छह दिनों के जबर्दस्त तनाव के बाद नेपाल की सड़कों पर दोबारा शांति लौट आई है। प्रधानमंत्री पद से माधव नेपाल की विदाई और माओवादियों के नेतृत्व में नई सरकार के गठन पर सहमति बन जाने की खबर है, लेकिन संतुलन अभी काफी नाजुक किस्म का ही है। विरोध का मुद्दा माओवादी पार्टी के चेयरमैन प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने या न बनाने को लेकर था। फिलहाल वहां गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही नेकपा (एमाले) किसी भी सूरत में प्रचंड को प्रधानमंत्री न बनाने पर अड़ी हुई थी और माओवादियों का कहना था कि ऐसा वह भारत के दबाव पर कर रही है। समझौते की खबरों से लगता है कि माओवादी हर हाल में प्रचंड को ही प्रधानमंत्री बनाने की अपनी जिद पर झुकने के लिए तैयार हो गए हैं।
करीब दस साल चले गृहयुद्ध के बाद मई 2008 में वहां संविधान सभा के चुनाव हुए थे, जिसमें एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसने एक गठबंधन सरकार बनाई और फिर कुछ बुनियादी सवालों पर विरोध के चलते सरकार से बाहर भी हुई। नेपाल के बारे में अपने यहां के मीडिया में बिल्कुल जीरो बटे सन्नाटा वाली हालत है। जिद जैसा कोई मामला न तो सेनाध्यक्ष चित्रंगद कटवाल को हटाने का था, न प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने का। गणराज्य की पहली शर्त ही यह होती है कि सेना को निर्वाचित सरकार का हुक्म मानना होता है, जो कटवाल के मामले में लागू नहीं हो पा रहा था।
इसी तरह प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के मामले में माओवादियों का कहना था कि किसी संप्रभु देश में कौन प्रधानमंत्री बनेगा और कौन नहीं बनेगा, यह कोई और देश भला क्यों तय करेगा। लेकिन उनकी इस बात में थोड़ा झोल था। कोई और देश तो निश्चय ही तय नहीं करेगा, लेकिन गठबंधन की स्थिति में सभी दलों की सहमति से ही तय होगा कि सरकार का नेतृत्व कौन कर सकता है और कौन नहीं कर सकता। इस मुद्दे पर अगर वे फिलहाल झुकने को राजी हो गए हैं तो ठीक ही किया है। मामला पेचीदा है और समझ बढ़े तो अच्छा ही है, लिहाजा सात-आठ दिन पहले इस पार्टी के पॉलित ब्यूरो सदस्य पार्थ छेत्री से हुई (और अगले ही दिन नवभारत टाइम्स में प्रकाशित) इस बातचीत को अपने ब्लॉग पर लगाना आज भी गैरजरूरी नहीं लगता।
पिछले पांच दिनों से काठमांडू और नेपाल के अन्य शहरों से तनाव की खबरें आ रही हैं। हिंसा की आशंका को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी हड़ताल वापसी की अपील की है। सचाई क्या है?
हमारी पार्टी के आह्वान पर अभी लगभग पांच लाख लोग काठमांडू में जमा हैं और वहां की जनता से संवाद बना रहे हैं। तनाव की खबरें बढ़ी-चढ़ी हैं। दो-एक जगह प्रदर्शनकारियों को उकसाने का प्रयास किया गया है, लेकिन हमारे आंदोलन का पहला लक्ष्य शांति है, जिससे हम डिगने वाले नहीं हैं। आंदोलन के बाकी दोनों लक्ष्य हैं- राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनाना और जनपक्षीय संविधान का निर्माण, जिस पर देश की मौजूदा सरकार लगातार टालू रवैया अपना रही है।
सिर्फ दो साल में ऐसी आर-पार की लड़ाई वाली स्थिति क्यों पैदा हो गई?
