Friday, May 4, 2007

कार्यकर्ता की डायरी-२

वो क्या है कि या तो मेरे ब्लोग का बरतन बहुत छोटा है, या फिर मुझे लिखना नहीं आता। पता नही क्यों २०० शब्द लिखने मे ही चीं बोल जाता है। बहरहाल, इस बार कल से आगे चलें, अगली बार से बेतरतीब हो जायेंगे-
.... हमारे साथी गयाजी ने ऊपर से फायर मारा और शोर किया। रात मे गूंजती हुई उनकी आवाज उनकी पुश्तैनी बस्ती श्री टोला पहुंची। पड़ोस मे ही दिन-रात जागने वाला बस स्टैंड था जहाँ उनकी दुसाध बिरादरी का दबदबा चलता था। लोग ललकारते हुए आगे बढ़े तो बदमाशों को लगा कि वे लडकी को लेकर निकल नहीं पाएंगे। आखिरकार वे उसे छोड़कर इधर-उधर निकल गए। मजे कि बात यह कि घटना स्थल से पुलिस थाना बस स्टैंड या श्री टोला से कहीँ ज्यादा नजदीक था लेकिन रात मे तो दूर सुबह भी वहां से किसी ने इधर आना जरूरी नहीं समझा था। जिस इमारत मे यह सब हुआ था वहां सभी किरायेदार ही रहते थे। पुलिस से कुछ कहने का कोई मतलब उन्हें भी समझ मे नहीं आया। अलबत्ता सभी ने मिलकर महिला से कहीँ और मकान तलाश लेने के लिए कहा। मैंने दीना जी से कहा कि जवान लडकी के साथ यह कहाँ जायेगी। यहाँ किसी तरह बच गयी किसी और जगह कैसे बचेगी? बेचारगी मे उन्होने सिर हिला दिया क्योंकि इस मामले मे कुछ भी बोलने का मतलब कुछ और लगाया जाता और इससे गया जी का वहां रहना मुश्किल हो जाता। आरा मे मेरे लिए यह एक तरह की शाक-लैंडिंग थी। ऐसे ही माहौल मे मुझे काम करना था जहाँ शहराती विकृतियाँ अपने चरम पर थीं लेकिन कायदे-कानून बिल्कुल पिछडे देहाती इलाकों से भी गए-गुजरे थे। अचरज की बात यह भी कि आरा में सेक्स का धंधा गली गली में बिखरा रहता था , हालांकि नगदी लोगों के पास कम ही हुआ करती थी।
इस बारे में एक और किस्सा अगली बार ....

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