न जाने कितने राजू आए, न जाने कितने पप्पू
गुड्डू, मुन्ना, नन्हें, चुन्नू और बबलू इतने
कि सबको अलग-अलग याद रखना भी मुश्किल है।
एक राजा, एक राजे, एक गुड्डा, एक गुड्डे, एक गुड्डन
एक मुन्नू, एक मुन्नन, एक नन्हूं और एक नन्हक भी आए
जो साईं बिरादरी के थे और बीड़ी बनाते थे।
जिनकी लड़की की शादी की बात
दर्जी बिरादरी के साथी सुफियान से चलाई तो
होंठो ही होंठों में लाहौल बुदबुदाते हुए लड़के के बाप बोले-
क्या अब ऐसा वक्त आ गया है कि दर्जियों के लड़के
इन तुमड़ी वाले भिखमंगे साइंयों की लड़कियों से ब्याहे जाएंगे?
खैर, बात अभी सिर्फ एक राजू की करनी थी
जो शायद दुनिया का अकेला इंसान था
जो अस्पताल में बनी आलू और करेले की
उबली हुई लटपट पीली सब्जी को देखकर उछलता हुआ सा
कह सकता था- आय लव आलू-करेला-
और तुर्रा यह कि खुद को शेफ कहता था।
चला आया था बंबई से रसोइए की नौकरी छोड़कर
यहां दिल्ली में अपना धंधा शुरू करने,
जबकि जेब में हजार रुपये भी नहीं थे।
मनमोहन सिंह या चिदंबरम को पता चलता
तो शायद आंतरप्रेनरशिप के लिए उसे पुरस्कृत करते
लेकिन असल जीवन में जोखिम लेने वालों को
पुरस्कृत होने, या पता चलाने के भी मौके कहां मिलते हैं।
काफी तकलीफ उठाने के बाद राजू ने जाना कि
जो गाड़ी पकड़कर वह दिल्ली पहुंचा,
उससे पहले वाली गाड़ी से उसका दुर्भाग्य भी इसी शहर में उतरा था।
स्टेशन के बजाय उससे थोड़ा पहले उतरने की कोशिश उसने क्यों की?
इसलिए कि बीच में किसी ने टिकट समेत उसका बटुआ मार दिया था।
(या क्या पता, टिकट रहा ही न हो
इस उम्मीद में कि मिल गया अगर कोई टीटी खाने का रसिया
तो उसे यह कहकर पटा लिया जाएगा कि
यह मेहरबानी आप एक होने वाले मास्टरशेफ पर कर रहे हैं
और इसके बदले में किसी न किसी शाम
एक एक्सक्लूसिव डिनर तो आपको करके ही जाना होगा।)
जो भी था, उतरने की हड़बड़ी में एक पांव पायदान में उलझा
दूसरे पर से पहिया उतरता चला गया
अस्पताल में आंख खुली तो जांघ के नीचे सारा साफ।
सन्नाटे में आकर मैं कुछ देर खामोश रहा, फिर पूछा-
बस, पूछने के लिए पूछा कि अब तो काफी वक्त हो गया होगा
क्या यहां ट्रौमा सेंटर में इतने समय तक रख लेते हैं?
जवाब में एक ठहाका- राजू का ठहाका
अपनी कहानी वह ऐसे ही सुनाता था, जैसे किसी और की हो
इसके अतार्किक मोड़ों पर इतनी बुरी तरह हंसता था
कि सुनने वालों को भी साथ में घिसटते हुए हंसना पड़ता था।
उसके बगल की बेड वाले सज्जन ने,
जो हर इंजेक्शन पर ऐसे चिचियाते थे जैसे तलवार मारी जा रही हो,
बोले- टांग तो इसकी बहुत पहले कटी थी
अभी यह यहां कटी टांग का फ्रैक्चर लेकर आया है।
कटी टांग का फ्रैक्चर?
एक और ठहाका- पता नहीं, खुद पर या मुझ पर
या नियति पर, जो अब राजाओं और योद्धाओं के बजाय
उन मरे-गिरे लोगों से ही ज्यादा सटकर चलती है
जिनपर ट्रेजडी लिखने चलो तो कोई पढ़ने वाला भी नहीं मिलता।
मुझे अब इस किस्से से घिन आने लगी थी-
डिस्चार्ज होकर गाड़ी पकड़ने गया, प्लेटफार्म पर धक्का लग गया-
खुद की मुसीबतें क्या कम थीं जो किसी और का टोकरा लादे फिरूं।
बात खत्म करने की गरज से मैंने कहा-
बरखुरदार, दिल्ली एक अच्छा शहर है
मगर इतना भी अच्छा नहीं कि टांग तुड़ाकर यहीं पड़ जाओ
बस, ठीक हो जाओ किसी तरह, बॉम्बे पहुंच जाओ
फैमिली के साथ रहोगे, धीरे-धीरे सब रास्ते पर आ जाएगा।
अपने चिचियाने पर राजू के बार-बार हंसने का बदला निकालते से
वही सज्जन बोले- काहे की फैमिली, अरे बीबी थी, गई किसी के संग
अभी परसों ही तो आई थी चिट्ठी...रो रहा था।
मुझे लगा, राजू एक बार फिर हंसेगा, लेकिन पेशाब की तलब बताते हुए
वह बिस्तर से उठा और अपनी हथठेल गाड़ी को धकियाता
भरमाई से मुद्रा में इधर-उधर देखता हुआ जल्दी-जल्दी दूर चला गया।
अस्पताल की सब्जी जैसे ऐसे ही बेस्वाद
और भी कई हैं मेरे पास राजू, पप्पू, गुड्डू, मुन्ना, नन्हें, चुन्नू,
बबलू, डबलू, राधे, छोटे वगैरह के किस्से-
बच्चों जैसे इन नामों के साथ जिनका कोई मेल नहीं बनता।
कामयाब लोगों की कामयाब कहानियों के बीच
इन नाकाम हसरतों का बयान सुनने की फुरसत किसे है,
अलबत्ता राजू जैसा कोई शेफ हुआ तो जरूर इन्हें सुनेगा
और उछलकर कहेगा- आय लव आलू-करेला।
4 comments:
आलू करेला के देश में रहेगा, तो जबरिया आलू करेला खाना पड़ेगा।
क्या बात है!
बात है, कैसी रात है
चिंदबरमों का नहीं हाथ है.
चंदू भाई, झकझोर देने वाली छवियों से अटी ऐसी भाषा. और ऐसी थीम। वाह गुरु।
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