Wednesday, October 20, 2010

दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है

सत्य, प्रेम या किसी और बड़े मकसद के लिए बिना किसी से शिकायत किए चुपचाप तकलीफ झेलते रहना एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसका कोई मेल आज के समाज के आम मिजाज से नहीं बनता। कोई मीरा, कोई लल्ल द्यद, कोई फ्रांज काफ्का, कोई वान गॉग अब सिर्फ अपने उत्पादों के लिए याद किया जाता है। उसके दुख के लिए कोई उसे याद नहीं करताा। इंसान का छोटा से छोटा दुख भी अब अग्राह्य, बल्कि पूरी तरह त्याज्य समझा जाता है। ऊपरी तौर पर इसके समाधान के लिए पूरी दुनिया तत्पर नजर आती है, बशर्ते खुद को दुखी बताने वाले व्यक्ति की कोई स्क्रीन प्रेजेंस हो, या फिर उसके पास बदले में देने के लिए पर्याप्त पैसे हों। ऐसे में किसी का बिना किसी मजबूरी के कष्ट उठाना समाज के लिए एक ऐसी गुत्थी बन जाता है, जिसे अतार्किक पंथ जैसा कुछ घोषित करने के सिवा और कोई चारा सामाजिक प्रवक्ताओं के पास नहीं बचता।
अज्ञेय के उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ में जेल में बंद नायक की मुलाकात बाबा मदन सिंह से होती है। वे 22 सालों से तनहाई की सजा काट रहे हैं। शिक्षा से पूरी तरह वंचित हैं और अपने जीवन और चिंतन से कुछ सूत्र निकालने का प्रयास करते रहते हैं। मदन सिंह से नायक को एक सूत्र प्राप्त होता है- ‘अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है, लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है।’ इस अटपटे सूत्र का कोई अर्थ एकबारगी शेखर की समझ में नहीं आता, लेकिन इसके आधे भाग का मतलब एक दिन वह खुद से सच्चा स्नेह रखने वाली स्वतंत्रचेता मौसेरी बहन शशि के पत्र से समझ जाता है। इस पत्र में शशि ने अपने विवाह में जरा भी रुचि न होने के बावजूद इसके लिए राजी होने की बात लिखी है, क्योंकि अपनी मान्यताओं का बोझ वह अपनी सद्य: विधवा मां के सिर पर नहीं डालना चाहती।
बाद में उसी शशि को उसके ससुराल के लोग मार-पीट कर घर से निकाल देते हैं। इतनी बुरी तरह कि उसका गुर्दा फट गया है और किसी संयोग से ही वह आगे जीवित रह सकती है। चरित्रहीनता के लांछन के साथ। इस अपराध में कि वह आत्मघात के लिए निकले अपने मौसेरे भाई शेखर के कमरे में एक बरसाती रात बिता कर आई है। घर से निकाली गई शशि वापस शेखर के ही यहां आती है और अपनी यातना के बारे में कई दिनों तक उसे कुछ नहीं बताती। बाद में डॉक्टर के जरिए जब शेखर को शशि की स्थिति का पता चलता है तो फिर उसके सामने धीरे-धीरे बाबा मदन सिंह के सूत्र के दूसरा हिस्से का भी अर्थ खुलता है।
सफरिंग- बिना किसी बाध्यता के यातना सहना- ईसाइयत का एक मूलभूत धार्मिक तत्व है। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी रचना ‘आदि ईसाई धर्म’ में यह साबित करने का प्रयास किया है कि सफरिंग हकीकत में ईसाइयत का मूल तत्व नहीं, बल्कि इसे अपना राजधर्म बनाते वक्त रोमन साम्राज्य द्वारा इस पर आरोपित चीज है। उन्होंने बताया है कि शुरू में जब ईसाइयत बढ़इयों और लोहारों का गुप्त धर्म हुआ करती थी, तब इसका मूल तत्व प्रतिशोध का हुआ करता था और रोमन साम्राज्य को पलटने का षड्यंत्र रचना इसकी मूल गतिविधि हुआ करती थी। हकीकत चाहे जो भी हो, लेकिन ईसाई धर्म अगर इंतकाम तक सिमट कर रह जाता, किसी बड़े उद्देश्य के लिए कष्ट सहने की बात इसमें शामिल नहीं होती तो सेंट पॉल और सेंट ऑगस्टिन से लेकर मदर टेरेसा तक फैली सेवा की उज्ज्वल परंपरा उसके पास न होती। निर्दयी सत्ताओं के लिए उसे पचा लेना भी तब बहुत आसान हो जाता।
दुनिया के इतिहास में न कोई ऐसा समय था, न ऐसा समाज था, जिसमें निजी स्वार्थ ने समाज की मुख्य संचालक शक्ति की भूमिका न निभाई हो। हर बार लोगों को अपनी खाल से बाहर निकल कर सोचने की प्रेरणा उन्हीं व्यक्तियों से मिली, जिन्होंने किसी मजबूरी में नहीं, अपनी इच्छा से कष्ट झेलने का फैसला किया। भारतीय परंपरा में शरीर सुखाकर अपनी जीवित हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि, शरणागत कबूतर को बचाने के लिए खुद का मांस अर्पित करने वाले राजा शिवि और समुद्र मंथन से निकला हलाहल पी जाने वाले भगवान शिव की परिकल्पनाएं सफरिंग को कहीं आगे तक ले जाती हैं। लेकिन हमारे भावजगत में ऐसी चीजों के लिए अब कोई जगह नहीं रह गई है। किसी भी आत्मिक या सामाजिक उद्देश्य के लिए यातना सहने की क्षमता से हम वंचित हो सकते हैं, पर जिनके अंदर आज भी वह जज्बा बचा है, उनसे दबावों के सामने टिके रहने की ऊर्जा ग्रहण करने के बजाय उन्हें सिर्फ कोई कल्ट मानकर उनका निरादर हमें नहीं करना चाहिए।

