेकर पाकिस्तान, हिंदुस्तान समेत समूचे दक्षिण एशिया में परस्पर विरोधी विचार देखने को मिल रहे हैं। पाकिस्तान का एक भी राजनीतिक दल इस कार्रवाई को खुला समर्थन देते हुए परवेज मुशर्रफ के साथ खड़ा नहीं दिखा है, यह मुशर्रफ ही नहीं, सभी के लिए चिंता का विषय है। बात-बात पर फतवे देते, लोगों को हिंसा के लिए उकसाते, तमाम उदार मूल्यों पर खुलेआम धावा बोलते धार्मिक कट्टरपंथियों से बहस करने कोई आगे नहीं आया, और जब उनके खिलाफ सैनिक कार्रवाई हुई तो भी उसके पक्ष में कोई नहीं बोला, इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दल ऐसी रोगी विचारधारा को अपना समर्थन देते हैं या उसे बर्दाश्त करने को तैयार हैं?

दुर्भाग्यवश स्थिति ठीक यही है, और यह मामला सिर्फ पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं है। भारत में हिंदू कट्टरपंथियों का जब उभार हुआ तो कांग्रेसी पूरी तरह दुम दबाकर बैठ गए। और तो और, गुजरात में उनके एक पूर्व सांसद को जिंदा जला दिया गया और उसके लिए संसद में एक शोक संदेश तक इस पार्टी से पढ़ते नहीं बना। बांग्लादेश में कट्टरपंथी सालोंसाल ऊधम मचाते रहे लेकिन उनके मुकाबले खड़े होने की हिम्मत तसलीमा नसरीन के अलावा और कोई नहीं जुटा पाया- यहां तक कि बंगबंधु शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना वाजिद भी नहीं, जिनकी पार्टी की घोषित विचारधारा ही धार्मिक राष्ट्रवाद के ऊपर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को तरजीह देने पर आधारित है।

पूंजीवादी राजनीतिक दलों के बेरीढ़पने को एक तरफ रख दें तो एक आम पाकिस्तानी के अंदर मुशर्रफ की फौजी कार्रवाई को लेकर संशय की कुछ अलग वजहें समझ में आती हैं। एक तो यह कि मुशर्रफ की इन कट्टरपंथी ताकतों के साथ पुरानी आशनाई रही है और अगर अमेरिका का पुरजोर दबाव न होता तो वे शायद आज भी इन्हें स्वतंत्रता सेनानियों का दर्जा ही देते रहते। पाकिस्तानी समाज में हाल के वर्षों में जोर पकड़ रहे अमेरिका विरोधी राष्ट्रवाद की जुगलबंदी इस्लामी कट्टरपंथ के साथ बन जाना एक अलग ट्रेजेडी है, जिसका खतरा परवेज मुशर्रफ के सिर से आज भी टला नहीं है।

समस्या यह है कि पिछले एक-दो वर्षों में मुशर्रफ बिना किसी वैचारिक या राजनीतिक गोलबंदी के अपने देश में मौजूद जेहादी तत्वों से निपटते नजर आए हैं। यह ट्रेजेडी पूरी इस्लामी दुनिया में मौजूद अमेरिका समर्थित तानाशाहों के साथ है। मिस्र में होस्नी मुबारक यह काम शहरी मध्यवर्ग को आधुनिकता के तमाम फायदे दिलाकर करने की कोशिश में हैं और उन्होंने उदार शहराती मौलानाओं के एक वर्ग की इसमें मदद भी ली है। सऊदी अरब में यह काम लोगों को कई तरह के भत्ते देकर और उन्हें ज्यादा से ज्यादा धर्म-कर्म की तरफ मोड़कर किया जा रहा है। लेकिन पाकिस्तान में कट्टरपंथ से लड़ाई सिर्फ फौजी आदेशों के जरिए लड़ी जा रही है।

और तो और, कोई साल भर पहले परवेज मुशर्रफ ने यह खुलासा ही कर दिया था कि जेहादी तत्वों के खिलाफ लड़ने का फैसला उन्होंने पाकिस्तान को बचाने की मजबूरी में लिया था। मजबूरी यह कि 9/11 के बाद अमेरिकी उपरक्षामंत्री ने उनसे साफ कह दिया था कि पाकिस्तानी हुकूमत अगर अपनी पहल पर यह काम नहीं करती तो बम मार-मारकर पाकिस्तान को दुनिया के नक्शे से मिटा देने में भी अमेरिका को कोई हिचक नहीं होगी।

