Saturday, June 13, 2009

ओए राजू, प्यार ना करियो

अराजीबाग में हमारा कमरा सड़क से थोड़ी दूर खेत में था। उस तरफ मोहल्ले के पिछले मकानों की नालियां निकलती थीं और बिजली विभाग के किन्हीं इंजीनियर साहब ने अपने विभाग को चूना लगाने के बाद हम जैसे किरायेदारों के साथ यही क्रिया दोहराने के लिए इसे खड़ा किया था। कमरे में सोने के लिए मेरे पास तो खटिया थी लेकिन राजू का फैसला वनवास की शर्तों के मुताबिक जमीन पर ही सोने का था। लिहाजा हम लोग अड़ोस-पड़ोस से बहुत सारे ईंटों के टुकड़े उठा लाए और कच्चे फर्श पर उन्हें ठोक-ठोक कर इस लायक बना दिया कि उस पर एक अदद बिस्तर बिछाया जा सके।

स्वभाव से राजू निहायत काहिल थे और मेरे देखते परिश्रम का एकमात्र काम उन्होंने सिर्फ यह फर्श बनाने का ही किया। उनका हंसना शुरू में मुझे चकित करता था, फिर धीरे-धीरे आदत होती गई। वे हंसना शुरू करते तो डर लगता कि कहीं उनकी सांस न अटक जाए। पूरा चेहरा लाल हो जाता और मुंह इस कान से उस कान तक फैल जाता। फिर हिक-हिक हुच-हुच जैसी कोई आवाज आनी शुरू होती और लगता कि घबराने की कोई बात नहीं है। वैसी हंसी मैंने न राजू से पहले देखी थी न उनके बाद देखी।

बाद में उनके पिता-माता और अन्य परिजनों से मुलाकात होने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि राजू की यह हंसी जेनेटिक नहीं है। दरअसल, उनके पिता जी दिल्ली में एक्सपोर्ट प्रमोशन बोर्ड में बड़े बाबू थे और इस तरह हंसने की कला उन्होंने खासकर पंजाबी एक्सपोर्टरों को साधने के लिए ईजाद की थी। हंसी जैसी सहज क्रिया में चापलूसी और जिंदादिली को एक साथ साधने का यह उपक्रम उनसे होता हुआ उनके ज्येष्ठ पुत्र तक इसी रूप में पहुंच पाया था।

अराजीबाग में रहते हुए हमारा नियमित भोजन दाल और रोटी हुआ करता था, और बहुत बिरले ही कभी भात। सब्जी पकाने के लिए न समय होता न पैसे, लिहाजा दाल की पतीली में ही टमाटर काट लिए जाते और ऊपर से लहसुन-मिर्चे का बघार मार दिया जाता। एक बार दाल खत्म हो गई और सब्जी के लिए पैसे किसी के पास नहीं थे तो हम लोगों ने पिछवाड़े कहीं से कुछ तोड़ लाने की योजना बनाई। बहुत दूर तक चक्कर मारने के बाद भी खेतों में कहीं सब्जी नजर नहीं आई लेकिन एक जगह प्याज के साग जैसा कुछ दिख गया तो उसे हम दो टाइम बनाने भर की मात्रा में उखाड़ लाए। प्याज का साग पकते-पकते पक गया और रोटियां भी बन गईं तो बड़े शौक से खाने बैठे, लेकिन पहला कौर तोड़ कर मुंह में रखते ही जान निकल गई। इतना कसैला कि दोनों से एक कौर भी नहीं खाया गया। फिर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि प्याज के चक्कर में हम किसी के खेत से लहसुन उखाड़ लाए थे।

पढ़ाई-लिखाई के मामले में राजू की अपनी अलग शैली थी। खाना नाक तक चढ़ा लेने के बाद वे कोई बहुत मोटी किताब सामने रख कर आलथी-पालथी मारे बैठ जाते। फिर मैं मन ही मन एक से सौ तक की गिनती शुरू करता। बमुश्किल बहत्तर-तिहत्तर तक पहुंचते-पहुंचते वे नाक के बल सीधे किताब पर ही गिरते। अगर बिजली नहीं होती और पढ़ाई लैंप से करनी होती तो इसे न सिर्फ उनके लिए बल्कि पूरे कमरे के लिए खतरनाक जानकर मैं उन्हें आज की पढ़ाई भी कल ही कर लेने की सलाह देता । एक बार मेरे एक अन्य मित्र राजकुमार सिंह ने उनकी यह क्रिया देखी तो उनके मुंह से बेसाख्ता निकला- का ए राजू, मर्दवा जिउ देबा का (क्या राजू, जान देंगे क्या)।

