Thursday, December 29, 2011

अंगूठी

मुझे इसको निकाल कर आना था।

या फिर चुपचाप पिछली जेब में रख लेता
बैठने में जरा सा चुभती, और क्या होता।

किसी गंदी सी धातु के खांचे में खुंसे
लंबोतरे मूंगे वाली यह बेढब अंगूठी
हर जगह मेरी इज्जत उतार लेती है।

एक नास्तिक की उंगली में
अंगूठी का क्या काम
वह भी ऐसी कि आदमी से पहले
वही नजर आती है
जैसे ऊंट से पहले ऊंट का कूबड़।

अब किस-किस को समझाऊं कि
क्यों इसे पहना है
क्या इसका औचित्य है
और निकाल कर फेंक देने में
किस नुकसान का डर सता रहा है।

प्यारे भाई, और कुछ नहीं
यह मेरी लाचारगी की निशानी है।

एक आदमी के दिए इस भरोसे पर पहनी है
कि पिछले दो साल से इतनी खामोशी में
जो तूफान मुझे घेरे चल रहा है
वह अगले छह महीने में
मुझे अपने साथ लेकर जाने वाला था
लेकिन इसे पहने रहने पर
अपना काम पूरा किए बिना ही गुजर जाएगा।

इतने दिन तूफानों में मजे किए
आने और जाने के फलसफे को कभी घास नहीं डाली
लेकिन अब, जब खोने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है
तब अंगूठी पहने घूम रहा हूं।

एक पुरानी ईसाई प्रार्थना है-
जिन चीजों पर मेरा कोई वश नहीं है,
ईश्वर मुझे उनको बर्दाश्त करने की शक्ति दे।

सवाल यह है कि
मेरे जैसे लोग, ईश्वर के दरबार में
जिनकी अर्जी ही नहीं लगती
वे यह शक्ति भला किससे मांगें।

जवाब- मूंगे की अंगूठी से।

प्यारे भाई,
तुम, जो न इस तूफान की आहट सुन सकते हो
न इसमें घिरे इंसान की चिल्लाहट-
अगर चाहो तो इस बेढब अंगूठी से जुड़े
हास्यास्पद दृश्यों के मजे ले सकते हो।

मुझे इससे कोई परेशानी नहीं है।

बस, इतनी सी खुन्नस जरूर है
कि इस मनोरंजन में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पा रहा हूं।

3 comments:

vikram7 said...

इतने दिन तूफानों में मजे किए
आने और जाने के फलसफे को कभी घास नहीं डाली
लेकिन अब, जब खोने को ज्यादा कुछ बचा नहीं है
तब अंगूठी पहने घूम रहा हूं।

पसंद आई आपकी यह सुन्दर रचना ,शुभकामनाएं
vikram7: आ,मृग-जल से प्यास बुझा लें.....

अरुण चन्द्र रॉय said...

badhiya kavita...

प्रवीण पाण्डेय said...

एक अजब सा विश्वास चढ़ा लिया जाता है अँगूठी के साथ।