दर्द ज्यादा है और मौत करीब
धूप-छांह और अकुलाहट भरी उमस के बीच
खुले निचाट में मैं लेटा हुआ हूं
मेरे लोग मुझे देखकर छिप-छिप जाते हैं
जैसे मैं अभी उठूंगा और उन्हें खोज लूंगा
मां मेरी उठकर कहीं दूर चली जाती है
कि जैसे लौटेगी तो भला-चंगा मिलूंगा उसे
मैं भी कुछ देर सो जाना चाहता हूं
ताकि नींद खुले तो चेहरे सारे हंसते हुए दिखें
मेरे भाई चीजें ला-लाकर मेरे पास रख रहे हैं
शायद इस उम्मीद में कि
जिंदगी उनसे निकलकर मेरे भीतर आ जाएगी
मैं उन्हें देख सकता हूं,उनका कुछ कर नहीं सकता
दर्द ज्यादा है और मौत करीब
थोड़ी रोशनी मेरी बंद पलकों से छनकर
अब भी मुझ तक पहुंच रही है
लेकिन अंधेरा है कि गहराता जा रहा है
सांय-सांय करता सूना-सुन्न अंधेरा
मैं चाहता हूं, यह बादलों का अंधेरा हो
हर तरफ से घेरे हुए बादलों का अंधेरा
और कुछ बड़ी-बड़ी बूंदें चुराकर
मैं अपने साथ लिए जाऊं
और ये कुछ आवाजें हैं
लोगों के उठ-उठ कर जाने की आवाजें
क्या इस ठंडे खुलेपन में
अब मैं बिल्कुल अकेला हूं?
मेरे जाने का वक्त है मेरे लोगों
कुछ देर और मेरे साथ रहो
पता नहीं किन आवाजों में
किससे मैं यह सब कहता हूं
न जाने किसके लौटने का इंतजार करता हूं
8 comments:
बहुत मार्मिक यथार्थ।
पता नहीं आपने किस मूड मे लिखा है? लेकिन मार्मिक है।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
यथार्थ सृजन
पढ़ने के बाद मन में सन्नाटा है, समझ नहीं आता क्या कहा जायें
सोचने को विवश!!
मार्मिक अभिव्यक्ति!
समर्थ कविता।
मुझे दर्द और मौत भी बहुत भाती है
शायद इस वजह से की कोई मुझपर तरस खाकर
कहदे सिर्फ एक शब्द्
"बेचारा"
लेकिन मुझे मालूम है कि ये सच नही
मै तो सिर्फ अपने आदत से मजबूर हूं॥
मैं चाहता हूं, यह बादलों का अंधेरा हो
हर तरफ से घेरे हुए बादलों का अंधेरा
और कुछ बड़ी-बड़ी बूंदें चुराकर
मैं अपने साथ लिए जाऊं
और ये कुछ आवाजें हैं
लोगों के उठ-उठ कर जाने की आवाजें
क्या इस ठंडे खुलेपन में
अब मैं बिल्कुल अकेला हूं?
मेरे जाने का वक्त है मेरे लोगों
कुछ देर और मेरे साथ रहो
पता नहीं किन आवाजों में
किससे मैं यह सब कहता हूं
न जाने किसके लौटने का इंतजार करता हूं
ADHBHUT..!!
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