लेखक का कविता संकलन आने वाला है और उसकी दुविधा यह है कि वह इसे समर्पित किसे करे। अतीत में बताया जा चुका है कि यह लेखक क्या बला है और कहानी से कविता में उसका आगमन कैसे हुआ। फिर भी यह सोच कर कि पहलू ब्लाग की दुबारा शुरुआत ही एक जमाने बाद हो रही है, लेखक का परिचय दुहराना जरूरी है। लेखक एक आर्कीटाइप लेखक है, जैसे कभी हुआ करते थे। लिखने से न उसकी रोटी निकलती है, न करियर बनाने में कोई मदद मिलती है, न समाज में इससे उसका रुतबा बढ़ता है। यह सब हो तो उसे बुरा नहीं लगेगा लेकिन लिखने में इस सब का दखल उसे पसंद नहीं है।
लेखक ने कहा, यह संकलन वह अपनी दिवंगता पत्नी को समर्पित करने जा रहा है। संकलन में तीन-चार साल पहले स्वर्गवासी हुई पत्नी की स्मृति में लिखी कई कविताएं हैं, जिनमें कुछ अच्छी और कुछ बहुत अच्छी हैं। लेकिन पत्नी के नाम समर्पण को लेकर मेरा इंस्टैंट रिएक्शन यही था कि ऐसा बिल्कुल मत कीजिए। वजह यह कि कविता की नई ऊर्जा आपमें पत्नी के बजाय कुछ दूसरी जगहों से आई है। किसी और लड़की के प्रति प्रेम को पत्नी की आड़ देना खुजली पैदा करने वाली चीज है। खास कर तब तो और भी जब पत्नी अब इस दुनिया में न हों। प्रकटतः मैंने यही कहा कि संकलन को अगर बाबाजी की पेटी बनाना है तो जरूर इसे पत्नी के नाम समर्पित करें, वरना बिना समर्पण के ही किताब जाने दें।
लेखक ने शायद मेरी बात को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया। किताब में समर्पण जा रहा है लेकिन उसके प्रति, जिससे खुद को जुड़ा मान कर लेखक ने हाल में कुछ जबर्दस्त कविताएं लिखी हैं, लेकिन जो कोई ठोस उम्मीद जगने से पहले ही एक प्लेटोनिक भाप में विलीन हो चुका है। जाहिर है, इस समर्पण से बवाल मचेगा और शायद इससे किताब को कुछ पब्लिसिटी भी मिलेगी। लेकिन अगर इसे सही स्पिरिट में लिया गया तो शायद हिंदी समाज में चीनी कम से आगे की कुछ बात शुरू हो। वैसे उम्मीद इसकी नहीं के बराबर है।
अपने यहां हर इन्फेचुएशन को बहन, बेटी या किसी और रिश्ते का नाम देकर ढक देने का चलन है। रचनात्मकता के सबसे बड़े स्रोत की मौत तो ठीक इसी बिंदु पर हो जाती है। यहां से बेईमानियों के तमाम किस्से शुरू होते हैं लेकिन उनका जिक्र यहां रहने ही देते हैं। ईमानदार लोगों का हाल भी खास अच्छा नहीं है। कुछ बड़े लेखक अपनी रचना में व्यक्त हुई रूमानी ऊर्जा को किसी न किसी समाजग्राह्य रिश्ते का टाट ओढ़ा देते हैं। नतीजा यह होता है कि अक्सर उनके जीवन काल में उनकी बात ही पूरी-पूरी किसी के पल्ले ही नहीं पड़ती।
शमशेर की मृत्यु के कुछ साल बाद तक हम लोग टूटी हुई बिखरी हुई और अन्य कई घोर ऐंद्रिक प्रेम कविताओं को अपनी पत्नी की याद में लिखी गई रचना मान कर उनके प्रति दास्य भक्ति के भाव से सन जाया करते थे। फिर दूधनाथ सिंह की लौट आ ओ धार ने चीजों को एक संदर्भ दिया और शमशेर को नए सिरे से पढ़ने की दृष्टि भी। लौट आ ओ धार /टूट मत ओ दर्द के पत्थर हृदय पर/ लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी/ फिर फूल से लग जा और तुम मुझे प्रेम करो ऐसे/ जैसे हवाएं मेरे सीने को दबाती हैं- जैसी अलौकिक पंक्तियां जिस रिश्ते से उपज सकती हैं, उसे महसूस करने के लिए पाठक के पास तथ्यों का कुछ तो अवलंब होना ही चाहिए।
दुर्भाग्यवश, शमशेर के इस रिश्ते के बारे में पता चलने तक देर हो चुकी थी। जब इस कवि को सचमुच पढ़ने की हालत बनी, तब तक सघन ढंग से उसे पढ़ने के लिए कई दूसरे जरूरी काम छोड़ने जरूरी हो गए थे लिहाजा शमशेर फिर कभी एजेंडा पर नहीं आए तो नहीं आए।
मध्यकालीन कवियों ने अपनी समझ और बुद्धि के मुताबिक नायिका भेद रचा। सात साल की कन्या से सत्तर साल की प्रौढ़ा तक का शरीर विन्यास और उसी के मुताबिक उनका श्रृंगारिक प्रेम भाव। यह दरबारी पुरुष कवियों की रची हुई स्त्री थी, या शायद स्त्री का कैरीकेचर। अपना इरादा यहां कोई नायक भेद रचने का नहीं है। लेकिन कुछ बात है, जिसे मैं यहां पकड़ने की कोशिश कर रहा हूं।
चरम अवसाद में चला गया एक मृत्युगामी बूढ़ा एक नवयुवती से जितनी हताशा, उम्मीद और आजादी के साथ प्रेम कर सकता है, वह मैंने लेखक में ही देखा है। रूमी की एक पंक्ति याद आती है (सही या गलत, अभय तिवारी बताएंगे) मी चू सब्जा बारहा रूईदः एम। सब्जे की तरह मैं बार-बार उग आता हूं। मैंने लेखक के मरे हुए मनोजगत को पिछले कुछ दिनों में सब्जे की तरह उगते, मुरझाते, चटख होते देखा है। काश, यह खुशनसीबी जीवन में कम से कम एक बार सबको हासिल हो। हालांकि जितनी तकलीफ यह अपने साथ लाती है, उसे झेलना सबके बूते की बात नहीं है।
5 comments:
लेखक को चाहिए कि चांद मोहम्मद से थोड़ी हिम्मत उधार ले ले। चाहे तो चांद और फिजा को कविता संग्रह समर्पित भी कर सकता है
एक अच्छी कविता पढ़कर पाठक उसके मायने अपने अनुभव और पीडा से निकालता है। उसमे कवि का व्यक्तिगत जीवन क्या रहा? क्यों रहा? बहुत मायने नही रखता। ये कविता का जादू है की पढने वाला प्रमुख और कहने वाला गोड़ हो जाता है।
पत्नी और प्रेयसी की चर्चा बहुत पहले से प्रतिष्ठित लेखकों - कवियों के बीच चल चुकी है. जरूरी नहीं कि कवि की प्रेरणा कोई हाड़-मांस की युवती ही हो.
आपके ब्लाग पर टहलते हुये आ गया हूँ आपकी प्रतिक्रियाऐ अच्छी लगीं-राजेश
भाई आपका आलेख ही किसी कविता से कम नहीं है। सच है जो कुछ छूटता जाता उसके प्रति ललक बढती जाती है।
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