पिछले तीन दिनों से लगातार ढलती उम्र वाले एक चीनी राजनेता को दुर्गम भूकंप ग्रस्त इलाकों में घूमते, दबे हुए लोगों को बचाने की कोशिश करते, उनका मनोबल बढ़ाते, सरकारी मशीनरी को चाक-चौबंद करते देख रहा हूं। तिब्बत मामले में चीन का तख्तापलट करा देने पर उतारू फ्रांसीसी और अमेरिकी मीडिया तक एक बात को लेकर पूरी तरह सहमत है कि इस असाधारण प्राकृतिक आपदा से निपटने में चीनी राज्य मशीनरी ने जो चुस्ती दिखाई है, उसकी मिसाल मुश्किल से ही मिल सकती है। इस चुस्ती के पीछे जो एक सजग चेहरा दिखाई पड़ रहा है वह चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ का है।
अकादमिक योग्यता के मामले में चीन का राजनीतिक नेतृत्व इस समय दुनिया भर में अव्वल दर्जे का है, लेकिन यह एक अलग मामला है। वेन जियाबाओ खुद प्रशिक्षित भूगर्भशास्त्री हैं, लिहाजा भूकंप जैसी आपदा के प्रबंधन में उनकी दक्षता भी स्वयंसिद्ध है। लेकिन इस आदमी की जन-सक्रियता के बारे में मैं और भी अवसरों पर लगातार पढ़ता-सुनता आ रहा हूं और मुझे लगता है कि चीनी आमजन इसके लिए पीपुल्स प्रीमियर का विशेषण यूं ही चापलूसी में इस्तेमाल नहीं करते।
इस भूकंप को ही लें तो वेन जियाबाओ की कितनी बातें हैं, जो हर जगह आपदा प्रबंधन केंद्रों में लिखकर टांगने लायक हैं- जितना भी हो सके, उतना जल्दी मौके पर पहुंचें, एक मिनट, एक सेकंड का मतलब है एक बच्चे की जान..... या फिर यह.....मलबे के नीचे अगर एक भी व्यक्ति जिंदा बचा हो तो वह इत्मीनान रखे, उसे बचाए बिना हम यहां से कहीं नहीं हिलने वाले......या फिर एक ढहे स्कूल की दरार से झांकते हुए किसी बच्चे से कही यह बात.....धीरज रखो , मैं हूं यहां, मैं, तुम्हारा बाबा वेन....
वेन जियाबाओ में कुछ ऐसी बात है जो असंभव परिस्थितियों में भी एक महादेश की महाक्रांति को बचा लेने वाले चाओ एन लाई या ल्यू शाओ ची की याद दिलाती है। हर हाल में लोगों के बीच रहना, विचारधारा को लेकर जड़सूत्री न होना लेकिन इतनी ढील भी न देना कि चालबाज लोग इसका फायदा उठा ले जाएं। विचारधारा के मामले में यह एक कसौटी है, जिसपर ज्यादा लोग खरे नहीं उतर पाते।
मैंने आज ही विकीपीडिया में पढ़ा कि वेन जियाबाओ को चीन की केंद्रीय राजनीति में ले आने वाले हू याओबांग और झाओ जियांग थे। ये दोनों ही व्यक्ति अस्सी के दशक में मेरे प्रिय राजनेता हुआ करते थे। मुझे यह बात कभी समझ में नहीं आई कि थ्येनआनमन प्रकरण में तङ श्याओ फिङ इन दोनों के खिलाफ कैसे हो गए। हू और झाओ की सोच में दिल का बड़ा दखल था, जो उनसे बाद के चीनी नेताओं में मुझे देखने को नहीं मिला। ठीक वही चीज अब वेन जियाबाओ में दिखाई देती है।
मेरे कुछ मित्र वेन जियाबाओ की इतनी तारीफ से नाराज हो सकते हैं। खासकर तिब्बत के संदर्भ में दिए गए उनके बयानों को आधार बनाकर। मैं तिब्बतियों के मौजूदा नेतृत्व को बिल्कुल पसंद नहीं करता। जो लोग अपनी जनता की तकलीफों की बात करते हैं लेकिन उसका साथ छोड़कर भाग खड़े होते हैं, जो बिना कोई श्रम किए दुनिया भर में ग्रांट बटोरते हुए महीन खाते हैं और मोटा बोलते हैं, उनके प्रति मेरे मन में कोई आस्था नहीं हो सकती। अलबत्ता मेरा यह जरूर मानना है कि चीन को तिब्बत की सांस्कृतिक स्वायत्तता को लेकर ज्यादा पहलकदमियां लेनी चाहिए और यहां की सरकार का नेतृत्व बाध्यकारी रूप से तिब्बती मूल के लोगों को ही सौंपना चाहिए।