साल जब निकल गया और इम्तहान की बारी आई तो राजू अचानक सक्रिय हुए। पहले ही पेपर में उन्होंने बड़े मनोयोग से बहुत सारी पुर्जियां बनाईं और किसी सुसाइड बॉम्बर की तरह पूरे शरीर में कहीं गेटिस से तो कहीं रबर बैंड से उन्हें फिट कर लिया। इसके बाद एक अंतिम पुर्जी इंडेक्स के लिए बनाई कि कौन सी पुर्जी कहां रखी है, और उसे जेब में रख लिया। मैंने उन्हें चेतावनी दी कि कहीं इंडेक्स ही न धर लिया जाए। यह तो नहीं हुआ लेकिन एक तो सवाल समझ में नहीं आए, दूसरे नकल की पूरी प्रक्रिया उन्होंने इतनी जटिल बना डाली कि रिजल्ट उनका लगभग पैंतालीस प्रतिशत ही आ सका। अलबत्ता यह अच्छा रहा कि शिब्ली कॉलेज ने उन्हें निराश नहीं किया। वे दोनों साल लगातार पास हुए और आखिरकार बी.एससी. बायो की डिग्री लेकर ही आजमगढ़ से दिल्ली रवाना हुए।

राजू की एक और अच्छी बात झूठ बोलने की थी। जैसे कोयल कूकती है और भौंरे गुनगुनाते हैं, वैसे ही वे झूठ बोलते थे। किसी बुरे इरादे से नहीं, ऐसे ही मन की तरंग में। जिसे आजकल लोग मिसाइल से फेंकना कहने लगे हैं और महत्वाकांक्षी लोगों के किसी भी झुरमुट में जिसे सांय-सांय अपने अगल-बगल से गुजरता देख आप तय नहीं कर पाते कि इस पर हंसें या रोएं- उस अकच्च झुट्ठेपने से पहला साक्षात्कार मुझे राजू के जरिए ही हुआ। मेरे ख्याल से यह गुण भी उनके पास फर्जी एक्सपोर्टरों और उनके पिता से होता हुआ उन तक पहुंचा था।

बहुत दिनों बाद राजू से जब दिल्ली में मुलाकात हुई तो पता चला कि वे एक्सपोर्ट के बिजनेस में ही कुछ कर रहे हैं। इस समय तक वे बाल-बच्चेदार हो चुके थे और मेरी शादी बस हुई ही हुई थी। दोनों के रास्ते बिल्कुल अलग थे और संवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी लेकिन अब शादी नाम की एक ऐसी चीज नजर आने लगी थी जो दोनों के बीच साझा थी। राजू के कामधंधे के बारे में ज्यादा कुछ पूछ पाना मेरे बूते से बाहर था, लेकिन उस मुलाकात में मैंने गौर किया कि राजू बहुत बदल गए हैं। वे करोड़ों-अरबों में खेलने की बातें, अशोका होटल की काजू और मखाने के तड़के वाली दाल की लंतरानियां सब कहां गईं, जबकि वे फिलहाल एक्सपोर्ट के बिजनेस में थे।

इसके और भी बहुत सालों बाद राजू मुझसे फोन पर मिले, जब मैं सहारा में नौकरी कर रहा था। उन्होंने बाकायदा मुझसे टाइम लिया और एक बड़े से झोले में बहुत सारे कागजात लेकर अखबार के दफ्तर में ही मिलने आए। बहुत देर तक वे मुझे अपने साथ हुए एक षडयंत्र के बारे में समझाते रहे लेकिन मेरे पल्ले ज्यादा कुछ नहीं पड़ा। शायद किसी फर्जी एक्सपोर्टर ने उनकी जिंदगी तबाह करने का इंतजाम कर दिया था। अपने पिता के संपर्कों से अपनी एक एक्सपोर्ट असिस्टेंस कंपनी उन्होंने बना रखी थी। इनके दस्तखत वाली बिल्टी से कोई कंटेनर विदेश भेजा गया लेकिन वहां पहुंचने के बाद कंटेनर खुला तो उसमें एक्सपोर्ट आइटम के नाम पर कागज और भूसा भरा पाया गया।