9 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

विश्वास में न जाने कितनी पीड़ा समा जाती है फिर भी वह नहीं छलकता।

कामता प्रसाद said...

प्‍योर मैथ वाले लेख के बाद यह भी इतना शानदार था कि रात डेढ बजे पढ लिया और वह भी पूरा। आभार।

अनिल कान्त said...

कितना कुछ है यहाँ, पढने और समझने के लिए....फिर से एक दमदार पोस्ट

Archana Chaoji said...

सही है --"दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है",और "विश्वास अगर है तो दर्द नहीं होता"...मनन योग्य पोस्ट..आभार........

Unknown said...

गुरूजी - ये पहले आपका ही लिखा कहीं और पढ़ा है - कहाँ ? ये याद नहीं आ रहा है - [शेखर / शशि वाला उद्धरण कहीं और ज़रूर पढ़ा है !! कहाँ ? कहाँ ?] - हो सकता है मतिभ्रम हो

चंद्रभूषण said...

मनीष जी, शायद एनबीटी ऑनलाइन पर पढ़ा हो- नवभारत टाइम्स के वेबसाइट पर।

Unknown said...

हाँ - सही वहीं पढ़ा था - [याद दिलाने का शुक्रिया] - अब बात पर बात - [बगैर असहमति के]- मानते हुए कि जो दिखता है वह पूरा नहीं याने थोड़े थोड़े हम सब अंधे हैं

- इच्छा से कष्ट लेना या अपने सामर्थ्य से अपना छोड़ आस पास किसी और का कुछ करना सभी का थोड़ा थोड़ा होता तो होगा ही - पूरा खतम तो नहीं ही होगा [ उम्मीद] - हाँ आज कल की प्रत्यक्ष ज़िंदगी में इतना त्याग कम होगा और होगा भी तो सनसनी और वारदातों की डिमांड के पीछे इतना होगा कि किसी को दिखाई सुनाई ही नहीं देता - कि धीरे धीरे सफलता के माने, बड़प्पन के माने ताकत और शोहरत और चमक हैं- प्रतिस्पर्षा से दर्शनीय व्याहारिक बुद्धि है - जब जाने अजाने चाह बढाने वाले विज्ञापन मानस के पृष्ठ पर एकांगी दबाव बनाते रहते हैं त्याग का ज्ञापन कहाँ आएगा - ऐसा कष्ट नहीं हो सकता कि सफल व्यापारियों, नेताओं, फ़िल्मी सितारों, मैनेजरों, बाबाओं के समकक्ष उन्हें भी उतनी साउंड बाईट मिले जो "परहित सरस धर्म नहीं भाई,.." पर अपने सामर्थ्यानुसार कहीं कुछ कर रहे हैं - ऐसी बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा - या आनेवाला समाज चमक में ही धमकता रहेगा

- रही बात कष्ट की, इच्छा से कष्ट झेलना हो न हो सभी को कष्ट तो झेलना है और जब दुःख होता है तो दुःख से बड़ा कुछ नहीं होता - जब विश्वास या अभिमान होता है तब भी दुःख हो तो होता ही है - ऐसे दुःख तो अपना समय निकाल लेता है और अखंड गड़ता साम्राज्य भी बना लेता है - त्याग कहाँ बनाता है - लेकिन त्याग साम्राज्य बनाने के लिए तो करते नहीं हैं - वहीं भावना का मूल है - जड़ है या चेतन?

Unknown said...

"प्रतिस्पर्धा" होना चाहिए प्रतिस्पर्षा टाइप हो गया

Unknown said...

सफरिंग बड़े सामाजिक मकसद तक जाने का रास्ता भी है। उसमें एक चुंबक है। हमेशा आगे बढ़ी चेतना वाले लोग भेड़चाल से छिटक कर उस रास्ते पर जाते रहे हैं। शेयर बाजार को दिल की धड़कन मान बैठा यह समाज एक बड़े नैतिक संकट की ओर जा रहा है। उस रास्ते पर जाने वालों की तादाद भविष्य में बल्कि बढ़ने वाली है।