लेकिन इस भूकंप में, इससे पहले इसी साल जनवरी की भीषण सर्दियों में और इससे भी पहले सुख-दुख के कई मौकों पर आम चीनी जनता के बीच वेन जियाबाओ की किसी घरेलू व्यक्ति जैसी मौजूदगी एक ऐसी चीज है, जिसके लिए तिब्बत मसले पर मैं आने वाले काफी समय तक इंतजार करने के लिए तैयार हूं। यह चीज मेरी नजरों में उन्हें एक अच्छा कम्युनिस्ट और एक अच्छा राजनेता ही नहीं, एक आला दर्जे का इन्सान भी बनाती है। उन्हें देखकर मैं अपनी वैचारिक आस्था में गौरव महसूस करता हूं और दिल की गहराइयों से उनके लिए लाल सलाम पेश करता हूं।
15 comments:
तीक्ष्ण दृष्टि और सटीक विश्लेषण के लिए कामरेड चंद्रभूषण को भी लाल सलाम।
कभी नक्सली रहे । क्या अब नहीं है क्या । विस्तार से बतायेगें क्या
चन्दू भाई,बहुत अच्छा लगा ये जानकर की किसी भी घटना को आप कितनी गहराई से देखते है...आपकी नज़र को सलाम
यह पोस्ट कहती है -- यहां से देखो !
देखने का यह नज़रिया मन को भाया .
पता नहीं... चीन के बारे में, और लाल सरकार के बारे में बहुत तो नहीं जानता पर इतना जानता हूँ की चीन प्रेस आजादी के इंडेक्स में १६८ में १६३ वें नंबर पर आता है. वैसे ऐसी बातें आपको बेहतर पता होंगी.
चीन के बारे में बहुत सी गलत धारणाएँ प्रचलित हैं और तिब्बत के बारे में भी। आप ने जो विश्लेषण किया है। उस के लिए धन्यवाद। इतने मानवीय और जनता के बीच के नेता के होते हुए तिब्बत की स्थिति वह नहीं हो सकती जो प्रचार में है। लेकिन हकीकत क्या है? वह कैसे सामने आए। अभिषेक जी जिस इंडेक्स का उल्लेख कर रहे हैं, उसे वही बनाते हैं जो चीन के प्रति दुराग्रही हैं।
कामरेड चंदूभाई की जय हो। सटीक विश्लेषण।
एक बात जिसकी तरफ एक भी शब्द लिखे बिना आपकी पूरी पोस्ट संकेत करती है वह यह कि आपदा स्थलों का दौरा करते हुए हमारे राजनेताओं की भी दृष्टि वैसी ही रहती जैसी वेन की है। काश...
हमारे दुष्ट राजनेता तो इसे वोट का खेल समझते हैं। कुछ लोग उड़नखटोलों में सैर का अवसर या कुछ लोग तिजौरी भरने का मौका....
ग़लत तो नहीं समझा चंदूभाई ?
बहुत ख़ूब. लिखते रहें ऐसा ही. बधाई.
प्यारे विजयबाबू, कौन क्या कहता है, इसकी चिंता छोड़कर अपना काम कीजिए। शमशेर जी पर आपकी पोस्ट का मुझे बेसब्री से इंतजार है। उतना ही, या दिल करे उससे भी तीखा लिखें लेकिन कवि और उसकी कविता को अपने दिल में थोड़ी जगह देते हुए।
चंदू जी, तिब्बत और उसके नेतृत्व को भारतीय आमजन हमेशा सहानुभूति या फिर धार्मिक आस्था के साथ देखते सुनते हैं जिसके कारण कभी-कभी पूरे परिदृश्य को उसके सही परिपेक्ष में देख पाना संभव नहीं हो पाता। ऐसे में आपका सटीक विश्लेषण चीजों को दूसरे नजरिए से देखने के लिए उकसाता है।
कठे हो भाया?
यह् पोस्ट आज पढ सका. बहुत संक्षिप्त लेकिन पैना राज्नीतिक विश्लेषण. फिर भी कहीं "राजनीतिक नेत्रित्व" की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखता..
एक ईमानदार वैयक्तिक टिप्पणी. बधाई.
कहां गायब हो भैया।
अरे जिन्हें आपकी लेखनी का चस्का है उनके लिए तो आईए।
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