बीच में दो दिन के फासले पर आए बुखार के दो लंबे दौर झेल कर उठी हैं। ज्यादातर सपने खाने के बारे में ही आ रहे हैं। खुद खाने के बारे में नहीं, किसी और को ठीक से खाना न खिला पाने के बारे में।
कल कह रही थीं, ‘तीन बिल्कुल सफेद कपड़े पहने लोग खाने पर बैठे हैं। साथ में बड़कू (मेरे बड़े भैया) भी हैं। वो भी सफेद कपड़े हुए। सबके कपड़े इतने सफेद कि क्या कहूं। ऐसी सफेदी कहीं देखने को नहीं मिलती। बड़कू से पूछती हूं कि ये लोग कौन हैं, तो कह रहे हैं कि नेता हैं।
‘खाना परोस चुकी हूं। बीच में आकर देखती हूं तो दाल खतम हो गई। मैं कह रही हूं, पता नहीं कैसे बनाती हैं (उनकी बड़ी बहू, मेरी भाभी), किसी ने दाल मांग लिया तो कहां से दूंगी। बताओ, रोज घर में इतनी दाल फेंकी जाती है, आज बाहर के लोग खाने बैठे हैं तो दाल ही खतम। बहुत मन घबड़ा रहा है। लेकिन सब्जी ले जा-ले जा कर परोसती रहती हूं। कोई दाल नहीं मांगता।’
फिर आज सुबह उठते ही खाने का एक और सपना। ‘बलदाऊ (गांव में पड़ोस के मेरे एक चाचा ) कह रहे हैं, भउजी बड़ी भूख लगी है, कुछ खिला दो। आटा सना हुआ है, रोटी बनाने बैठती हूं कि तभी पता नहीं कहां से बहुत सारे बच्चे आ जाते हैं। ऐसे खभोर बच्चे कभी देखे नहीं। तावे पर रोटी चढ़ाते ही नोच-नोच कर खा जा रहे हैं, थाली में से सना हुआ पिसान ही उठा कर भाग रहे हैं, कच्चा ही खा जा रहे हैं। कह रही हूं, बाऊ कैसे खिलाऊं, ये कुछ बनाने दें तब न?
‘तभी जयराम (बलदाऊ चाचा के छोटे भाई) आते हैं। कहते हैं, भउजी, मुझे तो थोड़ा मीठा-पानी ही दे दो। कुछ तो चला जाय गले के नीचे। बड़ा अजीब लग रहा है। क्या करूं-क्या करूं हो रही है। तब तक इंदू (मेरी पत्नी) ने रसोई की लाइट जलाई, नींद खुल गई।’
इंदू को मां की भोजपुरी ज्यादा समझ में नहीं आती। उनके पूछने पर मां के सपनों के बारे में बताया तो बोलीं कि पता नहीं क्यों आजकल खाने के बारे में बहुत बात करने लगी हैं। भाभी बता रही थीं कि एक दिन उन्हें कोस रही थीं कि उन्होंने चाचा (मेरे पिताजी) को कभी समय पर खाना नहीं दिया।
पिताजी की मृत्यु सत्रह साल पहले हो चुकी है। खुद भाभी की तबीयत भी आजकल बहुत अच्छी नहीं चल रही। चिढ़कर उन्होंने कहा कि आप उनकी पत्नी थीं, मैं नहीं दे रही थी तो आप ही दे देतीं टाइम पर खाना। फिर उन्होंने कहा कि जब पिताजी जिंदा थे तब तो इन्हें गांव भर घूम कर पंचायत करने से ही फुरसत नहीं मिलती थी। अब इतने दिन बाद बड़ी उनकी चिंता हो रही है।
मुझे लगता है, बीमारी से मां बहुत कमजोर हो गई हैं। भूख तो लगती ही होगी लेकिन कुछ खाने का मन भी नहीं करता। पुरानी स्त्रियों के लिए खुद कम से कम खाना, या खाते हुए न दिखना भी उन पर लागू होने वाली अनंत वर्जनाओं का एक हिस्सा था। दूसरों को ठीक से न खिला पाने के ये अटपटे सपने भी शायद इसी चेतन-अवचेतन के द्वंद्व से उपजी हुई चीज हैं।
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