Sunday, December 14, 2008

यहां-यहां से गुजर गया

सहारा ग्रुप का साप्ताहिक अखबार सहारा समय ज्वाइन करते वक्त सोचा था कि दो साल यहां किसी तरह कट जाएं तो फिर कोई और दरवाजा देखा जाएगा। काटूर्निस्ट मित्र सौरित ने आश्चर्य से मुंह फाड़ते हुए जवाब में दो साल ऐसे कहा था जैसे मैं दो साल नहीं दो युगों की बात कर रहा होऊं। लेकिन गोड़ी कुछ ऐसी रही कि 18 मई 2008 को इस्तीफा लिखने तक पांच साल एक महीना और आठ दिन पार हो चुके थे। तजुर्बे के लिहाज से यह समय बुरा नहीं था लेकिन नौकरियों का जो हाल है, उसमें बार-बार यही लगता था कि शायद अनेक कर्मचारियों की तरह अपनी भी श्रद्धांजलि सभा सहारा, नोएडा के विशाल लान में ही मनेगी।
बहरहाल, 19 मई से एक अलग जिंदगी शुरू हुई। पत्रकारिता में बिजनेस ही ऐसी चीज थी जो अपने मिजाज के सबसे खिलाफ लगती थी, लेकिन करियर में ले-दे कर करीब पांच महीने बिजनेस पत्रकारिता में भी निकल गए। और जो भी निकले, अच्छे निकले। इंटेलिजेंट लोगों के साथ काम करने का मौका मिला। ऐसे लोग, जो आज के जमाने में पत्रकारिता करते हुए भी रसीली तस्वीरों के बजाय, सूचनाओं के प्रति अपना आग्रह बचाए हुए हैं। पूरी मेहनत से कठिन चीजों का अर्थ समझने की कोशिश करते हैं और सरल ढंग से उन्हें लोगों तक पहुंचाते हैं। ये सूचनाएं लोगों के काम-धंधे से जुड़ी होती हैं, इनसे उन्हें दो पैसे कमाने या बचाने में मदद मिलती है।
बिजनेस भास्कर का काम मेरे मन का था, सिर्फ दो दिक्कतों को छोड़कर। एक तो काम की जगह मेरे घर से काफी दूर थी। 11 बजे घर से निकल कर लौटने में भी तकरीबन 11 बज जाते थे। दूसरे, कम से कम लोगों को लगा कर प्रोडक्ट निकालना शायद भास्कर ग्रुप की पालिसी है। इसका कष्ट मैं एक बार पहले भी भुगत चुका हूं, लिहाजा भ्रम की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। इसी बीच संयोग से नवभारत टाइम्स में मेरे लायक (या पत्रकारिता में मेरे बारे जो राय बनी हुई है उसके मुताबिक) एक काम निकल आया और मैं इधर आ गया।
यह तो हुई रोजी-रोजगार की बात, जिसमें अगर बताने लायक कुछ हुआ तो आगे बताता रहूंगा। अभी इस सिलसिले में सिर्फ इतना कहना है कि संजय खाती के रूप में यहां अच्छा सुनने, पढ़ने और लिखने वाले एक सज्जन मौजूद हैं, जिनसे शायद दो-चार साल साथ काम करने के बाद दोस्ती भी हो जाय। अनुराग वत्स हैं जो सबद नाम का एक साहित्यिक ब्लाग चलाते हैं। इनके पास मौजूद किताबों और फिल्मों का जखीरा देखकर खामखा की हीनभावना पैदा होती है (जैसी अक्सर प्रमोद भाई अजदक की पढ़ान और देखान से हुआ करती है)।
अगर इनके साथ से मैंने एक भी नई किताब पढ़ ली या फिल्म देख ली या सीडी सुन ली तो मानूंगा कि एक ढंग के आदमी से मुलाकात हुई, वरना जिस तरह तमाम ज्ञान के गोदाम इस बड़बोले शहर में इधर-उधर चरते-विचरते रहते हैं, वैसे ही एक मजबूरी की सोहबत यह भी ठहरेगी। अभी तक होता यही है कि ये चीजों का झरोखा दर्शन कराते हैं, जो एक कसैला सा स्वाद मुंह में छोड़कर आंखों के सामने से कहीं कहीं की कहीं चली जाती हैं।
संजय कुंदन कवि भी यहीं पाए जाते हैं। करीब बीस वर्षों के परिचित तो होंगे ही, लेकिन दूरियों-नजदीकियों में आगे भी कोई विशेष बदलाव आने के आसार नहीं नजर आते। बाकी डिपार्टमेंट में संस्थान के पुराने महारथी बालमुकुंद और संजय वर्मा हैं, जो एक तरह से मेरे लिए अभी अनएक्सप्लोर्ड टेरिटरी में आते हैं। ब्लागरों में अनुराग अन्वेषी भी इसी संस्थान में हैं जिनकी मेहरबानी से ब्लाग पर दुबारा वापसी कराने वाला यह मंगल फांट प्राप्त हुआ है। कवि यशःप्रार्थी, पूर्व सैनिक अधिकारी और पत्रकारिता जगत के उगते सितारे सुंदर ठाकुर ने मुझे नवभारत टाइम्स के न्यौते वाला फोन किया था। वे न्यूज सेक्शन में हैं और सिर्फ सिगरेट न पीने के चलते कायदे से उनके साथ छन नहीं पा रही है। बड़ी उम्मीद थी कि काफी छनेगी लेकिन ऐसी छनाई के लिए कोई छनौटा ही अभी तक नहीं मिल पाया है।
इस मीडिया ग्रुप का हल्ला बहुत सुना है। इसकी प्रसिद्धियां और बदनामियां पत्रकारिता में मौजूद हर छोरे-छोरी की जुबान पर हुआ करती हैं। इसकी टांग के नीचे से अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, कमलेश्वर, विष्णु खरे और आधुनिक हिंदी साहित्य की ज्यादातर हस्तियां निकली हैं (हल्की सी खंखार के साथ कहूं तो मैं भी अब यहीं आ गया हूं)। आशा है आगे की पोस्टों में आपको अपनी नौकरी की जगह के बारे में बता कर बोर करने का सुयोग नहीं प्राप्त होगा।
अमे कुछ ढंग की कहो, ढंग की सुनो यार....
क्या यार, अमे तुम भी..के....
अमे, जहैं देखो तहैं सुरू हो जाते हो मूं फाड़के....हैं