इस मामले में सारे कागज-पत्तर राजू के नाम से बने थे लिहाजा कुछ समय के लिए वे जेल गए और फिर बारह-चौदह साल की मुकदमेबाजी ने उनके अंजर-पंजर ढीले कर दिए। सारा किस्सा बताने के बाद उन्होंने कुछ मदद की गुजारिश की, लेकिन झूठे दिलासे देने के अलावा उनके लिए मैं भला क्या कर सकता था। बाद में सिद्ध रिपोर्टर और अपने खोजी संपादक प्रभात रंजन दीन से इस विषय में चर्चा की तो उन्होंने कहा कि जैसा ये बता रहे हैं, वैसा होना संभव नहीं लगता, और हो भी तो इस बारे में कुछ किया नहीं जा सकता। फर्जी एक्सपोर्ट का अपना एक अलग ही धंधा है और इसका इस्तेमाल हवाले की तरह विदेशी पैसा देश में लाने के लिए किया जाता है। इस धंधे में शामिल दो पार्टियां आपस में टकरा जाएं या संयोग से यह कस्टम की नजर में आ जाए तभी ऐसी स्थिति बन सकती है।

लब्बोलुआब यह कि इस भीषण संकट में राजू की कोई मदद मुझसे नहीं हो पाई। राजू मददगार आदमी थे, शायद आज भी हों। पढ़ाई के दिनों में तो मेरी बहुत ही मदद उन्होंने की थी, लेकिन उनकी कोई मदद मुझसे नहीं हो पाई। आजमगढ़ में साथ रहते एक-दो बार झल्लाहट के मौके जरूर आए थे लेकिन सिर्फ एक को छोड़कर उनकी कोई कड़वी बात मेरे मन पर नहीं है। डिग्री लेकर दिल्ली पहुंचने के बाद उन्होंने न सिर्फ अपने परिवार को बल्कि मेरे बड़े भाई को भी बताया कि सिर्फ ईमानदारी से इम्तहान देने की सजा उन्हें यह मिली कि उनके नंबर खराब आ गए जबकि नकल करके मैं फर्स्ट क्लास मार ले गया। भैया ने यह किस्सा मुझे बताया तो गुस्सा बहुत आया लेकिन फिर लगा कि वे तो राजू हैं, एक छोटे से झूठ के लिए उन पर गुस्सा क्या करना।

ओह राजू, बीस-पच्चीस सालों में आजमगढ़ से दिल्ली तक आने में हम कहां से कहां पहुंच गए। अराजीबाग की सड़क पर बैंक मैनेजर ढिल्लों साहब की बेटी में पूनम ढिल्लों को तलाशते हुए छपेली शर्ट में गर्मियों की शाम तीन घंटे इधर से उधर चक्कर मारना और बिना किसी आरो-आहट के उससे जबर्दस्त अफेयर चलने के दावे करना आखिरतुम्हारे किस काम आया। सरदार जी ने उसी वक्त कायदे से तुम्हारी पुंगी बजा दी होती तो शायद पैर जमीन पर आ जाते और एक्सपोर्टरों का फेंकू धंधा तुम्हें इतना रास न आता। ......मुझे कभी समझ में नहीं आएगा कि तुम्हारी कहानी पूरी कैसे करूं।

3 comments:

अजय कुमार झा said...

राजू को एक बार गले लगा पता तो जीवन सफल हो जाता..क्या कहूँ इसके सिवा..

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत अच्छा शब्द चित्र है। चरित्रों को इसी तरह उन की सचाई के साथ उकेरना हमेशा अच्छा लगता है।

Ashok Pande said...

राजू की हंसी ... उफ़ रे!

बढ़िया चल रही है गाड़ी. अब इसे ब्रेक न लगने देना देर तलक चन्दू बाबू!