Wednesday, July 11, 2007

जात के आर-पार देबी भइया

'अरे मैं नायं कही अइया, वहै मोटहा कहा होइगा' (अरे, मैंने नहीं कहा अम्मा, उसी मोटे ने कहा होगा)- यह बात मेरे गांव की भोजपुरी जुबान में नहीं, करख्त किस्म की ठेठ पछांह अवधी में कही जा रही है। न जाने कितने साल पहले सुनी गई यह हरदोई वाली बड़की भउजी की बोली है, जिससे फिलवक्त मेरे कान बज रहे हैं। बड़की भउजी यानी देबी भइया की पत्नी। पचपन का दूल्हा और पचास-बावन की दुल्हन- इसी शक्ल में इस जुगलजोड़ी का एक दिन मेरे गांव में पदार्पण हुआ था और जवान होते लड़कों से लेकर पकी उम्र वाली बहुओं तक के लिए इसके साथ ही एक मुफ्त का सिनेमा शुरू हो गया था।

अधेड़ उम्र में बनी इस जोड़ी का प्यार जितना अद्भुत था, वैसे ही जुलुमजोर इसके झगड़े भी थे। दो कोठरी वाले अपने घर में गर्मियों की दोपहर भर इनका प्रेमालाप लक्ष्मण-परशुराम संवाद की ऊंचाई पर चलता था। इधर से- 'तुम मेरे बिना इतने दिन कैसे रहे', तो उधर से- 'भगवान ने अबतक तुम्हें मेरे ही लिए बचाकर रखा' ।

बाहर लौंडों-लपाड़ियों की एक बिखरी हुई भीड़ यह संवाद प्रेमपूर्वक सुनती थी और पंखा झलते हुए देबी भइया के घर से बाहर निकलते ही सारा कुछ ज्यों का त्यों दुहरा देती थी। बड़े दुलार के साथ, जैसे यह अपनी अबतक नाकारा समझी जा रही मर्दानगी का प्रशस्तिपत्र हो, देबी भइया मुस्कराते हुए हमें गालियां देते और धमकाते कि आगे अगर कभी हम लोग दोपहर के वक्त यहां दिखाई दिए तो टांग पकड़कर घिर्राते हुए नहर में फेंक आएंगे।

बहुत जल्दी, शादी के एक-दो महीने बाद ही उनके झगड़े भी शुरू हो गए, जिसमें दोनों पक्ष से बाकायदा लाठियां चलती थीं। देबी भइया एक लंबे-चौड़े ठीक-ठाक तोंद वाले आदमी थे तो बड़की भउजी भी कद-काठी में उनसे कम नहीं थीं। लाठी पर दोनों का ही हाथ सही चलता था। सबसे बड़ी बात यह कि भउजी को देबी भइया की एक बुनियादी कमजोरी पता थी। वे एक बार भी अगर डंडा उनकी दोनों टांगों के बीच पहुंचाने में या उस तरफ कायदे से इशारा करने में भी कामयाब हो गईं तो फिर दुश्मन के सामने हथियार डाल देने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता था।

उनके झगड़े अक्सर शक की बिना पर होते थे। भउजी को हमेशा लगता रहता था कि उनका मोटा पति पराई औरतों के पास जाता है, इसीलिए बिस्तर में जल्दी निढाल हो जाता है, जबकि देबी भइया ऐसे किस्सों को पुराने जमाने की बात बताते थे और इसे सिर्फ चुगलखोर औरतों की कारस्तानी मानते थे।

शादी-ब्याह का मामला छोड़ दें तो एक मामले में देबी भइया पूरे गांव में अजूबा समझे जाते थे। उन्होंने अपनी जिंदगी में कई बिल्कुल अलग-अलग पेशे अपनाए थे और उन पेशों में इस कदर रम गए थे कि लोग उन्हें उन्हीं पेशों से जुड़ी जातियों का सदस्य मानने लगे थे। बारह साल की उम्र में वे घर छोड़कर गड़रियों के साथ चले गए और करीब बीस साल की उम्र तक भेड़ें चराते रहे। बिसम्हर गड़रिया अपने बुढ़ापे तक उनकी गड़रियागिरी के किस्से सुनाते थे- कैसे एक बरसात की रात बछुआपार के ऊसर में भेड़ें ठहरी हुई थीं कि चोर आ गए, खटाखट लाठियां चलने लगीं, बीच में ही मैं चिल्लाया- ठहर साले, बाभन अकेल पड़ गया है तो बहादुर बन रहे हो।

इलाके में जब हल्ला मचने लगा कि मनियारपुर में एक बाभन का लौंडा गड़रिया हुआ जा रहा है तो किसी तरह मार-पीटकर वापस लाए गए, गड़रियों पर भी दबाव डाला गया कि वे देबी को अपने साथ बिल्कुल न रहने दें। हारकर देबी भइया गांव के ही एक चालबाज आदमी के लठैत की भूमिका में कुछ साल घर रहे। कई लोगों को पीटा तो एकाध बार बना-बनाकर मारे भी गए। ऐसी ही किसी तोड़ाई के दौरान उनकी हाइड्रोसील की समस्या शुरू हुई, जो बाद में पत्नी के साथ झगड़ों में उनकी भलमनसाहत की वजह बनी।

