Wednesday, May 6, 2015

यात्रा, जो टल गई

चीन जाने, वहां के लोगों से मिलने, उनसे बातें करने की बड़ी गहरी इच्छा न जाने कब से मन में दबी पड़ी है। विदेश यात्रा को लेकर लोगों में जैसी ललक देखता हूं, उसका इस इच्छा के साथ कोई मेल नहीं है। दुनिया हर जगह कमोबेश एक जैसी ही है। आप अगर इसको अपने यहां ठीक से नहीं देख पाते तो बाहर जाकर और भी नहीं देख पाएंगे। कोई और ही बात है, जिसके लिए मैं चीन जाना चाहता हूं। संयोग ऐसा कि इस तरह का मौका पिछले एक साल से मेरा दरवाजा खटखटा रहा है। पासपोर्ट बनवाने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। सिर्फ चीन जाने के ख्याल से इस तीन-तेरह में पड़ा। एक महीने दौड़ लगानी पड़ी, लेकिन पासपोर्ट आखिर बन गया।

लेकिन जब सारी तैयारियां हो चुकी थीं, वीजा लगकर आ गया था और 10 मई से 17 मई तक आठ दिन का पैक  प्रोग्राम डिटेल भी हाथ में था, तब अचानक यात्रा स्थगित होने की खबर आ गई। कारण? नेपाल का भूकंप। या क्या पता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा से जुड़ी चीनी विदेश मंत्रालय की व्यस्तताएं इसकी अघोषित वजह बनी हों। आठ दिनों की यात्रा के दो दिन पेईचिंग में और बाकी छह दिन तिब्बत में गुजरने थे। मूलत: यह चीनी दूतावास द्वारा आयोजित तिब्बत-दर्शन कार्यक्रम था। दूतावास का कहना है कि वह जल्द ही यात्रा के बदले हुए शिड्यूल के बारे में सूचित करेगा। जो भी हो, इस क्रम में बहुत सारी पढ़ाई मैंने जरूर कर डाली है।

पीपुल्स पब्लिकेशन से प्रकाशित राहुल सांकृत्यायन के ‘विविध प्रसंग’ में उनकी तीन तिब्बत यात्राओं के दिलचस्प ब्यौरे मौजूद हैं। राहुल जी एक भिक्षु, एक घुमक्कड़, एक कम्युनिस्ट, वह सब जो मैं और मेरी पीढ़ी के बहुत सारे लोग बनना चाहते थे, लेकिन समय के थपेड़े खाते हुए कुछ और ही बन गए। यह यात्रा अगर कभी सिरे चढ़ी तो अभी के तिब्बत को मैं राहुल जी की नजर से ही देखना चाहूंगा। देख पाऊंगा या नहीं, यह काफी कुछ दिखाने वालों की मर्जी पर निर्भर करेगा और कुछ हद तक मेरी अपनी दृष्टि की सीमाओं पर। सात सौ सालों के तिब्बती इतिहास पर चीन का मोटा आधिकारिक ग्रंथ भी सरसरी तौर पर देख गया। राहुल जी के बताए ऐतिहासिक नामों का कोई मेल इस किताब में तलाशना खुद में लोहे के चने चबाने जैसा है।

प्रॉपर चीन में रहने का समय कम मिलेगा, लेकिन इसकी थोड़ी भरपाई मैंने चीनी दूतावास के लोगों से बातचीत के दौरान ही कर लेने की कोशिश की है। कुल चार लोगों से दो किस्तों में हुई डेढ़-दो घंटों की इस बातचीत में मुझे लगा कि चीनी क्रांति और वहां के नेताओं के बारे में पिछले तीस वर्षों के दौरान इतनी सारी जानकारी जुटा लेने के बाद भी इस पड़ोसी देश  को समझना हमारे जैसे लोगों के लिए ब्रिटेन और अमेरिका को समझने से ज्यादा मुश्किल है। यहां के लोग तीन हजार साल के इतिहास को जुबान पर लिए फिरते हैं, फिर भी लगता है अपने अतीत से इन्हें जरा भी मोह नहीं है। डिप्लोमेट वाले पैमाने से देखें तो ये बहुत अच्छे लोग हैं, घर-परिवार तक के बारे में बात करने वाले। लेकिन कुछ देर बाद थोड़ा मशीनी, थोड़ा बोरिंग और बहुत ज्यादा सहमे हुए से लगते हैं।

सुना है, अभी का चीनी नेतृत्व विचारधारा पर काफी जोर दे रहा है। चीनी राष्ट्रपति और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी चिनफिंग के लेखों और भाषणों का एक संकलन दूतावास द्वारा उपलब्ध कराया गया। इसके कुल दो-तीन छोटे-छोटे हिस्से ही अब तक पढ़ पाया हूं। एक हिस्सा अध्ययन के बारे में है। पार्टी नेताओं से कहा गया है कि मार्क्स-एंगेल्स-माओ और तंग श्याओफिंग को पढ़ें, बाद के दोनों महासचिवों (राष्ट्रपतियों) को भी पढ़ें, चीन का इतिहास पढ़ें, कविताएं पढ़ें, देश-दुनिया में मौजूद हर तरह की जानकारी लें- यह सब इसलिए करें ताकि चीन के नवजीवन (रिजूवनेशन) का सपना साकार कर सकें। लेकिन मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन चीन या किसी भी देश के ‘रिजूवनेशन’ को लेकर क्यों लिखने लगे भला?

समृद्धि के मुहावरे में सार्वदेशिक कम्युनिस्ट विचारधारा के लिए कितनी जगह बची है? कोई मिलेगा तो पूछेंगे।   

2 comments:

मृत्युंजय said...

जाकर लौटिए, तब और कुछ लिखिए। इंतजार रहेगा।

kirmani post said...

न जगह है , न मौक़ा और दस्तूर है , फिर भी कम्युनिज्म के बेजान जिस्म को ममी बनाकर मेहफ़ूज़ रखना चाहते हैं शायद ये लोग. सूरते- हाल को आप अपनी आँखों से देखकर बयान करेंगे तब मज़ा आएगा. इन्तिज़ार रहेगा ..