Friday, April 25, 2008

मैं क्या-क्या हो सकता था

भाई अजित वडनेरकर से क्षमायाचना के साथ अपनी उल्टी खोपड़ी को लानत भेजता हूं जो, अपने साथ क्या-क्या हुआ से ज्यादा दिलचस्पी इस बात में लेने लगी है कि क्या-क्या नहीं हुआ। यानी वह, जो होना चाहता था, जिसके होने की स्थितियां भी पूरी थीं लेकिन किसी महीन-सी वजह से चीजें किसी और तरफ मुड़ती चली गईं।

याददाश्त में मेरी पहली महत्वाकांक्षा बिरहिया होने की आती है। खाली बैलगाड़ी में गाड़ीवान की जगह खड़े होकर कान में उंगली डालकर बिरहा गाना एक स्वर्गिक अनुभूति थी। इसके लिए मैंने बिरहा बनाना सीखा। तब के बनाए एक-दो छोटे-मोटे बचकाने किस्म के बिरहे अभी तक याद रह गए हैं। लेकिन यह देश-काल से कटी हुई महत्वाकांक्षा थी। शाम के वक्त गाड़ीवानों के इर्द-गिर्द पाए जाने पर घर में मार पड़ती थी और बैलगाड़ियों का वक्त भी जा रहा था क्योंकि उनकी जगह ट्रैक्टर लेने लगे थे।

क्रिकेटर बनना तो मेरे ख्याल से अस्सी के दशक में या उसके बाद जवान हुआ देश का हर व्यक्ति चाहता होगा। मैं भी चाहता था, लेकिन यह जानते हुए कि इसमें विकेटकीपर, ओपनर या स्पिनर, तीनों ही रूपों में अपना स्तर बहुत अच्छा नहीं है। लेकिन क्रिकेटर बनने का ख्वाब भी किशोरावस्था में मेरे लिए दोयम दर्जे का ही था। गांव में बहुत ज्यादा पैशनेट हो पाने की गुंजाइश उस समय किसी के लिए नहीं थी लेकिन मेरा पैशन जितना भी था वह वैज्ञानिक बनने का ही था।

अपना यह शौक पूरा करने के लिए मैंने बचपन और किशोरावस्था में बहुत सारे अजीब-अजीब काम किए, मार खाई, उल्टे-सीधे प्रयोगों की विफलता पर घंटों रोता रहा। एक बार तो रोते-रोते इस कदर आसमान सर पर उठाया कि मां ने पता नहीं कहां से खोजकर साढ़े तीन रुपये निकाल दिए कि मैं शहर जाऊं, वहां उस विज्ञान प्रदर्शनी को देखूं, जिसमें एक प्रयोग की नाकामी के चलते शामिल होने का मौका नहीं मिला, और वापसी में एक सर्कस भी देखता आऊं।

विज्ञान का यह पैशन काफी समय तक बना रहा, कुछ बदली शक्ल में आज भी बना हुआ है, लेकिन बी.एस-सी. आते-आते मुझे यह लगने लगा था कि अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो विज्ञान में सिर्फ कागज-पेंसिल से हो सकने वाला गणित ही आपके लिए खुला है, बाकी दरवाजे देर-सबेर बंद ही हो जाने हैं। इसके काफी करीब थोड़े समय के लिए एक हल्का सा झोंका फिलॉस्फर बनने का भी आया था, लेकिन फिर लगा कि एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में यह तो और भी बड़े आदमियों का खेला है।

लेकिन जरा ठहरिए, इससे पहले मैं निरंतर कलह से परेशान होकर एक दिन घर से निकल भागा और दिल्ली चला आया। यहां तो मैं कुछ भी बन सकता था। इच्छा तो ट्यूशन पढ़ाकर एडीसन किस्म की कोई चीज बन जाने की थी लेकिन वह न होता तो भी इस शहर में मैं कुछ न कुछ तो कर ही जाता। शायद मैं यहां भूख-प्यास से हलकान होकर कहीं मेहनत-मजूरी करने लगता और आज हर सुबह लंच का डिब्बा लेकर निकलने वाला फोरमैन जैसी कोई चीज होता। लेकिन दिल्ली में उस वक्त मेरी रिहाइश कुल मिलाकर बीस-बाइस दिन की ही रही, लिहाजा किस्सा आगे नहीं बढ़ा। भाई ने पढ़ाई के लिए बीच-बीच में कुछ पैसे भेजने का वादा किया और मैं कॉलेज से हटते-हटते फिर वहीं पहुंच गया।

बीस साल की उम्र सपने टूटने, शौक बिखरने और नए सिरे से जिंदगी के ठीहे तलाशने की थी। इस समय मैं कुछ भी हो सकता था। तीन महीने के अंदर मैंने बैंक की क्लर्की से लेकर आईएएस तक के इम्तहान दिए। फिर वजीफे के पैसे खत्म हो गए और ट्यूशनों के पैसे के बल पर ज्यादा कुलांचें नहीं मारी जा सकती थीं।

यहां से रास्ता राजनीति और होलटाइमरी की तरफ मुड़ा। फिर जनमत की पत्रकारिता से होते हुए ठेठ राजनीति तक पहुंच गया। शायद मैं सीपीआई-एमएल का कोई बड़ा राजनेता हो सकता था। 1992 में मैं पार्टी की बिहार स्टेट कमेटी के लिए चुना गया और कमेटी की तरफ से मुझे राज्य में सांस्कृतिक मोर्चे की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। लेकिन कुछ महीने भी नहीं गुजरे और पता चलने लगा कि नेता स्तर की राजनीति महज कार्यकर्ता स्तर की राजनीति का विस्तार नहीं होती। इस अंतर्विरोध की बारीकियां समझने का ज्यादा वक्त नहीं मिला, लेकिन इस तरफ शायद मैं कुछ ज्यादा दूर तक जा सकता था।

मेरी इच्छा इस खाके के जरिए उन सारी संभावनाओं को संवेदना के धरातल पर जीने की है, जो मुझे अपना सकती थीं लेकिन या तो मैं उनके लिए अनफिट साबित हुआ या वे मेरे लिए।

5 comments:

मैथिली गुप्त said...

आपकी इस पोस्ट को पढ़ने में एक अलग अनुभव मिला
लेकिन क्या क्या न होने की और भी बाते तो बाकी होगीं?

Sanjeet Tripathi said...

अजित जी के ब्लॉग पर जारी बकलमखुद में आपको पढ़ने का शिद्दत से इंतजार कर रहा हूं मैं।

अफ़लातून said...

अजित जी के चिट्ठे पर नहीं पढ़ना है ?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

न था मैं तो ख़ुदा था, न होता मैं तो ख़ुदा होता,
मिटाया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता.

-चंदू भाई, ज़्यादा टेंशन मत लीजिये. आप जो अभी हैं; कुछ कम नहीं हैं. हा हा हा!

Unknown said...

तीसरी कसम का राज कपूर ? - वाह - मैं तो "सीक्रेट लाईफ ऑफ़ वाल्टर मिटी" [ मुंगेरी लाल के हसीन सपने वाली] का मुरीद जैसा एक ज़माने में था - [ :-)] - मनीष