Tuesday, November 26, 2013

सुबह-सुबह सियार

वे दो थे
हूबहू एक जैसे
चपल हाथ-पांव, थूथनी उठी हुई
जैसे कोई गहरी बात सूंघ लेने की कोशिश में हों

भरोसे से भरी सुंदर आंखें
इतने सुगठित, इतने स्वस्थ
कि दुनिया बलाएं लेती दिखती थी

और पास आने या दूर भागने की
कोई जल्दी भी उन्हें नहीं थी

एकटक उन्हें देखते हुए मैंने सोचा-
ऐसे अलबेले कुत्ते अलस्सुबह
धान के अधकटे खेतों में क्या कर रहे हैं?

और तब ध्यान गया उनकी पूंछ पर-
बिल्कुल सीधी झबरीली
नीचे की तरफ शरीर से हल्का सा कोण बनाती हुई

चौंककर आतिथेय से पूछा-
अरे भाई ये सियार हैं क्या?

(खेत में गन्ना न खड़ा हो तो सियार किसान का दोस्त है
चूहों का जबर शिकारी, रात में परचे हुए भैंसे को भी डरा देने वाला
हां, गन्ना हो तो खेत पर उसका दावा किसान जितना ही होता है)

(इतने सुदर्शन, आत्मविश्वासी जीवों में पंचतंत्र के धूर्त
और वीरगाथाओं के कायर चरित्रों से तुलना करने को
भला क्या हो सकता है- यह कहां का काव्य न्याय है?)

जैसे किसी सम्मोहन से जागते हुए एक बार फिर मैंने पूछा-
भाई, दिन चढ़े ये खेत में सियार खड़े हैं क्या?

प्रकृति दर्शन से कहीं ज्यादा जरूरी
घर-गिरस्ती के दीगर कामों में फंसे मेरे ममेरे भाई ने
जबरन गले पड़ रहे शहराती सवाल के जवाब में
कुछ उकताहट से कहा- होंगे।


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