Saturday, October 20, 2018

रुलाने वाला राम

जिंदगी सबसे पहले उम्मीद से चलती है
रुपये-पैसे से नहीं, भोजन-पानी से नहीं
सांस और सूरज के उजाले से भी नहीं
सबसे पहले और सबसे ज्यादा जिंदगी
एक ठोस, चटख उम्मीद से चलती है
और सिर्फ बारह-पंद्रह की उमर में
यही चीज जब धुंधली और हवाई दिखे
तो घुन्ना लड़का कर भी क्या सकता था
किसी से कुछ कहने की जगह थी नहीं
तो सोचता, काश पिता रामायण पढ़ते
दस में एक बार ही यह हो पाता था
मोटे अक्षरों वाली गीताप्रेस की पोथी
तिड़के शीशे वाली लालटेन के सामने,
और आंखों पर कम लगने वाला चश्मा
जो अक्सर चढ़ते ही हट भी जाता था
सिर्फ दो ही कांड पिताजी बांचते थे
दिन अच्छा गुजरा हो तो उत्तर कांड
वरना हर बार-हर बार अयोध्या कांड
और आवाज से अपनी वे चित्र खींचते थे
मगर मन में उनका रोना खिंचता था
‘जौ न होत जग जनम भरत को
विषम धरम धुरि धरनि धरत को’
आज भी लगता है, तुलसी ने यह चौपाई
पिता को रुलाने के लिए ही लिखी थी
और मां को रुलाने के लिए न जाने किसने
लिखा था- ‘तुहइं हम चीन्हित नायं महाबीर’
किसी के रोने का उम्मीद से भला क्या वास्ता?
मां-बाप रोएं तो बच्चे को ताकत कैसे मिलेगी?
लेकिन घुन्ने लड़के को मिलती थी, उस दौर में
जब उसके पास उम्मीद का कोई सोता नहीं था
क्या पता, लगता हो उदासी में वह अकेला नहीं
क्या पता, नाकामियां आनी-जानी सी लगती हों
क्या पता, राम की तकलीफ का साझा करने से
उसकी भी तकलीफ में राम का साझा बनता हो
रोज शाम कोई उम्मीद खोजता हूं और सोचता हूं

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