Monday, October 29, 2018

यादें

शुक्रगुजार हूं यादों की इस खास गढ़न का
कि इसी के बल पर अब तक जीता आता हूं
कि कड़वा-करख्त धुआं और पसीने से चिपचिप धूल 
दोनों यादों में झर-झर झरते मेहों से धुल जाते हैं
और दफ्तरी यकसारियत जब दिल को दबोचती है
तो इंद्रजाल से महमह अमिया बौर मदद को आते हैं
ऐसी ही चटख यादें अगर चीरफाड़ के डॉक्टर, 
दारोगा, वकील, लाश और बासी खून की भी होतीं
या पूरे साल एक बंद कमरे में अकेले रहने की यातना
अपने असाध्य पीलेपन में वैसी ही टटकी रह आती
और जरा सी कोशिश पर पलटकर आंख में आ जाती
तो जिंदगी के हल्ले से बंदा अर्सा पहले फारिग हो लेता
शुक्रगुजार हूं मेरी और सबकी कहानी लिखने वाले का
कि कहानी जैसा कोई मर्ज उसे बिल्कुल नहीं लगा
कि अच्छी तरह पता है उसे कि गुर्दा, लीवर, तिल्ली
दिल, दिमाग, आंतें और फेफड़े सुख-दुख के हर रचाव से
इतने ज्यादा जरूरी हैं कि कोई घालमेल इनमें नहीं चलेगा
सो मन के कबाड़ में पड़ी छोटी यादें लौट-लौटकर आती हैं
और स्वयं को गढ़ने वाली लंबी-चौड़ी बस घूरे में जाती हैं

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