हफ्ता बीतते जेब में कुल अस्सी-बयासी रुपये बचे, जो काठमांडू से पटना पहुंचने के लिए 'जस्ट फिट' थे। त्रिभुवन युनिवर्सिटी के हॉस्टल से रोमनी भट्टराई मुझे छोड़ने के लिए चले और आखिरी आतिथ्य के रूप में मुगलाई होटल लिवाते गए। इस महिमामंडित ढाबे में खाना बासी और ठंडा था। बस के लंबे पहाड़ी सफर में मांसाहार मुझे सुरक्षित नहीं लगा, लेकिन रोमनी का कहना था कि मीट पेट में रहेगा तो जरा दम दिए रहेगा। पता नहीं क्यों खाते वक्त मुझे लगा कि यह मेरा अंतिम खाना भी हो सकता है।
बस अड्डे पर विकट कचकच मची हुई थी। शायद छठ या कोई और बड़ा त्योहार था। काठमांडू में नौकरी-चाकरी करने वाले तराई के लोग जैसे-तैसे ठुंसकर बीरगंज और वहां से अपने घर जाने के लिए उतावले थे। यहीं पहली बार मेरा साक्षात्कार मधेसियों की आत्मछवि से हुआ।
तराई में रहने वाले हिंदीभाषी नेपाली अब खुद को भारतवंशी कहने लगे हैं, हालांकि नेपाल में उनकी साझा संज्ञा 'मधेसी' ही है। बस की छत पर सामान पहले चढ़ाने को लेकर दो लोग आपस में लड़ रहे थे और सीट पर मेरी बगल में बैठे हुए सज्जन, जो खुद भी एक मधेसी ही थे, कह रहे थे- 'ई साला मधेसिया सब दुनिया में कत्तौं चला जाए, रहेगा हर जगह मधेसिए बनके।' फिर बस छूटने के ऐन पहले बस अड्डे पर रंगदारी करने वाले दो-तीन गंठे-गंठे गोरखे टाइप लोग आए और झगड़ रहे दोनों सज्जनों को गरिया-लपड़ियाकर दोनों का ही सामान बस पर से उतरवा दिया।
इस शहर में मेरा करीबी दायरा कम्युनिस्टों का ही था, लिहाजा यहां की पहाड़ी आबादी में मौजूद मैदानियों के प्रति हिकारत मुझे समझ में नहीं आई थी। यहां तक कि सद्भावना पार्टी के गजेंद्र नारायण सिंह जब नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी, दोनों में ही तराई को लेकर मौजूद उपेक्षा का जिक्र करते हुए मधेसियों के हक के लिए लंबी लड़ाई लड़ने का जिक्र कर रहे थे तो मैं उन्हें पर्याप्त गंभीरता से नहीं ले पाया था। लेकिन बस के बाहर हो रहे झगड़े और उसके समाधान को लेकर लगभग नस्लवादी तेवरों वाली मधेसी-गैर मधेसी प्रतिक्रियाओं को देख-सुनकर मुझे लगा कि काठमांडू की मधेसी संज्ञा दिल्ली की बिहारी संज्ञा से कहीं ज्यादा निम्न कोटि की है।
बस चलनी अभी शुरू भी नहीं हुई थी कि पीछे से एक सज्जन बोल पड़े, अरे भाई जरा देख लेना पंचर-वंचर तो नहीं है न। ऐसी टिप्पणियों पर ड्राइवरों को उबलते मैंने कई बार देखा है, लिहाजा बस के ड्राइवर ने जब छूटकर उन्हें गाली बकी तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। अलबत्ता बस की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, खड़खड़-भड़भड़ कुछ ज्यादा ही हो रही थी, लिहाजा थोड़ा संतोष ही हुआ कि सबसे पहले बस को लेकर ऐसा संदेह जताकर गाली खाने का सुअवसर मुझे नहीं मिला।
हिलती-कांपती बस करीब घंटे भर में काठमांडू की बत्तियों को पीछे छोड़ती हुई हाईवे पर आई और नौ बजे के लगभग ड्राइवर ने बस की भीतरी बत्तियां बुझा दीं। मैंने भी कंधे पर लटकाने वाला अपना बैग सामने वाली सीट के पीछे लगी खूंटी पर टांग दिया और अपने पैर यथासंभव फैलाकर ऊंघने लगा।
तंद्रा की कुछ लंबी-लंबी बेमतलब कुलांचें चल रही थीं, जब अचानक धड़ाके से टायर फटने की जोरदार आवाज आई। फिर अचानक रिम पर गिरी बस जमीन पर घिसटती हुई घूमी और तेज रफ्तार में बाकायदा एक चक्कर खाती हुई पलटकर खड्ड के किनारे खड़ी एक चट्टान से जा टकराई। सारा कुछ ठीक ऐसा ही हुआ या इससे कुछ अलग, मुझे नहीं पता। यह बाद में सहयात्रियों द्वारा किए गए विश्लेषणों का एक संक्षिप्त निचोड़ भर है।
