हिंदू धर्म का आधार समझे जाने वाले ईश्वरीय अवतारों में क्या कोई विशेष पैटर्न है? कोई ऐसी बात जो इन्हें आधुनिक जीव विज्ञान का आधार कहे जाने वाले इवोल्यूशन के करीब ला देती है? यह सवाल किसी ठेठ पारंपरिक हिंदू दिमाग से नहीं उपजा है, जो रॉकेट से लेकर कंप्यूटर तक सारी की सारी मॉडर्न साइंस वेद-पुराणों में ही भरी हुई मानता है। भारत के पहले सांख्यिकी आयोग के सदस्य, डाईहार्ड नास्तिक और 20वीं सदी के सबसे जहीन वैज्ञानिक दिमागों में से एक जे. बी. एस. हाल्डेन ने यह प्रस्थापना चालीस के दशक में दी थी। अवतारों के गैर-धार्मिक अध्ययन के रूप में यह आज भी अद्वितीय है।
अवतारों का इतिहास से कुछ भी लेना-देना नहीं है, फिर भी इनकी मिथकीय धारणा में एक स्पष्ट कालक्रम (क्रोनोलॉजी) मौजूद है। गरुड़ पुराण में पहले चार अवतारों (मत्स्य, कूर्म, वाराह और नृसिंह) को सतयुग से, इनके बाद आने वाले तीन (वामन, परशुराम और राम) को त्रेता से और आठवें यानी कृष्ण को द्वापर युग से जोड़ा गया है। इस पुराण में अवतारों की कुल संख्या दस बताई गई है और कलियुग में बुद्ध को बीते हुए और कल्कि को भविष्य में आने वाले अवतार के रूप में रेखांकित किया गया है। हाल्डेन ने इस क्रम में इवोल्यूशन जैसी कोई बात पाई और अपने एक वैज्ञानिक निबंध में इस पर विस्तार से लिखा।
चार्ल्स डार्विन की ओरिजिन ऑफ स्पीसीज से उभरी इवोल्यूशन की धारणा यूरोप में प्रबल धार्मिक विरोध के बावजूद 20वीं सदी के मध्य तक वहां की सामाजिक समझ का हिस्सा बन चुकी थी। भारतीय संस्कृति की तरफ नए-नए आकर्षित हुए जे. बी. एस. हाल्डेन ने अवतारों में एक किस्म का इवोल्यूशन खोज निकाला। इवोल्यूशन में जीवन की उत्पत्ति समुद्र में हुई बताई गई है, जिसे मत्स्यावतार के करीब माना जा सकता है। कछुआ एक उभयचर (ऐंफिबियन) है, जो इवोल्यूशन का अगला चरण भी है। अंडे देने वाले प्राणियों से स्तनधारियों का उदय उद्विकास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है, जो हाल्डेन के मुताबिक वाराहावतार में जाहिर होता है। जानवर और इंसान के बीच की श्रेणी नृसिंह से यह पता चलता है कि मनुष्य का विकास पशुओं से हुआ है। सचाई यह है कि इस मूलभूत डार्विनीय धारणा को स्वीकार करने के लिए हिंदू धर्म से इतर कोई भी धर्म आज तक तैयार नहीं हो पाया है।
चिंतन के इसी क्रम में हाल्डेन वामन को प्रारंभिक स्तर का मनुष्य (हॉबिट) जैसा मानते हैं। शस्त्रधारी परशुराम को आदिम या बर्बर मनुष्य (प्रिमिटिव मैन) के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं। राम को सामंती मर्यादाओं की रचना करने वाले और उससे बंधे हुए मनुष्य के रूप में (मोरल मैन) तथा गीता की तर्ज पर कृष्ण को पूर्ण पुरुष या राजनीतिक पुरुष (पॉलिटिकल मैन) के रूप में अवतारों की तार्किक परिणति बताते हैं। बुद्ध के लिए हाल्डेन ने एक नई कैटेगरी दार्शनिक मनुष्य (फिलॉसफिकल मैन) की रचना की है, जो सत्रहवीं सदी के यूरोप में उभरी यूटोपिया की अवधारणा के करीब है। पूरी तरह पश्चिमी बनावट वाले एक वैज्ञानिक बुद्धिजीवी का एक पूर्वी सभ्यता में इतनी गहराई तक उतरना और अपने समय के विज्ञान की सबसे चर्चित प्रस्थापना के साथ इसकी कई विचारोत्तेजक समतुल्यताएं सामने ला देना एक बड़ी उपलब्धि है। आश्चर्य है कि मिथकों को देखने की इस हाल्डेन पद्धति को आगे बढ़ाना तो दूर, भारत में इसे ठीक से नोटिस भी नहीं लिया गया।