इसमें कोई शक नहीं कि एक विचारधारा के रूप में जेहादी कट्टरपंथ आज जिस मुकाम पर पहुंच गया है, वहां उसके साथ आमने-सामने का मोर्चा लग जाने की स्थिति में फौजी मारकाट के स्तर पर निपटने के अलावा और कोई चारा नहीं है। लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ी लड़ाई इससे पहले की है, जिसे छोड़कर या टालकर फौजी विकल्प के आसरे बैठे रहना खुद में कोई विकल्प ही नहीं है। जाहिर है, पाकिस्तान में कट्टरपंथ के बहुसंख्यक समाज की सबसे मुखर विचारधारा का-सा दर्जा हासिल कर लेने के बाद लाल मस्जिद की कार्रवाई से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती इससे वैचारिक स्तर पर निपटने की है। परवेज मुशर्रफ अभी तक यह काम बिल्कुल नहीं कर पाए हैं और आगे भी कर पाएंगे, इसकी कम ही उम्मीद नजर आती है।

पाकिस्तान के बरक्स भारत में पिछले तीन-चार वर्षों में उन्मादी बहुसंख्यक कट्टरपंथ से निपटने का एक बिल्कुल अलग तरीका अपनाया गया है। यहां वामपंथी और समाजवादी विचारधाराएं कहीं ढुलमुल तरीके से तो कहीं डटकर इसके खिलाफ खड़ी हुईं और सबसे बढ़कर नागरिक समाज इसके विरुद्ध सक्रिय हुआ। प्रतिरोध के एक निश्चित स्तर तक पहुंच जाने के बाद कांग्रेस और उसकी सहधर्मी पार्टियां आगे आईं और उन्हें इसका भरपूर फायदा भी मिला। लेकिन राजनीतिक दलों और कभी इनके भीतर तो कभी इनके बाहर मुखरित होने वाले नागरिक समाज से इतर जहां तक सवाल भारतीय राजसत्ता का है, तो उसने बहुसंख्यक कट्टरपंथ के खिलाफ अभी तक कोई इम्तहान पास नहीं किया है।

1992 के अयोध्या से लेकर 2002 के गुजरात तक भारतीय राजसत्ता उन्मादी बहुसंख्यक कट्टरपंथ के विरुद्ध एक पिलपिली संरचना ही साबित हुई है, अलबत्ता अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों से निपटने में जब-तब कुछ फूं-फां करके जबर्दस्ती की मर्दानगी दिखाने की कोशिश वह जरूर करती रही है।

लाल मस्जिद में जड़ जमाए कट्टरपंथियों का सिरे से काम तमाम करके परवेज मुशर्रफ ने सभी दक्षिण एशियाई सत्ताओं के सामने यह चुनौती पेश की है कि वक्त आने पर बहुसंख्यक कट्टरपंथ के खिलाफ उन्हें भी ऐसी ही निर्णायक सख्ती का सबूत देने के लिए तैयार रहना चाहिए। अलबत्ता खुद मुशर्रफ के सामने अभी यही चुनौती कोई कम नहीं है कि अपनी कार्रवाई के पक्ष में वे व्यापक जनमत तैयार करें और कश्मीर या किसी और मिशन के नाम पर अपने देश में मजहबी आतंकवादियों को किलेबंदी करने का कोई नया मौका न दें।

1 comment:

अभय तिवारी said...

आपकी बात एक दृष्टिकोण से सही है..

एक दूसरे दृष्टिकोण से मुशर्रफ़ ने इस पूरे मामले को एक मँजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह इस्तेमाल किया है..जब पूरे पाकिस्तान में उनके खिलाफ़ एक व्यापक लोकतांत्रिक गोलबंदी शुरु हो चुकी थी.. और उनकी गद्दी को एक वास्तविक खतरा पैदा हो चुका था.. अमरीका भी उन्हे अपने लिए बहुत उपयोगी न पा कर उनसे हाथ धोने के लिए तैयार होता नज़र आ रहा था.. मुशर्रफ़ ने बहुत चतुराई से एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है..

अमरीकी आकाओ के लिए साबित किया कि वे अभी भी आतंकवाद की लड़ाई में उनके लिए उपयोगी हैं और कड़े कदम उठाके को तैयार हैं.. और दूसरी तरफ़ कट्टरपंथियों के खिलाफ़ एक मोर्चा खोल कर बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.. बौखलाए हुए कट्टरपंथियों से पाकिस्तान को बचाने के लिए मुशर्रफ़ खुद गद्दी पर बने रहने को सिद्ध कर सकेंगे..