Thursday, May 8, 2008

ब्लॉग की रूह कहां?

पिछले साल अप्रैल में जब राहुल पांडे की पहल पर खेल-खेल में ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो इसका अकेला मकसद कविताएं लिखने का अपना शौक जिंदा रखने का था। लिखत-पढ़त की नौकरी में बाकी सारा लिखना-पढ़ना होता रहता है लेकिन कुछ रचने की बात भूल ही जाती है। संतोष है कि यहां आने के बाद तीसेक कविताएं लिखी जा सकीं। बिना मांगे अपना लिखा कहीं भेजने की मेरी आदत नहीं है और कविताएं तो मांगने पर भी नहीं भेज नहीं पाता। इसका ऐडिशनल नुकसान यह होता है कि लिखने की बाहरी प्रेरणा भी मरती जाती है। अच्छा रहा कि ब्लॉग ने मुझे अकवि होने से बचा लिया।

इसके अलावा कुछ संस्मरणात्मक पीसेज लिखे। कुछ चीजों पर प्रतिक्रियास्वरूप लिखा और इस तरह अपने भीतर मंद पड़ रहे गुस्से का कुछ हद तक पुनर्संधान किया। जीवन की दौड़ में शायद कुछ मित्र हमेशा के लिए छूट जाने की राह पर थे। ब्लॉग ने ऐसा नहीं होने दिया। वे बहुत दूर-दूर रहते हैं लेकिन निरंतर वैचारिक संपर्क के चलते हमेशा लगता रहता है जैसे बगल वाले कमरे में हैं, या बाथरूम के लिए उठकर गए हैं, दो मिनट में चले आएंगे।

कुछ नए मित्र मिले। लगा कि ये अबतक कहां थे, इतना समय गुजर गया बिना इनसे बोले-बतियाए। कुछ पुराने मित्र अनजाने में केवल भावना के धरातल पर ही मित्र रह गए थे। बहसों की तपिश में संबंधों का पुनर्संस्कार हो रहा है। कह नहीं सकता कि जब यह दुतरफा अग्निपरीक्षा समाप्त होगी, उसके बाद भी हम लोग मित्र रह पाएंगे या नहीं। न रह जाएं तो भी मुझे यकीन है कि हमारे संबंध शत्रुतापूर्ण नहीं होंगे। कोई समय आएगा जब हम किसी नए धरातल पर खड़े होकर अपनी कही बातों का आकलन करेंगे और एक-दूसरे को अपने लिए फिर से खोज निकालेंगे।

अलबत्ता इस एक साल की अवधि में दो बातें खास तौर पर बदली हैं और किसी को इन्हें ज्यादा अच्छी तरह चिह्नित करना चाहिए। एक, लगभग हर किसी के लेखन की तपिश समान रूप से कम हुई है और खरबूजे को देखकर खरबूजे के रंग बदलने की तर्ज पर नए आ रहे ब्लॉगरों में भी वैसा कुछ नजर नहीं आ रहा है। इसके चलते स्व-केंद्रित लेखन और आत्ममुग्धता की गुंजाइश बढ़ गई है। एक महीन सी रेखा भविष्योन्मुख सिंहावलोकन को अतीतोन्मुख आत्ममुग्धता से अलग करती है- क्या हम उस रेखा को लेकर पर्याप्त रूप से सजग हैं?

और दो, कुछ अत्यंत संभावनामय ब्लॉगरों में इस निजी तेवरों वाले माध्यम को अखबार और टीवी के समकक्ष एक शक्ति-केंद्रित, पूंजी-केंद्रित माध्यम बना देने की हवस उन्हें किसिम-किसिम के द्रविड़ प्राणायाम कराने की तरफ ले गई है, जिसके चलते इस माध्यम की दरिद्रता और दयनीयता अद्भुत रूप से जाहिर होने लगी है। यह कुछ-कुछ टीआरपी हथियाने की होड़ जैसा है। हर रोज किसी सस्ती सनसनी की तलाश, भले ही इसके लिए किसी को नंगा करना पड़े, किसी की पगड़ी उछालनी पड़े।

कई जबर्दस्त चीजें यहां हो सकती थीं लेकिन अपनी शुरुआती झलक दिखाकर ही वे न जाने कैसे गायब हो गईं। मसलन, जयपुर में हिंदुत्व ब्रिगेड द्वारा एक शिक्षक की पूर्वघोषित पिटाई कवर करने गए एक टीवी रिपोर्टर ने खबर के पीछे की जो खबर लिखी थी, वैसी चीजों के लिए यह माध्यम शानदार है। प्रभावी माध्यमों का जो हाल है, उसमें सारी की सारी खबरें प्रायोजित हैं। असली खबरें तो खबरों के पीछे हुआ करती हैं, जिन्हें जानने का कोई जरिया किसी के पास नहीं है। फर्जी नामों का इस्तेमाल ऐसी ही चीजों के लिए जायज लगता है, जबर्दस्ती की वितंडाबाजी के लिए नहीं।