देखिए, नेपाल में धर्मनिरपेक्ष संघीय गणतंत्र का लक्ष्य सिर्फ हमारी पार्टी यूसीपीएन (माओवादी) का ही था। बाकी सारी पार्टियां या तो संवैधानिक राजतंत्र के पुराने ढांचे के पक्ष में थीं, या उसमें थोड़ा-बहुत बदलाव करके काम चलाना चाहती थीं। संविधान सभा के चुनाव से पहले यदि हम राजा को हटाने पर अड़ न जाते तो शायद आज भी काठमांडू में ज्ञानेंद्र राज कर रहे होते। चुनाव में जब हम सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे और समझौते की शर्तों के मुताबिक राष्ट्रीय सेना को लोकतांत्रिक सत्ता के अधीन काम करने को कहा तो हमारे विरोधी दल सेनाध्यक्ष के पीछे खड़े होकर उनकी मनमानी हरकतों को अपना समर्थन देने लगे। यहां मैं घटनाओं के ब्यौरे में नहीं जाना चाहूंगा। बस इतना कहूंगा कि हमारी प्रतिबद्धता राष्ट्रीय सहमति में तय लक्ष्यों के प्रति है और नेपाल की जनता अब उन्हें हासिल करके रहेगी।
आपकी पार्टी पर आरोप है कि सहमति के दोनों मुख्य बिंदुओं पर वह पीछे हट गई। यानी, न तो अपनी सेना को राष्ट्रीय सेना में समाहित किया, न ही जब्त की हुई जमीनें वापस कीं...
यह आरोप अर्धसत्य पर आधारित है। जनमुक्ति सेना (पीएलए) को राष्ट्रीय सेना में समाहित करने की बात राष्ट्रीय सेना के जनतांत्रिकीकरण के साथ जुड़ी थी। हमारे नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रचंड ने सेनाध्यक्ष रुक्मंगद कटवाल से यही कहा था कि वे दोनों सेनाओं के एकीकरण से पहले कोई नई नियुक्ति न करें। इसे वह मानने को तैयार नहीं हुए। गणतंत्र के प्रति विरोधी दलों की प्रतिबद्धता का हाल यह है कि सेनाध्यक्ष के साथ खड़े होकर प्रधानमंत्री को हटा देना उन्हें बेहतर लगा। ऐसे में पीएलए को राष्ट्रीय सेना में कैसे मिलाया जा सकता था? रहा सवाल जमीनों का, तो जहां भी बटाईदारों ने जमींदारों के कब्जे में पड़ी सरकारी जमीन जब्त की है, वहां हम कुछ नहीं कर सकते। अगर कहीं हमारे कार्यकर्ता ने कोई जमीन कब्जा रखी है तो हम उसे लौटाने को तैयार हैं, लेकिन ऐसा कोई मामला हमारे सामने नहीं आया है।
15 मई को संयुक्त राष्ट्र मिशन का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। संविधान इसी 28 मई तक बन जाने की बात थी। बन पाएगा?
प्रश्न ही नहीं उठता। जिस राष्ट्रीय सहमति के आधार पर यह बनना है, उसकी तो पहली सीढ़ी ही अभी पार नहीं की जा सकी है। सहमति की विपरीत दिशा में काम कर रही मौजूदा सरकार को बर्खास्त करके ही इस दिशा में पहला कदम बढ़ाया जा सकेगा। आंदोलन के दबाव में राजनीतिक दलों के भीतर ऐसी बहस शुरू हो गई है। यूएमएल का एक धड़ा राष्ट्रीय सहमति की सरकार बनाने के पक्ष में है। क्षेत्रीय पार्टी मधेसी जन अधिकार फोरम का आधा हिस्सा खुलकर हमारे साथ आ गया है। मौजूदा सरकार को हम जब चाहें गिरा सकते हैं, लेकिन संविधान के लिए दो तिहाई बहुमत जुटाने का रास्ता कुछ और होगा।
भारत के साथ माओवादियों का टकराव एक बार फिर चर्चा में है। अभी इसकी वजह क्या है?
टकराव क्या कहें, बस इतना कि नेपाल की किस्मत नेपाल की जनता को ही तय करने दी जाए। दुर्भाग्यवश, भारत की ओर से हमें कई सारी बिन मांगी सलाहें मिलती हैं और कई तरह की पसंद-नापसंद बताई जाती है। प्रधानमंत्री माधव नेपाल ने हाल में थिंपू शिखर सम्मेलन से वापस लौटने के बाद अपनी पार्टी को बताया कि वह इस्तीफा नहीं देंगे क्योंकि भारतीय प्रधानमंत्री उनके साथ हैं। इससे पहले, राष्ट्रीय सहमति की सरकार का नेतृत्व प्रचंड नहीं कर सकते, ऐसी एक राय जताई गई थी। इस तरह की बातों से दोनों देशों के रिश्ते खराब होते हैं, इसलिए इनसे बचा जाना चाहिए।
1 comment:
साक्षात्कार वास्तव में प्रासंगिक है।
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