ऐसे लफद्दर आदमी का शादी-ब्याह तो क्या होता। गुंडई के दौर में ही अपने छोटे (सौतेले) भाई की बीबी पर दिल आ गया तो एक रात उसकी जान लेने के लिए गंड़ासा लेकर निकल पड़े। पड़ोस की एक बूढ़ी महिला ने उन्हें ऐसा करते देख लिया। अनुजवधू के साथ उनके चक्कर की खबर पूरे गांव को पहले से ही थी, इसके कतल-बलवे तक पहुंचने के डर से लोग सहम गए। हल्ला मचा तो देबी भइया लखनऊ भाग गए और वहां कई साल ग्वाला बनकर भैंसों की एक खटाल पर गोबर-पानी करते रहे, दूध दुहते-बेचते रहे। फिर वहीं किसी तरह जुगाड़ करके तांगा चलाने लगे और तबतक चलाते रहे जबतक लखनऊ में तांगे चलने बंद नहीं हो गए।

जवानी अच्छी तरह ढल जाने और बुढ़ापा शुरू हो जाने के बाद लखनऊ में अपने लिए जीने-खाने का कोई उपाय न देखकर देबी भइया गांव वापस लौटे तो पता चला कि यहां वे किसी काम के नहीं हैं। पढ़ाई उनकी सिर्फ दर्जा दो तक हो पाई थी, वह भी पास नहीं फेल। गुजारा कैसे हो? ऐसे में ब्राह्मणत्व का खोटा सिक्का उनके काम आया। गांव के बुजुर्गों ने किसी तरह अक्षरों से उनकी दुबारा पहचान कराई। जैसे-तैसे उन्हें रामायण, फिर भागवत बांचना सिखाया गया। इस नए धंधे में गले ने उनका भरपूर साथ दिया। संस्कृत के बड़े सामासिक शब्द जहां जुबान को छकाने लगें वहां अटक कर एं-एं करने के बजाय उन्हें जो भी समझ में आता वही गाने लगते थे।

गांव के एक अपने जैसे ही लफद्दर किस्म के यादव लड़के को उन्होंने अपना ठेकइत बना लिया। भागवत के बाद जो हरिकीर्तन होता, उसमें देबी भइया पेटी और ढोलक से समां बांध देते थे। जो लोग उनके कथावाचन को लेकर मीन-मेख निकालते थे, उन्हीं की टेंट से रुपये निकलकर उनकी हारमोनियम पर बरस जाते थे। कथावाचन की इसी चलती उम्र में किसी ने हरदोई की एक परित्यक्ता कान्यकुब्ज ब्राह्मण स्त्री से उनकी शादी की बात चलाई, और इस तरह बड़की भउजी के साथ उनका नेह का- और लाठियों का भी- नाता बना।

देबी भइया को मरे दस-बारह साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी गांव में उनके अनंत किस्से चलते हैं। उनकी खुराक के, गांव में बाहा के पास अपने प्रतिपालक के ही हाथों हुई उनकी भीषण थुराई के, खुले हाथों माल हड़पने वाली उनकी पतिव्रता रखैलों के, पत्नी के साथ हर दूसरे-तीसरे दिन होने वाले उनके लट्ठमार झगड़ों के, फगुआ के दिन चौपाल गाते वक्त खींची गई ऊंची तानों के, गड़रिया जीवन के दौरान भेड़ के घी से गीली करके खाई गई सूखी दाल के लारटपकाऊ वर्णनों के, दोपहर की नींद में एक-डेढ़ मिनट तक की लंबाई वाले उनके सस्वर वायु विमोचनों के और जवानी में उनके द्वारा की गई हर रिश्ते की बेकदरी के।

लेकिन मेरे सामने कोई जब भी देबी भइया की चर्चा करता है, मेरी नजर में उनका आखिरी बार देखा गया बीमार चेहरा ही घूमता है- देखते-देखते बुढ़ा गए मेरे बाप की उम्र के एक छोड़ुआ, अनाथ बच्चे का चेहरा, जो अपनी सारी आवारगी और बदकारियों के बाद भी अपनी बेचारगी से निजात न पा सका।

7 comments:

Pratyaksha said...

बढिया खाका खींचा है ।

SHASHI SINGH said...

bahut dino baad kuch aisa padha bandhu. bahut khoob.

azdak said...

जिय्अ देबी भइया! अऊर भइया के मुन्‍ना..

अभय तिवारी said...

गजब ढा रहे हैं चन्दू भाई..

अनूप शुक्ल said...

बहुत सही।

अनामदास said...

सुंदर, काफ़ी सुंदर.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

देबी भैया लगभग हर गाँव में दो चार मिल जाते हैं. मुझे लगता है कि उनके ऐसे होने में ही उनके और गाँव के होने की अर्थवत्ता है. पढ़ कर मन थोडा नोस्तैल्जिक हो गया.