रात नहीं नींद नहीं सपने भी नहीं
न जाने कब ख़त्म हुआ इन्तजार
ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना
महोदय जिस ट्रेन का इन्तजार आप कर रहे हैं
वह रास्ता बदलकर कहीँ और जा चुकी है
हो जाता है, कभी-कभी ऐसा हो जाता है श्रीमान
तकलीफ की तो इसमे कोई बात नहीं
यहाँ तो ऐसा भी होता है कि
घंटों-घंटों राह देखने के बाद
आंख लग जाती है ठीक उसी वक्त
जब ट्रेन स्टेशन पर पहुँचने वाली होती है
सीटी की डूबती आवाज के साथ
एक अदभुत झरने का स्वप्न टूटता है
और आप गाड़ी का आखरी डिब्बा
सिग्नल पार करते देखते हैं
सोच कर देखिए ज़रा
ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है
या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की वह नींद
और वह भी छोड़िये
इसका क्या करें कि ट्रेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त
मगर न जाने को कोई जगह है ना रुकने की कोई वजह
ठण्डी बेंच पर बैठे अकेले यात्री के लिए एक सूचना
ट्रेनें इस तरफ या तो आती नहीं, या आती भी हैं तो
करीब से पटरी बदलकर कहीँ और चली जाती हैं
या आप का इन्तजार वे ठीक तब करती हैं
जब आप नींद में होते हैं
या सिर्फ इतना कि आपके लिए वे बनी नहीं होतीं
फकत उनका रास्ता
आपके रास्ते को काटता हुआ गुजर रहा होता है
4 comments:
शानदार जानदार कविता.. कितने ही बिम्ब घूम गये दिमाग में.. कितने ही एहसास.. जैसे कि ज़बान पर रखा शब्द जो है कहीं आस पास पर हवा में घुलता नहीं..आपको मिलता नहीं..
अच्छा है.. लगे रहिये.. बहुत सारी जगह पहुंचेगे.. रात नहीं दिन में पहुंचेगे.
चंद्रभूषणजी बढ़िया ट्रेन है। और कविताओं की प्रतीक्षा में-
आलोक पुराणिक
अच्छा लिखा|पढ कर अच्छा लगा| जारी रखियेगा
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