Monday, June 28, 2010

अचके में कुछ छुट्टियां

बृहस्पतिवार की रात आठ बजे जब आखिरकार यह कन्फर्म हो गया कि पति-पत्नी दोनों को अपने-अपने दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी मिल गई है और तीसरी छुट्टी के रूप में इतवार का आनंद भी उठाया जा सकता है, तो सवाल उठा कि छुट्टियों की इस संपदा का आखिर करें क्या। बेटे की छुट्टियों का यह आखिरी हफ्ता है, सो इस नेमत को हाथ से जाने नहीं दिया जा सकता था। लेकिन बीतते जून की भीषण गर्मी में दिल्ली के आसपास घूमने का कोई मतलब नहीं था और इतने कम समय में दूर जाने की थकान की कल्पना ही मारे डाल रही थी। कहां जाएं, कहां जाएं, नेट पर दुनिया भर की रिसर्च, मित्रों से सलाह-मशविरा, जो कन्फ्यूजन बढ़ाने की कसरत के अलावा और कुछ नहीं था। रात दस बजने तक एक अजीब तनाव घर करने लगा और तय हुआ कि यहीं कहीं घूम टहल कर बेटू को कुछ जगहें दिखा लाएंगे।

सुबह हुई तो अचानक दिमाग बदला कि चलो मन, थकान की चिंता पर मिट्टी डालकर किसी ठंडी जगह टहल आते हैं। सात बजे तक ड्राइवर की मान-मनुहार के बाद तीन बैग बांध कर निकल पड़े। गाजियाबाद से निकल कर दिन दो बजे के आसपास देहरादून पहुंचे तो वहां की गर्मी और उमस दिल्ली से भी कुछ बीस ही जान पड़ी। मन था कि यमुना जी की उतरान डाकपत्थर में कहीं ठहर कर कुछ चिड़ियों की चहल-पहल देखेंगे, लेकिन पता चला कि वहां की आबोहवा देहरादून जैसी ही है। हुआ कि चिड़ियों के जलवे बाद में देखे जाएंगे। अभी तो बाहर ही बाहर मसूरी भाग चलो।

रास्ते में सहस्रधारा के साइनबोर्ड दिखे तो गाड़ी उधर मोड़ दी गई। गंधक के सोते हैं, एक बार नहा लो तो त्वचा संबंधी सारी बीमारियां पास न फटकेंगी। वहां बीस रूपये की पार्किंग दी और तीस रुपये पर जांघिए किराये पर लेकर बाप-बेटा निहायत मैले-कुचैले पानी में उतरे, जिसमें सैकड़ों कच्छाधारी मर्द और पूरे कपड़ों वाली महिलाएं पहले से ही डुबकियां मार रही थीं। असाध्य उत्सुकता सोतों को जरा नजदीक से जानने की ओर ले गई तो वहां गंधक के अलावा गंध के और भी कई जीवंत स्रोत नजर आए। पर्यटकों के लिए सहस्रधारा के जनता-जनार्दन की तुच्छ भेंट। गनीमत इतनी ही रही कि त्वचा को नीरोग बनाने की कोई सनक पत्नी के सिर पर सवार नहीं थी और वे किनारे बैठी बाप-बेटे की उत्सुक मूर्खता का आनंद लेती रहीं।

मसूरी में रहने का ठिकाना नहीं मिलने वाला, इसका अंदाजा पहले से था। धनोल्टी में मिलेगा, ऐसी सूचना थी, लेकिन दिमाग में पता नहीं कैसे यह बात जम गई थी कि धनोल्टी मसूरी के पहले पड़ता है। पहाड़ी सड़कों पर सनसनाते हुए मसूरी से एक-दो किलोमीटर पहले धनोल्टी का रास्ता कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा थोड़ा ऊपर से दाएं कट लेना, करीब पैंतालीस किलोमीटर है- यानी देहरादून से जितना दूर मसूरी, मसूरी से उतना ही दूर धनोल्टी। पहुंचते-पहुंचते सूरज ढलने लगा और बाजार में कमरे की पूछगच्छ शुरू हुई तो पता चला कि यहां नहीं, थोड़ा आगे ऐपल ऑर्चर्ड देख लो। वहां अंग्रेजों वाली टेढ़ी हैट लगाए, हच वाला कुत्ता पकड़े एक सज्जन मिले, जिनके बारे में उनके एक सहायक ने सूचना दी कि ये टिहरी की रॉयल फैमिली के हैं। कमरे का किराया ढाई हजार रुपये रात। इतनी सकत नहीं है का रोना रोया गया तो उन्होंने थोड़ी दूर एक हजार रुपये रात वाले होटल में भेज दिया, जहां कमरे के ठीक ऊपर मरम्मत की ठोंकपीट चल रही थी।

