Saturday, January 4, 2014

दिल्ली पर राज करेंगे

गौर से सुनो तो इस शहर की शामों में
थोड़ी-थोड़ी देर पर तुम्हें एक तटस्थ सी फूत्कार सुनाई देगी
एक ऐसी आवाज जो सीधे कोई खौफ नहीं पैदा करती
सिर्फ चौंका सा देती है कि तुम राजधानी में हो
और यहां तुम्हारे साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है

दरअसल यह कोई आवाज नहीं, सिर्फ एक गूंज है
जो समय से टकराकर हर किसी के न सही
किसी न किसी के कानों तक पहुंचती रहती है

अकारण सर्वनाश की अभिशप्त गूंज, जिसकी तली में
कोई ऐसा जहर है जो समय की धार से भी नहीं कटता

इस शहर को सांपों का शाप लगा है
अपने मामूली दुख-सुख में मगन निर्दोष सांपों का शाप
जो वंशनाश से पहले इसका कारण भी नहीं जान पाए थे

...और उस शाम जब नागराज बासुकि
खांडवप्रस्थ के सबसे ऊंचे शमीवृक्ष के कोतड़ से निकलकर
धुएं और लपटों के बीच से सरसराते हुए उसकी आखिरी फुनगी तक पहुंचे
तो हतक में आकर उनके मुंह से विष की एक लंबी धार निकल गई

उनके अंतिम मौन में कोई शब्द था या नहीं, यह कोई जान नहीं पाया
लेकिन जो ऋषि राजन्य वर्ग की दक्षिणा पाकर कृतार्थ होने से रह गए
उन्होंने नागराज बासुकि के शाप का उल्था मानव भाषा में कुछ यूं किया-
‘यहां बनने वाली नगरी पर जो भी राज करेगा
वह या तो बेमौत मरेगा, या जीते जी लाश बनकर रह जाएगा’

सबसे पहले इस शाप को धर्मराज युधिष्ठिर ने अंगीकार किया
फिर जो भी आया उसको इसी राह जाना पड़ा

किसी को मुश्कें बांधकर मारने के लिए परदेस ले जाया गया
कोई हाथी के हौदे पर आ पड़ी मेहराब से कुचलकर मरा
कोई किताब पढ़ते-पढ़ते उठा और सीढ़ियों से लुढ़क कर फौत हो गया
किसी को भरे दरबार में नचाया गया और फिर उसकी आंखें नोची गईं

कोई डेढ़ साल तक पंचशील का कफन लपेटे दुआ करता रहा
कि फरिश्ते उसे जल्दी उठाकर ले जाएं कि आखिर कष्ट कटे
कोई अपने ही घर के दरवाजे पर दसियों गोलियां खाकर गया

कोई बोफोर्स के गोले के बाद मानवबम का शिकार हुआ
कोई गद्दी पर रहते जेल जाने से बाल-बाल बचा तो मरने के बाद
उसके बच्चे उसकी अधजली लाश कुत्तों के चखने के लिए छोड़ गए

कोई अपने मुख की प्रतिभा पर इतना मुग्ध हुआ कि
दीवार पर लटका मुखौटा बनकर भी खुशी-खुशी जलेबी सूतता रहा
शायद इसी खुशी में वह आज भी जिंदा है, हालांकि उसके उपासक
जब-तब पूछ ही लेते हैं एक-दूसरे से कि फलाने जी हैं अभी या निकल लिए

कोई यही सोच-सोचकर आसूदा कि महाबली देश का महाबली नेता
दावोस जैसी हाई लेवल की सभा-सोसाइटी में उसे गुरू कहता है
हालांकि उसके अपने घर में ही लोग उसे गुरू घंटाल कहने लगे थे
और टीवी पर उसकी आखिरी तकरीर में मिस्र की ममी जैसी बास आती थी

और तुम, जो इस शहर में ठिकाना खोजने आए थे
और एक सुहानी शाम इस पर राज करने की उम्मीद बांध बैठे-
खुद पर इतना रहम करो कि इस शहर को हल्का आंकने की गलती न करो
यह तुमसे जीतता है तो तुम्हें मारता है और हारता है तो ज्यादा बुरा मारता है

यह शहर कहने को कूड़े पर मगर हकीकत में राख पर बसा है
गली-गली दफन करोड़ों मासूम सपनों की राख पर,
जिनकी उदास फुफकार इतने महाभारत बीत जाने के बाद भी
हर रोज यहां की रेल-पेल भरी शामों में रह-रह गूंजती है

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

शापित दिल्ली, शासित जनपथ,
आशाओं की मारी लथपथ।

स्वप्नदर्शी said...

Bahut umda!