Monday, November 24, 2014

शिकवा

जबर की दुनिया में जीने के लिए
किसी को हुनर देता था,
किसी को सबर देता था

ये कैसा वक्त है अल्लाह
कि दोनों ही चीजों का
एक साथ टोटा पड़ गया है

हुनरमंद कम हैं
मारे-मारे फिरते हैं
हुनर के आढ़तिए बहुत ज्यादा-
दुर-दुर बिल-बिल करते हैं

और सबर की तो बात ही छोड़ो
अर्सा पहले उसने अपनी लुटिया उठाई
और अपनी टूटी चप्पल चटकारता
चुपचाप दुनिया से दफा हो गया-
सबको अपनी डेढ़ गांठ हल्दी से बजार लगाते
अपने अबूझ अनोखेपन के गीत गाते हुए
जबर किचाइन वाले इस कचपचिया जंगल में
हमेशा-हमेशा के लिए अकेला छोड़कर

2 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सटीक पंक्तियाँ हैं

रश्मि प्रभा... said...

kripya mujhe mail karen apne blog link ke saath