ग्यारह बजते-बजते रहा नहीं गया। बाहर निकल कर होटल मैनेजमेंट को इतनी गालियां दीं कि गला बैठ गया। किसने सुना, फिर किससे क्या कहा, यह नहीं पता, लेकिन ठक-ठक बंद हो गई। डबल बेड का आधा-आधा हिस्सा पत्नी और बेटे के पास था। अच्छी-खासी ठंड वाली रात में दोनों के हिस्से के आधे-आधे कंबल के बीच से कुड़कते हुए कमरे की खिड़कियां बंद करने उठा, जिन्हें सोने से पहले वहां मौजूद स्थायी सीलन का भभका भगाने के लिए खोल दिया गया था। वहां मुझे धनोल्टी का चांद दिखा। कड़ाही से निकाले गए समोसे जैसा ताजा-ताजा भाप छोड़ता हुआ सा चांद। पहले तो लगा कि शायद होटल वालों ने पिछवाड़े सुरक्षा के लिहाज से बड़ा सा बल्ब जलाकर छोड़ दिया है। फिर आसमान की तरफ नजर गई। जिंदगी में देखे गए दो-चार चांद शायद हर किसी को याद रहते हों। धनोल्टी का चांद मुझे किसी साइकेडेलिक अनुभव की तरह याद रहेगा।

अगली सुबह क्या करें-क्या करें करते हुए थोड़ा आगे कद्दूखाल तक गए। वहां न जाने किस सनक में सुरखंडा देवी के दर्शन के लिए निकल पड़े- यह सोचकर कि यहीं कहीं होंगी आसपास। फिर चढ़ते गए, चढ़ते गए, चढ़ते गए। पत्नी पिछले साल ही स्पाइन सर्जरी से उठी हैं। एक किलोमीटर चढ़ जाने के बाद उनके भीतर का पहाड़ी खून उबाल मारने लगा। चढ़ते-चढ़ते और फोटो खींचते-खींचते आखिरकार चढ़ ही गईं। वहां जाकर पढ़ा ऊंचाई समुद्र तल से दस हजार फीट। तीर्थस्थलों की यात्रा में मेरी तो आस्था यात्रा भर से ही संतृप्त हो जाती है। बेटे को इसके अलावा कुछ कोक-पेप्सी की भी जरूरत पड़ती है लेकिन बेटे की मां नारियल वगैरह फोड़ती हैं और ऐन दर्शन के मौके पर बाकी दोनों लोगों के गायब हो जाने के लिए उनकी भर्त्सना भी करती हैं। यह कर्मकांड संपन्न हो गया तो उतारे का आनंद शुरू हुआ, जो चढ़ाई का चार गुना था। नीचे पहुंचते-पहुंचते सबकी हालत देखने लायक थी। उत्साह की अकेली बात साथ चल रही पास के गांवों की ठेठ पहाड़ी लड़कियां थी जो हाई स्कूल और इंटर बोर्ड में अपने पास हो जाने का जश्न मनाने नंगे पांव यहां आई थीं- हे संगी, हे संगी, तू भी पास, मैं भी पास...

बारह बजे चेकआउट करके दौड़े-भागे मसूरी पहुंचे- बालक को केंपटी फाल दिखाने। एक किलोमीटर चलते ही गाड़ियों की लंबी लाइन दिखी। पूरे सफर में अक्लमंदी का अकेला फैसला लिया कि ड्राइवर को तुरंत गाड़ी बैक करके फरार हो जाने को कहा। अगले दिन अखबार से पता चला कि लगभग सत्रह किलोमीटर लंबी लाइन थी। चार घंटे फंसे रहने के बाद जो बिना फाल देखे लौट आया, वह खुशकिस्मत। पूरे मसूरी शहर में इतनी गाड़ियां भर गईं कि प्रशासन को उन्हें बाहर से ही लौटाने का आदेश जारी करना पड़ा। खुशकिस्मतों में, बल्कि ज्यादा खुशकिस्मतों में एक हम भी थे। वापसी में देहरादून से सीधे करीब चालीस किलोमीटर आगे डाकपत्थर पहुंचे, जहां गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में एक कमरा मिल गया। शाम को आसन बराज गए, चिड़ियां देखने। ज्यादातर चिड़ियां जा चुकी थीं। कुछ सारस, गोड़ावन और मुर्गाबियां देखने को मिलीं। फोटो लगाने का शऊर नहीं है, लेकिन किसी से कह कर कल-परसों में यहां लगा देंगे। उत्तराखंड में यह बड़े पुण्य का काम हुआ है, हालांकि बराज के किनारे जो भाई लोग दिन दहाड़े बोतलें खोले बैठे थे, वे यहां चिड़ियों को भी चैन से नहीं रहने देते होंगे।

