Thursday, December 18, 2008

मंदी पर कुछ बातें, एक प्रस्ताव और एक सौरी नोट

मन बहुत सेंटी-सेंटी हो रहा है। इतने सारे मित्र ब्लाग के जरिए ही मिले थे। इतने दिन सभी ने किसी न किसी तरीके से हाल-चाल लेने की कोशिश भी की लेकिन छह महीने बाद जब वापसी हुई तो न किसी से दुआ न सलाम। और तो और, कहीं कोई टिप्पणी भी नहीं। मित्रों की टिप्पणियों का जवाब तक नहीं। सफाई में कहने को कुछ नहीं है। दफ्तर में ब्लाग छू नहीं सकते। घर पर मुश्किल से आधा घंटा निकल पाता है, वह भी ऐसे जैसे किसी के घर सेंध मार रहा होऊं। इतने समय में क्या-क्या किया जा सकता है। खैर, इस झींखने से भी क्या होने वाला है। ई-मेल का रास्ता खुला हुआ है। सबके मेल ऐड्रेस कल खोज-खोज कर निकालूंगा और बातचीत दुबारा शुरू हो जाएगी।

एक प्रस्ताव है कि दुनिया भर में चल रही मंदी की परिघटना को हम लोग अपने-अपने स्तर पर अच्छी तरह दर्ज करें। हम लोगों की पीढ़ी जिस तरह सोवियत संघ के साथ समाजवादी खेमे के विघटन और अमेरिका पर हमले जैसी ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी है उसी तरह इसे मंदी को देखने का मौका भी मिल रहा है। यह एक भयानक चीज है और हर किसी के लिए अपने-अपने ढंग से इसके दुखद मायने हैं। लेकिन साथ में यह एक ऐसी चीज भी है जिसके बारे में दावे के साथ कोई कुछ नहीं जानता, लिहाजा जितने तरीकों से हो सके, इसे दर्ज किया जाना चाहिए।

रोज सुबह मैं कुछ लोगों के साथ वालीबाल खेलता हूं। इनमें कोई बैंक में वसूली एजेंट है तो कोई कार डीलर है, कोई किसी रियल एस्टेट कंपनी में अपना ट्रक लगाकर ईंटा ढोता है तो कोई किसी निर्माणाधीन इमारत में चौकीदारी करता है। इनमें से ज्यादातर दलाली और सट्टेबाजी वाली अर्थव्यवस्था की पैदाइश हैं, लेकिन मेरे साथ खेलते हैं, इसी से जाहिर है कि शिकार करने वाले नहीं, जूठन पर जीने वाले जीव हैं। सभी लोग बुरी तरह मंदी से डरे हुए हैं लेकिन सभी को लगता है कि मौका आते ही वे इसी मंदी में काफी कुछ कमा गुजरेंगे। अभी डीडीए फ्लैट्स के ड्रा निकलने वाले थे तो लगभग सभी ने बुकिंग करा रखी थी। किसी का नहीं आया, सबने एक सुर से सात-आठ हजार का घाटा उठाया, लेकिन चार और स्कीमों में पैसे लगाने से इनमें कोई चूकने वाला नहीं है।

एक ही दिन सुबह आठ बजे मंदी के फायदे-नुकसान पर जमीनी गप्प सुनना और फिर दस बजे अमेरिका के ऐतिहासिक जालसाज बर्नार्ड मैडाफ के बारे में पढ़ना एक विचित्र अनुभूति जगाता है। लगता है जैसे कोई अदृश्य शक्ति इस पूरे ग्रह को एक साथ निचोड़ कर इसका कचूमर निकाल देने पर आमादा है। पिछले पंद्रह-बीस सालों से उम्मीद का चुग्गा फेंक-फेंक कर इस दुनिया को चराया जा रहा है। करोड़ रुपये के फ्लैट, दस लाख की गाड़ी, सौना बाथ, गार्डन फेसिंग, होनोलूलू का टूर। खुशियों की इस असाध्य बाढ़ में मैडाफ जैसे कितने गड्ढे हैं, कोई नहीं जानता।

अर्थशास्त्र की जितनी मेरी समझ है, उसके मुताबिक आप इस शास्त्र की सिर्फ और सिर्फ शब्दावली समझ सकते हैं। उससे आगे यह लालच और भय का विचित्र खेल है और जो भी इसे समझ लेने का दावा करता है वह न सिर्फ दुनिया से बल्कि खुद से भी झूठ बोल रहा होता है।

यह मंदी अगले साल के मध्य तक या अंत तक खत्म हो जाएगी, जो लोग यह बात कह रहे हैं, वे ठीक यही बात एक साल बाद भी कहेंगे लेकिन तारीख बदल कर। यह उनका धंधा है और यकीनन वे मंदी की डाइनेमिक्स के बारे में किसी आम आदमी से ज्यादा नहीं जानते।
1930 का उदाहरण देना बेकार है। तब की अर्थव्यवस्था वैसी नहीं थी, जैसी आज है और न ही इससे उबरने की कोशिशें तब की कोशिशों का दोहराव बन कर सही साबित होंगी। हम लोग बराबर इसे समझने की कोशिश करेंगे। लेकिन यह बाद की बात है। मेरा प्रस्ताव है कि इसे जितनी तरह से हम देख सकते हैं, देखने की कोशिश करें। बाद में इसे पढ़ कर हम ज्यादा बेहतर नतीजे निकालने की हालत में होंगे।

मेरा समय समाप्त- बाय-बाय

3 comments:

azdak said...

सही है. खेलते रहो, खेलाते रहो. जहां तक मंदी को देखते रहने की बात है तो उसे देखना क्‍या, हम तो इतने वर्षों से जेब में लिये जी ही रहे हैं.

स्वप्नदर्शी said...

I think apart from the side effect of globalization, greediness of the multinational corporates, the recession indicates failure of state control and lack of any concievable structure/protocols.

Rest I agree with pramod ji, I too have a life-time experience of "mandi". Badi mushkil se jugaad lagaa-lagaa kar kuchh experiments karane padate hai.

अनामदास said...

Bahut khushi hui apki wapsi dekhkar, font nahi hai hindi ka, maf karen, ab bane rahien, is mamle per bahut kuch likhney ki jaroorat hai...apne jo likha hai who to prastavana hai