वक्त का क्या कहूं?
यह पानी पर बना चेहरा है
एक बूढ़े आदमी का बेरौनक चेहरा
जिसकी कोई रग लिजलिजे भेड़िए की है
तो कोई हूबहू मेरी अपनी भी है
बनने को चेहरे बादलों में भी बनते हैं
मगर यह पानी पर बना चेहरा है
लिथड़े हुए पानी पर बना गंदा चेहरा
जिसे देख ठिठका हुआ मैं, खुद को
गंदगी में ढला महसूस कर रहा हूं
मगर यह पानी पर बना चेहरा है
लिथड़े हुए पानी पर बना गंदा चेहरा
जिसे देख ठिठका हुआ मैं, खुद को
गंदगी में ढला महसूस कर रहा हूं
‘नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें...’
काली आभा? किसकी? बेशक मेरी!
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें...’
काली आभा? किसकी? बेशक मेरी!
वक्त का क्या कहूं?
चक्कू की नोक पर नाचता नटराज है
जूझ रहे थे हम नीम-अंधेरे में बरस रही
एसिड की बोतलों, नकाबपोश रॉडों से
एसएस, गेस्टापो और खाकी निक्कर से,
जख्म लेकिन हमारे भीतर ही फट पड़ा
चक्कू की नोक पर नाचता नटराज है
जूझ रहे थे हम नीम-अंधेरे में बरस रही
एसिड की बोतलों, नकाबपोश रॉडों से
एसएस, गेस्टापो और खाकी निक्कर से,
जख्म लेकिन हमारे भीतर ही फट पड़ा
वक्त को लेकर इतना और कि
सिर्फ बाहर-बाहर वह कभी नहीं आता
जहरीले फूल उसके हवा में गमकते हैं
पर जड़ें उसकी हमारे अंदर होती हैं
जरा-मरण अपनी मुट्ठी में लिए हम,
जो खुद को भविष्य का भ्रूण मानते हैं
सिर्फ बाहर-बाहर वह कभी नहीं आता
जहरीले फूल उसके हवा में गमकते हैं
पर जड़ें उसकी हमारे अंदर होती हैं
जरा-मरण अपनी मुट्ठी में लिए हम,
जो खुद को भविष्य का भ्रूण मानते हैं
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