अवतार अपने देश में उत्तर-उपनिषदिक युग में उपजी एक जटिल दार्शनिक अवधारणा है। कहीं इसे सामान्य जैविक चरित्रों में ईश्वरीय गुणों की अभिव्यक्ति के रूप में लिया गया है तो कहीं साक्षात ईश्वर के पृथ्वी पर उतर आने की तरह। पुराणों में अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार ईश्वर के आठ से लेकर उनतीस तक अवतारों की बात है, अलबत्ता आठ अवतार इन सभी में साझा हैं। ये हैं- मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम और कृष्ण। इनमें पहले पांच का कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं है। इनको सिर्फ इनके जैविक नामों से जाना जाता रहा है। मत्स्य यानी मछली, कूर्म यानी कछुआ, वाराह यानी शूकर यानी सुअर, नृसिंह यानी शेर और इंसान का मिला-जुला रूप और वामन यानी बौना।
इनकी भूमिकाएं भी किसी घटना विशेष तक सीमित हैं, लिहाजा इनका पूरा जीवन चरित्र बखानने की कोई जरूरत पुराणकारों को महसूस नहीं हुई। मसलन, प्रलय काल में जब पृथ्वी जल में डूब गई थी तो भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया और मनु द्वारा जुटाए गए सभी जीवों के जोड़ों से भरी नाव को खींच कर हिमालय की एक चोटी के करीब लेते आए, ताकि नए सिरे से सृष्टि की शुरुआत हो सके। या फिर दैत्य राजा बली ने जब पूरी सृष्टि को जीत लिया तो भगवान ने वामन रूप धारण करके उससे तीन पग भूमि की भिक्षा मांग ली। ढाई पग में ही तीनों लोक नाप लिए और बाकी के आधे के लिए राजा बली ने स्वयं अपना शरीर उनके सामने प्रस्तुत कर दिया। सृष्टि को उबारने के बाद मत्स्यावतार का क्या हुआ, या बली को पैदल कर देने के बाद वामनावतार कहां गए, इसका कोई जिक्र नहीं है।
लेकिन व्यक्ति नाम से चर्चित बाद के तीनों अवतारों के साथ ऐसा नहीं है। राम और कृष्ण भारतीय जनमानस और परंपरा के अभिन्न अंग हैं। इन्हें बाकी सभी अवतारों से अलग करके भी देखा जा सकता है। इनके चरित्रों के इर्दगिर्द बुने हुए दोनों महाकाव्यों रामायण और महाभारत को छोड़कर भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। सामाजिक भूमिका की दृष्टि से परशुराम की गिनती इन दोनों के साथ करना कठिन है (शायद राजन्य वर्ग के विनाश की बात राजसत्ता के उदय के शुरुआती दौर में ब्राह्मणों के अलावा अन्य लोगों को भी मुक्तिकामी प्रतीत हुई हो। बाई द वे, अवतारों में ब्राह्मण होने का ठप्पा भी अकेले इन्हीं के साथ लगा है), लेकिन एक मामले में वे न सिर्फ इनसे बल्कि बाकी सभी अवतारों से अलग हैं। वह यह कि इनके साथ अमरत्व का गुण जुड़ा है। (अमरत्व उनके अलावा हिंदू माइथॉलजी के कई और पात्रों, मसलन हनुमान और अश्वत्थामा के साथ भी जुड़ा है और यह संबंधित पात्र को अपने समय के बाकी उल्लेखनीय पात्रों की तुलना में किसी भी दृष्टि से सुपीरियर नहीं बनाता। परशुराम के मामले में भी उनका यह गुण नकारात्मक भूमिका ही निभाता जान पड़ता है।)
