Saturday, December 12, 2009

यहां और वहां क्या, तब और अब क्या

ईसा से करीब एक हजार साल पहले रचे गए अथर्व वेद में आई एक ऋचा का अर्थ यह है कि अगले दिन तक याद रह जाने वाला कोई सपना अगर आधी रात से पहले देखा गया हो तो उसका प्रतिफल अधिक समय बाद देखने को मिलता है, लेकिन यदि इसे प्रात:काल के आसपास देखा गया हो तो इसका शीघ्र प्रतिफलित होना निश्चित है। यह एक ऐसा सूत्र है, जो आज किसी को भी बेमानी लग सकता है। लेकिन एक दिन फोन की घंटी बजती है और अमेरिका में बैठी एक बेचैन रिश्तेदार आपसे पूछती हैं- आज सपने में मौसी जी को बीमार देखा, बात करा दीजिए- तो लगता है, अथर्व वेद को रचे अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है।

भविष्य के बारे में व्यवस्थित रूप से सोचना, किसी खास मसले से जुड़ी अनंत संभावनाओं को खारिज करते हुए सिर्फ एक पर उंगली रख देना खुद में एक बड़ा कौशल है। गणित और भौतिकी का तो मूल काम ही यही है। ज्योतिष और सैंपल सर्वे से लेकर सेफोलॉजी तक बहुत सारे अर्ध-वैज्ञानिक शास्त्र इसके व्यक्तिगत और सामाजिक पहलुओं पर काम करते हैं। लेकिन यहां हम जिस चीज के बारे में बात कर रहे हैं, उसका किसी कला, कौशल या विज्ञान से, यहां तक कि किसी अनुशासन या प्रशिक्षण से भी कोई लेना-देना नहीं है। चांद पर जा चुके अंतरिक्षयात्रियों से लेकर अनपढ़ घसियारों तक शायद ही संसार में कोई व्यक्ति ऐसा हो, जिसका कभी न कभी, कोई न कोई वास्ता टेलीपैथी या पूर्वाभास जैसे अनुभवों से न पड़ा हो।

टेलीपैथी और पूर्वाभास, यानी सपने में या जागते हुए कहीं और घटित हो रही, या घटित होने जा रही घटनाओं का अंदाजा हो जाना, एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें घुसते हुए विज्ञान के पांव थरथराते हैं। किसी घटना के बारे में कोई सूचना प्राप्त करने के लिए उसके साथ किसी न किसी तरह का संपर्क होना जरूरी है- यह चाहे सीधे प्रेक्षण के रूप में हो या किसी माध्यम के जरिए। यह सिलसिला टूटते ही तर्क की बुनियाद दरकने लगती है। समस्या यह है कि विज्ञान के पास अपने खुद के पूर्वाभासों की भी एक श्रृंखला है, जिसका सिर-पैर समझना इतना मुश्किल है कि इस काम के लिए साइंस ऑफ द साइंसेज नाम के एक अलग शास्त्र की मांग की जाती रही है।

अट्ठारहवीं सदी की गणितज्ञ मारिया एग्नेसी रेखागणित की जटिल समस्याओं के हल नींद में खोज लेती थीं और आंख खुलते ही उन्हें कॉपी में उतार देती थीं। पिछली सदी के जीनियस भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का कहना था कि उनकी कुलदेवी नामगिरि सपने में आकर उनके कठिन सवाल सुलझा जाती हैं। बेंजीन की संरचना पर काम कर रहे फ्रेडरिक केकुले को सपने में एक सांप दिखा जो अपनी पूंछ अपने मुंह में दबाए हुए था और यहीं से एक शास्त्र के रूप में ऑगेर्निक केमिस्ट्री की नींव पड़ गई। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी तक पहुंचाने वाला अपना गेडानकेनएक्सपेरिमंट एक दोपहर में दिवास्वप्न देखते हुए किया था।

इन सारे पूर्वाभासों की एक आम व्याख्या यह की जाती है कि अपने दिलोदिमाग की सारी ताकत झोंक कर यदि आप किसी समस्या पर काम कर रहे हैं तो आपका अवचेतन भी इसमें मददगार बन जाता है। केकुले यदि बेंजीन की संरचना पर जान लड़ाकर काम न कर रहे होते तो अपनी पूंछ मुंह में लिए सांप के सपने का उनके लिए भला क्या अर्थ हो सकता था?