अगले दिन दो-तीन किस्तों में बहुत सारा आम खरीदते हुए शाम पांच बजे तक घर पहुंच गए। सैर-सपाटे के लिए जो फुरसत चाहिए होती थी, वह तो कहीं है नहीं। इसी तरह छीन-झपट कर कभी-कभी कुछ कर लेना होता है। लेकिन पहाड़ी इलाकों में जिस रफ्तार से और जितनी बड़ी संख्या में दिल्ली की गाड़ियां दौड़ने लगी हैं, उससे शक होता है कि कुमाऊं, गढ़वाल और हिमाचल का सुकून ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। राज्य सरकारें यहां की पर्यटन संभावनाओं से आखिरी पाई तक निचोड़ लेने के लिए प्रयासरत हैं लेकिन धनोल्टी जैसी जगहों में पानी तक का ठिकाना नहीं है। होटल वाले केंपटी फाल से भरवाकर साढ़े पांच हजार रुपये के टैंकर मंगवाते हैं और कमरे पीछे साढ़े पांच सौ रुपये रोजाना का खर्च सिर्फ पानी का बताते हैं। ये मामले हल हो जाएं तो भी दिल्ली में कई करोड़ मुंहजोर पैसे वालों का जो वर्ग तैयार हो रहा है, वह आने वाले दस-बीस सालों में ही इन पहाड़ों को खा जाएगा, लिहाजा यहां आने वाले पर्यटकों के लिए कुछ सख्त नियम-कानून बनाना भी बहुत जरूरी है।

9 comments:

डॉ .अनुराग said...

ठीक कहा.अब मसूरी अपनी शक्ल बदलने लगा है ....गाडियों .ए. सी ने वहां बहुत कुछ फेकना शुरू कर दिया है ....केम्पटी फाल भी अब सिकुड़ गया है

Udan Tashtari said...

पहाड़ों की सूरत बदलने लगी है...सच कहा आपने.

संगीता पुरी said...

दस वर्षों में हर जगह परिवर्तन देखने को मिल रहा है !!

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कह रहे हैं ।

शोभना चौरे said...

सच कहा है तथाकथित विकास और समर्धि की बहुत बड़ी कीमत चुका रहे है हम सब |अप्रेल महीने के प्रथम सप्ताह में अल्मोड़ा से हरद्वार आते समय यही गर्मी का अहसास किया था हमने और ऐसे ही करो के काफिलो का |

rubaroo said...

vikas ki keemat badi hai

Unknown said...

hi

nice blog,

will appreciate to get mail id

cheers

Unknown said...

Hi

Nice blog writing

Will appreciate contact details

Cheers

Prem said...

आपका सूचनाप्रद मसूरी यात्रा-विवरण पढ़ बीते दिनों की याद ताजा हो आई है| १९५८ में मसूरी स्थित गणेश होटल में मुम्बई के मटुंगा नामक पडौस से आए सिंधी परिवार के भरत और उसके छोटे भाई के साथ केम्पटी फाल जाने का अवसर मिला था| लगभग पन्द्रह सोलह वर्ष की उम्र में हम तीनों पैदल ही जंगल में लंगूर व अन्य जंगली जानवरों के झुण्ड देखते उत्साह भरे अपने ठिकाने पर जा पहुंचे थे| प्रकृति का वह सुन्दर दृश्य अभी भी मेरी आँखों में समाया हुआ है| दूर तक कोई मनुष्य देखने तक को नही मिला था| आँखों को विश्वास नहीं होता कि आज हम केम्पटी फाल से कुछ कदम दूर उसकी फुहार तले बैठ चाय का आनंद ले सकते हैं| विदेश में रहते यह सब एक चित्र में देखा है| मुझे आश्चर्य हो चला है कि क्या मसूरी में कुछ बचा है कि सभी सुन्दर जगहें बढ़ती जनसंख्या और पैसों के लोभ के बलि हो चुके हैं|