Saturday, February 12, 2011

स्मृतिपोत

स्मृतिपोत
1.
अच्छा हो कि छूटे हुए लोग
हकीकत में कभी न मिलें
नहीं मिलेंगे तो रहेंगे हमेशा
समय के घावों से महफूज
सफेद दीवार पर टंगे
रंगबिरंगे स्मृतिपोत में चलते हुए
सदा-सुखी, सदा-सुंदर, सदा-स्वस्थ
देखने वाले को भी जब-तब
कुछ दूर अपने साथ ले जाते हुए,
जो उसके अब के होने को
कुछ कम बदरंग बनाता है।
2.
पीछे छूटे लोग कहां मिलते हैं
मिलती हैं उनके कद-बुत में
सिर्फ उनकी निशानियां
कोई जुमला, कोई लहजा,
निगाह का कोई अजब पैंतरा,
जो सजग न रहने पर
अब भी चुभ जाता है
तुम सोचते हो, यह वही है,
जिसकी एक-एक जुंबिश पर
जीना-मरना होता था?
मगर सोचो जरा,
क्या तुम खुद भी वही हो,
एक-एक जुंबिश पर
जीने-मरने वाले?
3.
मिलना हमारा कभी नहीं होता
न तब, जब मिलते हैं
न तब, जब छूटते हैं,
न ही तब, जब वापस मिलते हैं
कोई बात है जो मिलने देती नहीं
उसी बात से तो तुम तुम हो
उसी बात से तो मैं मैं हूं
उसी बात से तो यह धरती
एक अद्भुत जहाज
जिसके अलग-अलग कोनों में हम
अलग-अलग दिशाओं को जाते हैं
हमारा कभी न मिल पाना
यह बताने के लिए
कि जब धरती नहीं होगी
तब भी दीवार पर टंगा स्मृतिपोत
हमें लिए हुए कहीं जा रहा होगा।

2 comments:

केवल राम said...

अच्छा हो कि छूटे हुए लोग
वापस कभी न मिलें
नहीं मिलेंगे तो हमेशा रहेंगे
समय के घावों से महफूज

जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं यह कहाँ कब किसे किस पड़ाव पर ले जाए ..ऐसे में क्या कुछ नहीं होता हमारे साथ ..पर फिर भी जिन्दगी का सफ़र चलता है सिर्फ साँसों के सफ़र तक ...आपकी रचना उस संवेदना को बखूबी वयां करती है ...आपका आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

निशानियाँ कहाँ छूटती हैं?