१९८ में इलाहाबाद छूटने के १४ साल बाद २००२ में एक घरेलू शादी के सिलसिले में वहाँ गया। जैसे-तैसे रिश्तेदार के यहाँ एक रात गुजारी फिर अगले दिन पूछते- पाछ्ते प्रणय के यहाँ पहुंच गया। वहाँ लगभग पूरी रात हम शहर और आंदोलन के बारे में बात करते रहे। अगले दिन सुबह ही दिव्या को मिर्जापुर निकलना था, जहाँ वह पार्टी का काम करती है, सो मन मार देर रात प्रणय सोने चले गए। बियर का सुरूर था लेकिन नीद नही आ रही थी। कुछ देर मैंने अज्ञेय पर प्रणय की दिलचस्प थीसिस पढी, फिर कुछ देर यूं ही पड़े-पड़े इस शहर में अपनी चढ़ती जवानी के दिन याद किये।
अतीत-मोह या नोस्टालजिया हमारे दायरे में गाली समझी जाती रही है लिहाजा उसमें मैं नहीं जाना चाहता लेकिन उस दौर की कुछ अच्छी बातें याद करने में इस दौर का फ़ायदा है। इस दौर की दो चीजें मुझे सबसे ज्यादा नापसंद हैं। एक तो चूरन फरोशी , यानी हर चीज को बेचने की झोंक, दूसरी इतराहट, यानी खामखा खुद पर ही मगन रहना। मुझे यह याद करके सुकून मिलता है कि इलाहाबाद के मेरे मित्रों में ये अवगुण पहले तो नहीं ही थे, आज भी बहुत कम हैं। उनमें से ज्यादातर जितना दिखते हैं उससे ज्यादा दिखाने का दम उनके भीतर है और बेचने के मामले में वे आज भी पहले जितने ही लापरवाह हैं। कभी- कभी मैं सोचता हूँ क्या अपनी कुछ ज्यादा ही आलोचना से हमने एक-दूसरे की पहल कदमी मार दीं ? फिर कई दूसरे लोगों से तुलना करके सुकून भी मिलता है कि घटियापने की इस होड़ से बाहर रहते हुए छूट जाने में भी कोई बुराई नही है। ये बातें सईमा के लिए खास तौर पर।
5 comments:
नॉस्टेल्जिया उतना भी बुरा नहीं है चंदू भाई। हां, भविष्य और वर्तमान के निषेध का नॉस्टेल्जिया ज़रूर घातक है। किसी भी भाषा के साहित्य का यही तो प्राणतत्व है! आप इलाहाबाद के संस्मरण लिखें। हम पढ़ेंगे और उन स्मृतियों से ताक़त बटोरेंगे।
इलाहाबाद छोड़े कई बरस गुजरे, बड़ी दुनिया देखने की हरसत में उस दड़बे से बाहर आए थे, लेकिन फिर भी इलाहाबाद अब भी बहुत अपना-सा लगता है और इलाहाबाद से जुड़ा कोई भी संस्मरण भी।
इलाहाबाद जिंदाबाद लेकिन, जय महाराष्ट्र जैसा नहीं। विचित्र शहर है बाहर के लोगों के लिए ज्यादा अपना ह। जीवन प्रवाह जैसा है।
इस दौर की दो चीजें मुझे सबसे ज्यादा नापसंद हैं। एक तो चूरन फरोशी , यानी हर चीज को बेचने की झोंक, दूसरी इतराहट, यानी खामखा खुद पर ही मगन रहना। कई दूसरे लोगों से तुलना करके सुकून भी मिलता है कि घटियापने की इस होड़ से बाहर रहते हुए छूट जाने में भी कोई बुराई नही है।
Jabardast!
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