हाशिये पर पड़ने वाले एक टेढ़े पात्र के रूप में इनका जिक्र रामायण और महाभारत, दोनों में आता है और दोनों जगह इनका चरित्र कहानी में कुछ ट्विस्ट पैदा करता है। (वे ऐसे अकेले अवतार भी हैं, जिन्हें दो नए अवतारों के सामने अप्रासंगिक बन कर पड़े रहने का मलाल झेलना पड़ा। मेरे ख्याल से धनुष भंग प्रकरण के बाद राम को सार्वजनिक रूप से अवतार बताने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है।) दो अलग-अलग युगों की कहानियों में एक साझा पात्र का होना एक अजीब बात है, लेकिन परशुराम के चरित्र के साथ जुड़ा हुआ यह अकेला उलझाव नहीं है। उनसे जुड़ी कई मिथकीय घटनाओं से उनमें ईश्वरीय ओज का आभास जरूर मिलता है, लेकिन ईश्वरीय औदात्य (डिवाइन सबलिमिटी) का लक्षण उनमें कहीं दिखाई नहीं पड़ता। फिर भी उनकी गिनती निर्विवाद अवतारों में होती है, यह क्या कोई कम बड़ी उलझन है?
रवींद्र नाथ टैगोर ने अपने एक लेख भीष्म को क्षमा नहीं किया गया में हाल्डेन से थोड़ा पहले या शायद उनके साथ ही अवतारों पर विचार-विमर्श किया है। (इसकी जानकारी हजारी प्रसाद द्विवेदी को पढ़ते हुए प्राप्त हुई। खुद गुरुदेव की यह रचना पढ़ने का अवसर अभी तक नहीं मिला है।) इस लेख में अवतार कैसे बनते हैं के बजाय इस सवाल पर ज्यादा सोचा गया है कि कभी-कभी सारी गुणवत्ताएं मौजूद होने के बावजूद कुछ नायक अवतार क्यों नहीं बन पाते। मसलन, भीष्म हर मायने में अवतार जैसे हैं, लेकिन महत्वपूर्ण अवसरों पर उनकी दुविधा उन्हें अवतार नहीं बनने देती। टैगोर की मान्यता यह जान पड़ती है कि जनमानस में किसी पात्र की जगह उसे कालक्रम में अवतार का दर्जा दिलाती है। अवतारों पर सरसरी तौर पर विचार करने से यह भी लगता है कि चिंतन नहीं, क्रिया (ऐक्शन) हर अवतार का मूल गुण है (हालांकि परशुराम की क्रियाशीलता में अपनी मां की हत्या भी शामिल है)। कोई ऐसी क्रिया, जो मनुष्यता की तत्कालीन धारणा के अनुसार इसके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो और जिसकी अपेक्षा किसी मनुष्योपरि चरित्र से ही की जा सकती हो।
11 comments:
डार्विन ने लगता है यह विचार अवतारों से ही झाँपा हो।
वैसे दिलचस्प क्रोनोलॉजी मजेदार लेख - उस जमाने में कहानियों (पुराण इत्यादि) में ऐसी ही कल्पना थी जो मिथक बनी - एक मतलब कि भैया धर्म का पालन करो अवतार आते ही होंगे कष्टों का निवारण करने यदि कष्ट हों तो - उन्हें न हमने देखा न आपने
अमरत्व से ढूँढा
"अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीवितः "
मनुष्य का यह दिमाग कुछ भी सोच सकता है ।
interesting and ihstructive
interesting and instructive
आपका लेख बहुत ही विचारशील और ज्ञानवर्धक है परन्तु ऐसे विचार हिन्दू-धर्मावलम्बियों को रोचक लग सकता है परन्तु प्रेरित नहीं करता विचार करने के लिए... क्योंकि हम धर्म और उसकी सारी धारणाओं को तर्क और बहस से परे मानते आये हैं... कुछ भी नया सोचना धर्म की आस्थाओं और मान्यताओं पे चोट करती है... जहाँ विचार होगा नयी सोच और समझ पैदा होगी... हम सामाजिक तौर-तरीको से कट्टर नहीं है परन्तु धर्म को कट्टरता ही समझते हैं किसी भी और धर्म की तरह...