मैं तो बस अपनी सीट से लुढ़ककर दूसरी तरफ की किसी सीट पर बैठे लोगों पर गिरा, जो बेचारे वहां कुचले पड़े थे। लाठीचार्जों के दौर का एक सीधा सबक उस समय भी मेरे अवचेतन में था कि जान का खतरा हो तो सबसे पहले सिर बचाना चाहिए। मैंने कुछ पकड़ने का ख्याल छोड़कर दोनों हाथों का कक्कन फंसा कर उनसे सिर और दोनों कनपटियों को ढंक लिया और बस के लुढ़कते हुए नीचे जाने का इंतजार करने लगा।
घोर अंधेरी रात में पता नहीं किस जगह पर ढही हुई मौत और जिंदगी के बीच झूलती पूरी की पूरी बस बिल्कुल खामोश। सिर्फ जहां-तहां लोहा घिसटने और शीशे चिटकने की आवाज। एक-दो सेकंड तक तो समझ में ही नहीं आया कि कोई कुछ बोल क्यों नही रहा है।
फिर लगा कि बस अब घिसट नहीं रही है, लुढ़क भी नहीं रही है, यानी कुछ उम्मीद अभी बाकी है। ठीक तभी अपने पीछे से अंधेरे में मैंने एक आवाज आती सुनी- 'अल्लाह...अल्लाह...अरे तेरी मां की...अरे तेरी बहेन की...अल्लाह...अल्लाह'। और यह विचित्र सा कलमा सुनते ही उस भयानक स्थिति में भी मुझे हंसी आ गई। सच कहता हूं, उस वक्त मुझे लगा कि मेरा जन्म ऐसे ही अवसरों के लिए हुआ है।
दरवाजे वाली दीवार फिलहाल छत बनी हुई थी। उससे अब हल्का आसमानी उजाला भी भीतर आने लगा था। हुआ कि पहला काम तो यही किया जाए कि बस का शीशा तोड़कर लोगों को बाहर निकाला जाए। अपने सामने वाली सीट से टंगा मेरा बैग फिलहाल मेरे सिर से टकरा रहा था। छूकर इत्मीनान हो गया कि यह मेरा ही बैग है। फिर लंगूरों की तरह लटकते-पटकते सामने वाले शीशे तक पहुंचा तो वह वैसे ही चिटका हुआ था। शक्लें किसी की पहचान में नहीं आईं, लेकिन कम से कम चार-पांच लोग हौसले के साथ शीशा तोड़ने में जुटे। सूटकेसों और झोलों से ठेल-ठालकर अगले दोनों शीशे मुसल्लम चकनाचूर कर दिए गए और फिर खरोंचें और मामूली टूट-फूट लिए लोग धीरे-धीरे बाहर आ गए।
बाहर का नजारा ठोस भय का था। शायद बस खड्ड में चली जाती तो भी इतना डर नहीं लगता। बस अगर इतनी खचड़ा न होती तो शायद इसकी यह दशा भी न होती। लेकिन अगर यह वाकई ठीक रहती और बीरगंज रोड की बाकी बसों जितनी रफ्तार से चल पाती तो शायद पलटने के बाद थोड़ा और घूमती। बस लगभग खड्ड के कगार पर लटकी हुई थी। दो-चार मीटर की कसर रह गई वरना पूंछ के बल यह सीधी नीची गई होती और हम लोगों की यहीं पूर्णाहुति भी हो गई होती।
हम लोग कहां हैं, यहां कितनी देर रुक पाएंगे, यहां से आगे जाएंगे तो कैसे, यह सब बताने वाला कोई नहीं था क्योंकि ड्राइवर और कंडक्टर हर दुर्घटना की तरह यहां भी हबड़-धबड़ में निकलकर सबसे पहले फरार हो चुके थे। फिर थोड़ी देर में पीछे से आने वाली दो बसों ने मेहरबानी करके कुछ-कुछ लोगों को जगह दे दी और सनम बेवफा फिल्म का नया-नया आया चाट शिरोमणि गाना- 'तू जब-जब मुझको पुकारे, मैं दौड़ी आऊं नदिया किनारे' लगातार कम से कम सौ या डेढ़ सौ बार सुनते हुए सुबह तक हम लोग बीरगंज पधार गए।
3 comments:
चन्द्रभूषण जी, आपके नेपाल संस्मरण पढ़कर मजा आ गया. और आखरी किश्त तो बोनस जैसी रही. यदि आप इसे थोडा विस्तार भी देते तो कोई हर्ज नहीं था........ हमें तो आनंद ही आ रहा था.
भाई जान बच गई अब हो जाये पार्टी,आप की यात्रा का विवरण पढा बहुत अच्छा लगा.
पढें मे तो बढ़िया लगा संस्मरण पर जब आप पर बीती होगी तब का सोच कर काँप जाते है।
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