Wednesday, April 14, 2010

यूं ही तो नहीं हुआ होगा

यहां तक मेरा आना
इतने सरंजाम सजाना
यूं ही तो नहीं हुआ होगा

किसी शाम नाकारा जानकर
छोड़ दिया गया होऊंगा
इतने बड़े सिर वाला बानर का बच्चा
जो मां के पेट से चिपक भी नहीं पाता

ओह, तब भी इतना ही बड़ा था यह सिर
जब शेयर बाजार नहीं बने थे
लाला लोग मीडिया नहीं चलाते थे
और दो-दो चार की जटिलता भी
जब कई हजार साल दूर थी

इतना ही जटिल हो पाया था जीवन
कि कैसे कुछ तोड़ कर खा लें
और भूख से बेहाल पंजों से
कैसे खुद को बचा लें

मुझे तब किसने बचाया
किस-किस से, किस तरह
और आखिर क्यों

तुम्हें बारहो मास का ऋतुकाल मिला
ओ मेरी मां
वंश-नाश के खिलाफ सबसे बड़ा बीमा
और थोड़ी-थोड़ी करके मिली इतनी सारी शर्म
जो शायद इस बीमे का प्रीमियम थी

मेरे और तुम्हारे सामने
रेडियो पर लगातार बजते
कंडोम और पिल्स के ऐड बताते हैं कि
यह शर्म भी अब जाने-जाने को है

बेशर्मी की दलील लिए मौत
न जाने कब मेरे दर पे दस्तक देगी
जैसे डायनोसोरों के यहां पहुंची थी वह
उल्का और बढ़ती गर्मी और भारी शरीर जैसे
कई सारे सम्मन लिए हुए एक साथ

कमजोर बेढंगा अरक्षित
विशाल सिर वाला यह उत्कट बानर
कूदफांद करता यहां तक पहुंच गया है
कि इस ग्रह को गेंद की तरह देखता है-
गुनता हुआ बुनता हुआ
पट् से इसे उड़ा देने का रोचक खयाल

सुबह तड़के जब दुनिया नींद में होती है
और रात के बोझ का मारा मेरा दिल
युकलिप्टस के पेड़ों पर हूप-हूप करता है
तब उड़ती हुई सामने आती है
एक लाख चीजों की शक्लवार लिस्ट
और उनसे जुड़ी दो करोड़ घेरेबंदियां

जरा सोच कर बताना
क्या ऐसा भी कुछ मुझे दिया गया है
जो इनकी लपेट से मुझे बचा ले जाएगा?

क्या यह कविता है-
हर दिन जिसकी चाहत आधी होती जाती है?
अगर नहीं तो क्या कुछ और
जो पागलपन, खुदकुशी और खुशफहमी से
मुझे बचाएगा?

इतने हजार-लाख-करोड़ साल
इतना रहम मुझ पर
यूं ही तो नहीं हुआ होगा
ओ मेरी मां

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

समय और मनुष्य पर संकट को पहचानती महत्वपूर्ण कविता है।

MS said...

अच्छी कविता... काफी अच्छी है

सहज समाधि आश्रम said...

से इन्ही सारी चीज़ो के मायने समझने की कोशिश कर रहा हूँ .
चन्द्रभूषण जी कभी अपने आप को जानने की कोशिश की
आप इन लाइनों का अर्थ जानते हैं तमाशा देखने वाले तमाशा
हो नहीं जाना आप ये जानते प्रत्येक जीव अग्यानतावश आत्मघाती
हो रहा है आप ये जानते हैं कि विचारों का ही संसार है
satguru-satykikhoj.blogspot.com

शरद कोकास said...

बहुत विशाल फलक है इस कविता में ।