11 comments:

विवेक सिंह said...

अच्छा लगा आपके अनुभव पढ कर . आगे भी सुनाते रहिए .

सुनील मंथन शर्मा said...

संजय कुंदन कवि भी यहीं पाए जाते हैं। हा..हा...हा...

संगीता पुरी said...

अच्‍छा लिखा है अपने अनुभवों को।

अफ़लातून said...

चन्द्रभूषणजी ,
इतनी लम्बी चुप्पी के बाद पुनर्जागरण कि नये-नये लोग प्रोत्साहित कर रहे हैं !

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने पत्रकारिता की कथा सुना कर पुराना घाव कुरेद दिया। हम अब भी सोच रहे हैं कि 1978 में पत्रकारिता छोड़ कर वकालत में न आए होते तो न जाने कितनी दुनिया देख चुके होते।

स्वप्नदर्शी said...

badhiyaa!
chuppi tootee to!

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

उम्मीद है अब सुविधानुसार दर्शन होते रहेंगे और जीवन के अनुभव बाँटते रहेंगे।

अजित वडनेरकर said...

स्वागत है आपका। मंगल फांट तो अनुराग भाई ने दिलाया मगर कामचलाऊ इंतजाम तो हमने भी आपके लिए कर दिया था।
नवभारत टाइम्स में हमने भी दस बरस गुजारे हैं। टाइम्स हाऊस मे सुबह दस बजे की शिफ्ट में इब्बार रब्बीजी के साथ चाय की चुस्कियों के साथ कॉपी लिखना अभी तक याद है। अरुण दीक्षित के साथ तीन बजे वाली यूपी डेस्क पर भी काम किया।
आपके दिन अच्छे ही गुजरेंगे । नभाटा से हमें मायकेवाला प्यार है।
शुभकामनाएं

एस. बी. सिंह said...

स्वागत है

अभय तिवारी said...

चलिए वापसी तो की आप ने.. शुभकामनाएं!

dharmendra said...

chandrabhusan sir aapne apne bare me jo likha woh kaphi interesting hai. aap aage bhi likhte rahen yehi mai kamna kartu hun.