घने अंधेरे में उजाले का एक बुलबुला
हर तरफ से आती रंगीन रोशनियां
बीच में बैठे न जाने कितने लोग
शायद यहां कुछ नाटक सा हो रहा है
पहले गुलाम आया
पहने हुए ताश के गुलामों वाली पोशाक
मुनादी के से ढब में बोला-
दुग्गियां ही हैं यहां मुसीबतों की जड़
इधर-उधर देखा
फिर पास से भागती एक दुग्गी को
सिर से तोड़कर साग की तरह खा गया
किनारे खड़ी तिग्गियों ने इसपर ताली बजाई
नीम अंधेरे में दिख रहे थे
हिलते हुए उनके छोटे सिर और बड़े-बड़े कान
फिर रानी आई
नीचे निपट नंगी, ऊपर शाही ताम-झाम
वैसी ही मुनादी की सी आवाज में गाती हुई-
'पहनूंगी जी मैं भी अब तो नाड़े वाली शलवार'
पीछे-पीछे जोकर आया
एक हाथ में झुलाता हुआ नाड़ा
दूसरे में शलवार, जिसे सिला जाना बाकी था
जोकर के ही कंधे पर बैठा आया
'जंता... मेरी प्यारी-प्यारी जंता...'- चिल्लाता
दफ्ती का मुकुट पहने पगला राजा
दृश्य तभी अचानक बदल गया
सपाट जमीन पर मैंने जोकर को
अपनी तरफ झपटते देखा
हाथ में पकड़े नंगी पीली तलवार
पीछे से कोई बोला-
यह कुंठा की तलवार है,
जिससे बचना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है
कोशिश मैंने भरपूर की
छुपा खंभों और पर्दों की आड़ में
भीड़ में भनभनाहट थी-
जोकर से डर गया, देखो जोकर से डर गया
मैं सचमुच बहुत-बहुत डरा हुआ था
अब वह बिल्कुल मेरे सिर पर था
आंखों के सामने चमक रही थीं
चेहरे की काली-सफेद-लाल धारियां
बालों को छू रही थी लाल गोल नाक
फिर एक झपाटे में नीचे आई वह पीली तलवार
गर्दन के नीचे तिरछी भारी धारदार चोट...
डूबती चेतना में मैंने भीड़ की आवाज सुनी
'जोकर से...हा-हा-हा...डर गया...हो-हो-हो
देखो...मर गया...हे-हे-हे...जोकर के हाथों..'
5 comments:
क्या बात है! खूब..!
थोड़ा इन ताशों के बीच अपना भी दम घुट रहा है.. कहीं कुछ डूब रहा है..
"किनारे खड़ी तिग्गियों की ने इसपर ताली बजाई"
इस पंक्ति में एक "की" अधिक है..
कविता मस्त है..
चंद्रभूषण जी, बहुत अच्छी रचना है।बधाई।
दृश्य तभी अचानक बदल गया
सपाट जमीन पर मैंने जोकर को
अपनी तरफ झपटते देखा
हाथ में पकड़े नंगी पीली तलवार
पीछे से कोई बोला-
यह कुंठा की तलवार है,
जिससे बचना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है
बहुत खूब-आनन्द आ गया कविता का.
अच्छा व्यंग्य है
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