कोई बुलाता था तो कोई बोलता था
कोई पुकारता था तो कोई जवाब देता था
नहर किनारे तक चढ़ आए ताल में
शर्मीले चांद को एकटक ताकती हुई
पूरी रात शौक से जगी कुमुदिनियां
गुनगुनी धूप में सो जाने से पहले
ओस की आखिरी बूंदों से
अपनी आंखें नम कर रही थीं
कोहरे से घिरी विशाल जलराशि में
गहरी बेलौस आवाजें दूर तक गूंजती थीं
जैसे यह सारा सरंजाम इस उत्तेजना भरे
अदृश्य प्रेमालाप के लिए ही बनाया गया हो,
और इसमें जरा भी क्रमभंग से
सारा कुछ मुरमुरे की तरह टूट-बिखर जाएगा
पूरब में झलकता एक गब्दू सा ललछौंह बच्चा
बबूल के कांटों के पीछे से झांकने की जुगत में था
कि कुछ देर वह भी इस खेल में शामिल हो सके
या क्या पता, ढलती हुई चांदनी में
सारसों की पुकार ही उसे नींद से जगा लाई हो
मेरी आवाज से जादू टूट न जाए, इस डर से
होंठों ही होंठों में मैंने वक्त से कहा, कुछ देर और रुको
सालोंसाल तरसा हूं, मेरे लिए दो पल और सही
लेकिन यह कहने में शायद देर हो गई थी
चतुर्दिक फैला प्रेम भी अंतिम विदा से पहले
कहां किसी की प्रतीक्षा करता है
कहीं से रबी की जुताई के लिए
ट्रैक्टर चलने की आवाज आई
ताल में एक सारस अपने पंख फुरफुराता हुआ
मछली पकड़ने उतरा
दिन उगने से पहले ही जिंदगी का कारोबार शुरू हो गया
1 comment:
अच्छा लिखा है..
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