Tuesday, April 15, 2008

काठमांड़ौ की नाचती कटोरी (नेपाल डायरी-1)

कुछ ठोस अनुभवजन्य बातें नेपाली समाज और वहां घटित ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तनों के बारे में कहने का मन है। इसके लिए दो-तीन पोस्टों की एक श्रृंखला लिखनी पड़ सकती है। मार्च 1990 में जब वहां पहला विराट जनविप्लव घटित हुआ, उसके थोड़े ही पहले से मेरा रब्त-जब्त नेपाली समाज के साथ बनना शुरू हुआ था।

1989 में आयोजित जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए नेपाली भाषा और वाम आंदोलन के महत्वपूर्ण कवि मोदनाथ प्रश्रित पटना तशरीफ लाए। उस समय 'समकालीन जनमत' में हम लोगों ने उनकी अद्भुत कविता 'नेपाली बहादुर' प्रकाशित की, साथ में भाई विष्णु राजगढ़िया द्वारा लिया गया उनका विशद साक्षात्कार भी। दरअसल, इसी सामग्री के जरिए हिंदीभाषी वाम हलकों के एक बहुत बड़े हिस्से को पहली बार यह पता चला कि पड़ोसी देश नेपाल में सचमुच रूस, चीन, क्यूबा या विएतनाम जैसी एक क्रांति घटित हो रही है।

मार्च 1990 के जनविप्लव को कवर करने शायद विष्णु राजगढ़िया को ही नेपाल भेजा जाता लेकिन उस समय वे कुछ महीनों के लिए जनमत का काम करने दिल्ली चले गए थे। उनकी अनुपस्थिति में यह जिम्मा मुझे मिला। पटना से रक्सौल पहुंचकर मैं जैसे-तैसे बीरगंज भर पहुंच पाया। वहां परिवहन ही नहीं, समूची व्यवस्था चरमराई हुई थी और बदअमली के बीच नेपाली फौज की टुकड़ियां जगह-जगह मार्च कर रही थीं।

मैंने सीमा नाके पर आवाजाही बंद होने से ठीक पहले तक अपनी तरफ से भरसक कोशिश की। और तो और, अपने पास मौजूद पूरे के पूरे पांच सौ रूपये लगाकर हवाई मार्ग से निकल लेने के जतन तक किए। लेकिन अंत-अंत तक काठमांडू पहुंचने का कोई जुगाड़ न हो सका, न ही अगले दो-चार दिनों में ऐसा कोई आगम दिखा। नतीजा यह हुआ कि एक रात रक्सौल में बिताकर बुद्धू वापस पटना लौट आए।

दूसरी बार यह मौका कुछ महीनों बाद ही मिल सका। जनविप्लव के सामने राजशाही ने- दिखावटी तौर पर ही- घुटने टेक दिए थे। संविधान सभा गठित करने की मांग उसने नहीं मानी लेकिन 1991 के शुरू प्रतिनिधि सभा चुनाव कराने की घोषणा कर दी। इस चुनाव को कवर करने के लिए, इसमें विभिन्न राजनीतिक शक्तियों का नजरिया समझने के लिए मैं काठमांडू गया, फिर वहां कुछ दिन रुककर पड़ोस के पहाड़ी जिले धादिङ के गांवों और चट्टी-बाजारों में एक-दो दिन घूमा। इस दौरान टप्पा-टोइयां बतियाने भर को नेपाली सीखी और अभी तक चल सकने वाली कुछ अच्छी दोस्तियां भी बनाईं।

लौटते वक्त रात में ऊंचे पहाड़ी रास्ते पर बस पलट गई और कई किलोमीटर गहरे खड्ड में बिल्कुल जाते-जाते रह गई तो मौत के बहुत करीब पहुंचकर बच निकलने का एक तजुर्बा भी नेपाल की धरती पर ही मिला। ऐसे मौकों पर लोग किस तरह पैनिक में आ जाते हैं और घोर आस्थावान लोग भी अपनी आस्था के साथ कैसा कमीनापन बरतने लगते हैं, यह जानकारी बोनस में मिल गई।

नेपाल के सामाजिक-राजनीतिक पहलुओं पर नजरसानी के क्रम में इन घटनाओं का थोड़ा-बहुत ब्योरा भी मैं आगे की पोस्टों में देना चाहूंगा। साथ में इतिहास बनाने वाले व्यक्तित्वों के एक झटके में पकड़ लिए गए कुछ कमजोर और मजबूत पहलुओं के बारे में भी।

बहुत सारी बातें उस समय मेरे दिमाग में सिर्फ एक सवाल की शक्ल में बनी हुई थीं। देश-वापसी के बाद मैंने अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व (महासचिव कॉ. विनोद मिश्र) से उनके बारे में कुछ सफाई चाही तो पता चला कि उनकी खुद की समझ भी द्वितीयक स्रोतों पर ही टिकी हुई थी। बाद में नेपाल पर लगातार कुछ पढ़ते-लिखते रहने के क्रम में और वहां की राजनीति पर लगातार नजर रखने वाले वरिष्ट पत्रकार साथी आनंद स्वरूप वर्मा के साथ विचार-विमर्श करते हुए कई चीजें समझ में आईं।

उस यात्रा की डायरी अभी तक मेरे पास सुरक्षित है लेकिन यादें इतनी ठोस हैं कि शायद मुझे उसकी मदद न लेनी पड़े। अभी तो इस अपेटाइजर के साथ आप बस एक-दो दृश्यों का आनंद लें।

