Thursday, April 16, 2009

मजबूरी का महिमामंडन

सारे नेता अपराधी पालते हैं, उन्हें टिकट देकर चुनाव लड़वाते हैं, यही मायावती भी करती हैं तो इसमें गलत क्या है। सारे नेता भ्रष्ट हैं, पैसे खाते हैं, मायावती भी खाती होंगी, गलत क्या है। सारे नेता जाति की गोलबंदियां बना कर चुनाव जीतते हैं, मायावती उनसे अलग क्या कर रही हैं, जो इतना शोर मचाया जा रहा है। जब इन सारे नेताओं में से कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है तो मायावती क्यों नहीं बन सकतीं। जो ऐसा सोचता है कि उन्हें नहीं बनना चाहिए, वह ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है।

देश में राजनीति जिन-जिन औजारों से खेली जाती है, वे सभी मायावती के पास हैं। वे जैसे मुख्यमंत्री बनी हैं, वैसे ही प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं। शायद इस बार बन भी जाएं। किसी पूर्वाग्रह वश कोई अगर चाहे भी कि वे न बनें तो वह उनका क्या कर लेगा। उसके ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों का इलाज करने आएंगे हरिशंकर तिवारी, अन्ना शुक्ला, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और इनके ही जैसे न जाने कितने लोग, जिनके पास हर दलील और हर पूर्वाग्रह का इलाज मौजूद है। पहले वे मायावती के समर्थकों का इलाज करते थे, अब उनके विरोधियों का कर देंगे।

अलबत्ता मायावती के प्रधानमंत्री बनने तक कई चीजें पीछे छूट चुकी होंगी, जैसे उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में छूट गई हैं। इस राज्य में अब किसी अपराधी के लिए खुद को यथासंभव शरीफ या नेता जैसा दिखाने की जरूरत नहीं रही, किसी अफसर को काम करता या कराता हुआ दिखने की जरूरत नहीं रही, किसी पैसे वाले को अपना घटिया से घटिया काम करा लेने की जुगत छिपाने की भी कोई जरूरत नहीं रही क्योंकि बहन जी की पारसमणि छू जाने के बाद इन्सान सभी तरह के दिखावों और औपचारिकताओं से मुक्त हो जाता है।

यह बहन जी के साथ जुड़ा कोई विशिष्ट मामला नहीं है। दक्षिण अफ्रीका ने अपनी आजादी के बाद के वर्षों में कई बार ऐसी सामाजिक समझदारी के चलते खुद को गर्त में जाता महसूस किया है। उसके पड़ोस का जिंबाबवे तो पूरा का पूरा गर्त में ही चला गया है। कोई भी विचारधारा, सूत्र या व्यक्ति अगर खुद को आम जन-जीवन के तर्कों से इतना ऊपर मानने-बताने लगे कि सिर्फ किसी जगह उसका चेहरा चेप दिया जाना ही हर चीज को जायज बना दे तो इसका नतीजा यही होता है। खास कर मुक्ति का दावा करने वाली विचारधाराएं और व्यक्ति ऐसे असाध्य विध्वंसों के सबसे कारगर औजार बनते हैं।

पूर्वी यूरोप में समाजवाद के बिखराव के समय अक्सर दोहराए जाने वाले हेगल के एक सूत्र की याद आती है- विचार धुंधले पड़ जाते हैं, जीवन का वृक्ष फिर भी हरा रहता है। मायावती के उत्तर प्रदेश का अगर कोई सबक है तो सिर्फ यह कि दो तरह के घटियापने के बीच किए गए चयन को उसके घटियापन के साथ ही ग्रहण किया जाना चाहिए। उसका महिमामंडन तो किसी भी हाल में नहीं किया जाना चाहिए- न सामाजिक न्याय के नाम पर, न दलित मुक्ति के नाम पर, न राजनीतिक क्रांति के नाम पर, न ही किसी और नाम पर।

क्योंकि ऐसा करने पर जो नए तरह का चमकदार घटियापन पैदा होता है, उसका सामना करने के लिए जरूरी सेफ्टी बेल्ट हम हमला शुरू होने से काफी पहले ही खो चुके होते हैं।

8 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हम भी जिम्बाब्वे वाली दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं. वैसे भी 60 सालों से एक परिवार को ढो रहे देश में अगर कोई कहता है कि लोकतंत्र है, तो उसकी बु्द्धि पर तरस ही आती है.

अभय तिवारी said...

बेलाग.. बेलौस.. कांटे की बात!

azdak said...

ओह, जिम्‍बाव्ब्‍वे वाली राह, कितनी तो सुहानी राह?

Anil Kumar said...

राजनैतिक लाभ के लिये अपराधियों को संरक्षण देना एक जुर्म है, फिर चाहे वह ब्राह्मण करे या शूद्र। सभी पाप के भागी बनेंगे, और ईश्वर न्याय जरूर करता है।

अजित वडनेरकर said...

बात सही है...

दिनेशराय द्विवेदी said...

पानी तो ऊपर से नीचे ही बहता है। ऊपर उठने के लिए उबलना और भाप बनना जरूरी है।

Ek ziddi dhun said...

आपकी बात वाजिब, आपके कंसर्न गहरे.
मगर जब सवाल सिर्फ किसी के दलित होने की वजह से उठाये जाते हों. ...और वो भी छलनी के साथ सूप उठाते हों?

Unknown said...

छा गए अंधेरे में। हां छा ही गए। अजी वा बस ऐसे ही छाए रहो।