Tuesday, December 10, 2013

कैसे कैसे फूल

फूल ही फूल खिले आते हैं
जिधर भी देखो फूल ही फूल

कत्थई, बैंगनी
कलौंछ नीले और बिल्कुल काले
मांसल पंखुड़ियों वाले रोएंदार फूल

चिलम पर सुलगते हुए गांजे जैसी
भभक कर पस्त कर देने वाली उनकी गंध

कितना भी बचना चाहो
उनकी छुअन की खुजली
जल्द ही बर्दाश्त से बाहर होने लगती है

तुम भी कभी फूल थे-
एक महीन आवाज मेरे कान में गुनगुनाती है

क्या ऐसे ही फूलों में से एक फूल?

आवाज जैसे खिलखिलाती है-
फूल तो फूल है...ऐसा क्या वैसा क्या

शायद मैं रौंदा जा चुका एक फूल हूं
या किसी मुरझाए फूल की स्मृति

जो भी हूं पर इनमें मुझे न गिनो
ये किसी और ही तरह के फूल हैं
इनके पास तो कोई रहना भी न चाहे

आवाज अब उदास है और बहुत धीमी
और अब शायद वह जा रही है

ये जिंदा फूल हैं...जीना ऐसा ही होता है

रोज ही देखता हूं बरातों, धार्मिक जलसों
चुनावी सभाओं में बिखरे
फटे कुचले चिथड़ा मरे हुए फूल

खुद को भी ऐसा ही मानने लगा हूं

फूल किसी और तरह के हो सकते हैं-
सपने में भी सोच नहीं पाता

2 comments:

रश्मि प्रभा... said...

http://www.parikalpnaa.com/2013/12/blog-post_15.html

प्रवीण पाण्डेय said...

रंग रूप तो बना रहेगा,
सुगंध में फूल का अस्तित्व है।