सबसे पहले तो 'काठमांडू' का मामला दुरुस्त कर लिया जाए। यूपी-बिहार में लगभग हर जगह मंडप के लिए मांड़ौ शब्द का ही इस्तेमाल होता है। शादियां मांड़ौ या मंड़वे में होती हैं। ठेठ हैदराबादी शायर मखदूम की एक गजल में भी दो बदन प्यार की आग में चमेली के मंड़वे तले ही जलते हैं। यज्ञ जैसे आयोजनों के लिए भी लगभग हर जगह मांड़ौ ही छवाया जाता है, वगैरह। यह जो काठमांडू शहर है वह काठ के बने एक विराट मंडप के इर्द-गिर्द बसा है और उसी के नाम पर शहर का नाम शहरवासियों की जुबान से काठमांड़ौ ही निकलता है।

वामपंथी छात्रनेता रोमनी भट्टराई एक शाम मुझे काठमांड़ौ घुमाने ले गए तो मैं उसके स्थापत्य को देखकर दंग रह गया। छत के ऊपर छत वाली पगोडा शैली में बनी काठ की इस भय पैदा करने वाली इमारत के इर्द-गिर्द मोमो और चाओमीन बेचने वालों के खोमचे मधुमक्खी के छत्तों की तरह लगे हुए थे, जो ध्यान से इसे देखने भी नहीं देते थे, लेकिन इसके टोंड़े-छज्जों की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि नजर बरबस ठहर जाती थी।

हर छज्जा शेर के बदन और बाज के सिर वाले जानवर का था। यह जानवर अपनी भयानक चोंच में ऐसी नंगी औरतों को बाल से पकड़कर उठाए हुए था, जिनका कमर के नीचे का हिस्सा सांप का था। वे औरतें इस तरह उठाए जाने में निश्चय ही आनंद का अनुभव नहीं कर रही होंगी क्योंकि कलाकारों ने बड़े जतन से उनके चेहरे पर तकलीफ उकेर रखी थी।

व्याख्या के अनुसार इन छज्जों पर गरुड़ को नागकन्याओं से निपटते दिखाया गया है। शायद ये छज्जे करीब साढ़े तीन सौ साल पहले (1768-1770) गोरखा रियासत के राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा काठमांडू घाटी पर कब्जे को प्रतीकित करते हैं। गोरखे राजा खुद को विष्णु का अवतार बताते रहे हैं। गरुड़ उनका तत्कालीन राजचिह्न हो सकता है- काठमांड़ौ के छज्जों पर नागकन्याओं के मार्फत नागवंशी शासकों और किरात जातियों पर उनके कब्जे को दर्शाता हुआ।

बताया जा रहा है कि दस साल से भी ज्यादा लंबा खिंचे और पंद्रह हजार लोगों की जान के ग्राहक बने घनघोर गृहयुद्ध के बाद बैलट के रास्ते नेपाल में सत्तारूढ़ होने जा रहे माओवादियों की लाल सेना का ज्यादा बड़ा हिस्सा बौद्ध धर्म को मानने वाली लिंबू और मगर जैसी आदिवासी जातियों से ही आया है, जो पिछले कुछ वर्षों में 'हिंदू राष्ट्र' की बंदिशें ढीली पड़ने के बाद अपना धर्म बौद्ध और अपनी जाति नेवार या किरात दर्ज कराने लगी हैं। यानी प्रतीकों में कहें तो अब नागकन्याओं के बालों पर से गरुड़ की चोंच हमेशा के लिए छूट जाने का वक्त आ गया है।

बहरहाल, काठमांड़ौ दर्शन के अगले दिन साथी पत्रकार कुंदन अर्याल के साथ गिरिजा प्रसाद कोइराला (जो बाद में एकाधिक बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने- बल्कि निवर्तमान रूप में अभी भी हैं) के घर की तरफ निकला तो अचानक बादल घिर आए। चारो तरफ पहाड़ों से घिरी काठमांडू घाटी पर से तेज-तेज उड़ते हुए घने काले बादलों की तरफ देखने से पता नहीं क्यों ऐसा लगा जैसे मैं एक बहुत बड़ी कटोरी में बैठा हुआ हूं और वह कटोरी अधर में तेज-तेज नाच रही है। मैंने कुंदन से स्कूटर वहीं साइड लगाने को कहा और कुछ देर नाचती कटोरी में खड़े-खड़े चक्कर खाने के मजे लेता रहा।

5 comments:

विजय गौड़ said...

डायरी के पन्नो से नेपाल यात्रा खूब है. कोई ऎसा अनुभव जो आज की परिस्थिति पर सामयिक हो, उसे भी रक्खें तो चीजों को समझने में मद्द मिलेगी.

Sanjay Tiwari said...

यह पढ़ने के बाद बहुत कुछ कहने का मन करता है इसलिए कुछ नहीं कहेंगे.

Manas Path said...

१८ साल पहले की बात. आज तो पूरा नेपाल ही कटोरी में नाच रहा है. मैं भी आपातकाल के दौरान रिपोर्टिंग के लिए रक्सौल गया था.

अफ़लातून said...

इस दैनंदिनी की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी ।

चंद्रभूषण said...

बात ठीक अभी के माहौल से जुड़ी है इसीलिए इस मौके पर कही जा रही है। दरअसल इस कड़ी में भी और आगामी कड़ियों में भी नेपाली जनमानस के उन चेतन/अवचेतन पक्षों को समझने का प्रयास किया गया है/किया जाएगा, जो दक्षिण एशिया के इतिहास में अभी तक के सबसे रेडिकल राजनीतिक परिवर्तन का सबब बने हैं।