कई लोगों को इस व्याख्या में विज्ञान की अहंमन्यता या दुराग्रह नजर आता है, लेकिन यह उसके साथ ज्यादती है। विज्ञान की पद्धति ऐसे प्रेक्षणों पर ही ध्यान केंद्रित करने की रही है, जो कई लोगों द्वारा कई बार दर्ज किए जा सकें। किसी अकेले व्यक्ति द्वारा सिर्फ एक बार किया गए किसी प्रेक्षण- जैसे स्वप्न, पूर्वाभास, दैवी अनुभूति, इलहाम या यहां तक कि आंख बंद करने पर नजर आने वाली आकृतियों को भी खारिज या नजरअंदाज करने के अलावा इस पद्धति के पास कोई चारा नहीं है। इस बारे में आइंस्टाइन की बात याद करने लायक है कि वे भूत-प्रेत पर भी यकीन करने को तैयार हैं लेकिन सिर्फ तभी, जब कई लोग उसे एक साथ देखें और बार-बार देखें।

साझा प्रेक्षण की इस सीधी सी पद्धति पर आगे बढ़ कर ही विज्ञान ने अतीत की अतार्किक सत्ताओं को परास्त किया। लेकिन अब विज्ञान एक ऐसे मुकाम पर पहुंच रहा है, जहां वैज्ञानिक प्रेक्षण की यह परिभाषा जब-तब छोटी मालूम पड़ने लगती है। किसी परिघटना के केवल एक प्रेक्षण (जैसे, सुदूर अंतरिक्ष में सिर्फ एक बार दर्ज की जा सकी अरबों साल पुरानी कोई कौंध) या किसी के भी द्वारा कभी न लिए जा सके प्रेक्षण (जैसे, प्राणि जगत में उद्विकास या इवोल्यूशन) को भी उसे वैज्ञानिक प्रेक्षण जैसी मान्यता देनी ही पड़ती है। क्वांटम मेकेनिक्स का तो आधार ही यही है कि किसी कण या तरंग का वस्तुगत प्रेक्षण संभव नहीं है। इस क्रम में विज्ञान के भीतर पूर्वाभास या टैलीपैथी जैसे किसी के साथ साझा न किए जा सकने वाले प्रेक्षणों के लिए भी इधर कुछ स्पेस बनने लगा है।

ज्ञान मीमांसा या एपीस्टेमोलॉजी का यह ऐसा मुकाम है, जहां पहुंच कर विज्ञान का सामना पहली बार फिलॉसफी के बुनियादी सवालों से हो रहा है। किसी भी किस्म के संपर्क के बिना घटना की सूचना मिल जाने का अर्थ है देशकाल की अंधेरी, अभेद्य दीवार में क्षण भर के लिए कोई खिड़की खुल जाना। विज्ञान के लिए आखिर इसका अर्थ क्या है? क्या यह कि 'यहां और वहां', या 'तब और अब' जैसी धारणाएं उतनी ठोस, उतनी वास्तविक नहीं हैं, जितनी ये एक नजर में मालूम पड़ती हैं?

5 comments:

अफ़लातून said...

ज्ञान लाभ हुआ । सप्रेम, आभार

sanjay vyas said...

आप अथर्व वेद की जिस ऋचा का ज़िक्र कर रहें है अपने अर्थ रूप में वो लोक मानस का हिस्सा हो गयी.मुझे याद है मेरी दादी कहती थी कि परगाळ (पौ फटने से पहले ) को देखा गया सपना सच होता है. या ये भी हो सकता है कि लोक जीवन के कई विश्वासों को अथर्व वेद ने समाहित कर उन्हें शास्त्रीयता प्रदान कर दी हो. खैर बढ़िया ज्ञान मीमांसा.विज्ञान के कई आविष्कार सपने में संकेत रूप में घटित हुए हैं.उस पर आपकी व्याख्या बहुत अच्छी है और बहुत ज़्यादा परा मनोविज्ञानियों के लिए गुंजाइश नहीं छोडती.

prabhat gopal said...

achi jankari..

Udan Tashtari said...

एक उम्दा जानकारी लेकर जा रहे हैं आपको आभार कहते.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah..badiya jaankari...