वैसे अब जरुरत है कि हम नयी सोच को धर्म कि व्याख्या के लिए उपयोग करें और नए विचारों पे विचार अवश्य करें...
देखा जाये तो धर्म ही नहीं सामाजिक रीतियों का कुछ न कुछ कारण है जो उस युग के लिए अनुकूल था लेकिन उसे हम आज भी जब तक संभव हो पालन करते हैं...
आपको बधाइयों के साथ...
दिलचस्प! मुझे तो पता भी नहीं था इन अवतारों के बारे में लेकिन हाल ही में वन्या के साथ बैठ कर दशावतार ( बच्चों की एक एनीमेशन फिल्म) देखी तो पता चला विष्णु जी के इस खेल का! :)
अवतारों की व्याख्या अनेक जनों ने अनेक तरह से की है. निस्संदेह पृथ्वी पर जीव के विकास क्रम के वैज्ञानिक सत्य को धर्म के आवरण में परोसा गे है. संख्या और नामों में अंतर प्रस्तुतकर्ता के मनोभावों और आस्था के अनुसार स्वाभाविक है. परशुराम के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता. वे राम के पूर्व ससे कृष्ण की बाद तक सक्रिय रहे. संभवतः यह पदनाम था 'शंकराचार्य' की तरह, व्यक्ति बदले किन्तु सोच, आचरण और नाम वही रहा. यह हर पंथ में होता है. परशुराम एक ओर सुरों के अत्याचार और राजन्य वर्ग की अहमन्यता के नाशक हैं तो दूसरी ओर नवीनता (राम) के परीक्षक और प्रमाणकर्ता भी हैं. वे पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के समर्थक हैं चूंकि पिता के कहने पर माँ का हनन करते हैं. कालांतर में अवतारों के निर्धारण में महती भूमिका पुरोहित वर्ग की रही. जिसके भक्त अधिक दिखे उसे उस काल में अवतार घोषित कर पूजन-पाठ, यज्ञ-कथा कर पेट पालने का साधन बना लिया. सनातन वैदिक धर्म के विद्रोही बुद्ध को भी अवतार बना दिया किन्तु महावीर को नहीं बना सके क्योंकि श्रमण और वैदिक विभाजन की लकीर को जैनियों ने पाटने न दिया. जैन ग्रंथों ने हिंसा करने के लिये राम, कृष्ण, हनुमान को भी नहीं बख्शा और उन्हें नरक का पात्र बताया. 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर पुरोहित वर्ग ने बलि प्रथा का भी समर्थन किया. देवी के सामने पशु-पक्षी तो क्या नरबली तक दी जाती रही. अस्तु... पाने रोचक और ज्ञानवर्धक प्रसंग उठाया, साधुवाद...
काफी वैज्ञानिक ढंग से सोचा अवतारों के बारे में यह विवेचन अनूठा है सहज ढंग से नही समझा जा सकता इस बारे मे ज्यादा खोज करे तो बहुत से तथ्य सामने आयेगे जो तुलना आपने की है वह भी अनूठी है।
baudhik khurak se bharpur. behtar.
सोच को एक बिसरी हुई राह की तरफ मोड़ने के लिए धन्यवाद। अच्छी जानकारी वाली पोस्ट।
Post a Comment