मुझे लगता है, ब्लॉगिंग का माध्यम हमारा अनुभव संसार बढ़ाने के काम आना चाहिए। और पिछले अनुभव संसार को खंगाल कर उसमें से ऐसी चीजें निकाल लाने के भी, जो लोगों को अपनी खाल से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करें। सत्ता केंद्रित दोनों माध्यम- अखबार और टीवी- हमें सिर्फ चीजों का निष्क्रिय उपभोग करते रहने वाला सब्जीनुमा प्राणी बना देने के लिए ओवरटाइम कर रहे हैं। क्या इनके विपरीत ब्लॉग हमें ज्यादा सक्रिय, ज्यादा सजग बनाने वाले माध्यम की भूमिका निभा सकता है? दुर्भाग्यवश, यह उम्मीद लगातार बढ़ने के बजाय पिछले कुछ महीनों से लगातार क्षीण होती जा रही है।

क्या इस बीमारी का कोई इलाज है?

11 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

ठीक कहा है आपने. आपके इस चिंतन से रास्ते निकल सकते हैं.
गालिब का एक शेर याद आ रहा है-

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है.

मैथिली गुप्त said...

चंद्रभूषण जी; अभी शुरूआती दौर है. उम्मीद बचाकर रखिये.आने वाले समय मैं ब्लाग आम नागरिक की आवाज उठाने का बड़ा हथियार बनेगा. जरा रोग बढ़ने दीजिये. बढ़ा हुआ दर्द खुद ही दवा बन जायेगा.

Rajesh Roshan said...

यह तो एक दम शुरुआती दौर है, लोग यही से सीखेंगे और सच मानिये यह की तारीफ़ और काम को एक दिन आप ही लिखेंगे. आशा नही यकी है

azdak said...

तीर चलाओ, धुआंधार बरसाओ. भइया, अंधारे में अगिन सजाओ, अइसे ही छुच्‍छे काहे फोकटिया माथा बजाओ? उधारन बनने वाली पाल्‍टी बनोगे, कि कंप्‍लेनिन वाली पाल्‍टी?

Unknown said...

गुन गिनें तो एक "न पढने लिखने" की नौकरी करने वालों के लिए भी अच्छा ईजाद है (पढ़ने का) - बाकी तो समुद्र मंथन है भाईजान - पढने लिखने वालों की (सकारण) ज्यादा अपेक्षा है - सादर मनीष - राहुल पांडे जी को पाठक गणों का सलाम पहुंचाएं

दिनेशराय द्विवेदी said...

मैं मैथिली जी की बात से सहमत हूँ। हिन्दी दुनियाँ की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं मे दूसरी है। सर्वाधिक भारत में बोली जाती है। लेकिन इस के बोलने वाले लोग आर्थिक रुप से साधन हीन रहे। नतीजा देखने को मिला कि अच्छा साहित्य होते हुए भी खरीद कर पढ़ने वाले कम रहे। अब कुछ तो सम्पन्नता में वृद्धि हुई है, जिस का असर दिखाई देने लगा है। हिन्दी बोलने वालों में जैसे जैसे इन्टरनेट का प्रचलन बढ़ेगा। हिन्दी का प्रसार इस पर बहुत तेजी से होगा। अभी तो इस पर हिन्दी के साधन पैदा ही हुए हैं और विकसित हो रहे हैं।
दो-एक साल में ही तेजी से वृद्धि होगी। और अन्य माध्यमों के मुकाबले ब्लॉग काफी आगे बढ़ जाएगा।

Abhishek Ojha said...

भगवान् करें द्विवेदी जी की बात सच हो.

Udan Tashtari said...

मैथली जी और द्विवेदी जी मेरी बात कह गये हैं, पूरी तरह सहमत हूँ उनसे.

अफ़लातून said...

" क्या इस बीमारी का कोई इलाज है? "
आप इलाज ही तो कर रहे हैं ,सटीक समीक्षा द्वारा ।

अजित वडनेरकर said...

बहुत सटीक , सही लेखन।
मैथिलीजी, अफ़लातूनजी, द्विवेदी जी की बात से सहमत हूं।

Priyankar said...

दोटूक विश्लेषण . तब भी उम्मीद बनी हुई है .