Wednesday, April 16, 2008

कॉ. मदन भंडारी के साथ एक शाम (नेपाल डायरी-2)

संजय तिवारी ने अपने ब्लॉग विस्फोट में पुष्प कुमार दहल 'प्रचंड' का राजनीतिक जीवन परिचय दिया है- उन आशाओं और आशंकाओं के साथ, जिन्हें हाल के चुनाव नतीजों के बाद उनसे जोड़कर नेपाल और पास-पड़ोस के देशों में महसूस किया जा रहा है। प्रचंड आज नेपाल के सर्वाधिक करिश्माई व्यक्तित्व हैं। उन्होंने दक्षिण एशिया में पहली बार एक परिवर्तनकामी विचारधारा पर आधारित लंबा गृहयुद्ध न सिर्फ लड़ा बल्कि उसे तयशुदा मुकाम तक पहुंचाया। लेकिन जहां तक सवाल नेपाल में लोकतंत्र के लिए चली लड़ाई का है तो उसमें उभरे करिश्माई व्यक्तित्वों में उनका स्थान हर हाल में तीसरा ही माना जाएगा।

इस सूची में पहला स्थान निस्संदेह बीपी कोइराला का है, जिन्होंने 1950 में राणाशाही के खिलाफ लोकतांत्रिक शक्तियों के संघर्ष का नेतृत्व किया, हालांकि इस लड़ाई का अंत वहां राजाशाही की पुनर्स्थापना में हुआ। भारत की समाजवादी धाराओं, खासकर जयप्रकाश नारायण के साथ उनका घरऊ संबंध था। उनके व्यक्तित्व के करिश्मे के बारे में अगर किसी को सबसे ज्यादा रोचक और प्रामाणिक ढंग से कुछ जानना हो तो उसे फणीश्वरनाथ रेणु की लिखी नेपाली क्रांति कथा पढ़नी चाहिए। रेणु निजी तौर पर उस लड़ाई में शामिल थे और उनकी जादुई कलम ने उस लड़ाई के जो चित्र खींचे हैं उनका कोई जवाब नहीं है। कुछ साल पहले राजकमल प्रकाशन ने इस किताब को पुनर्मुद्रित किया था, शायद आज भी वहां तलाशने से मिल जाए।

बीपी कोइराला के कैंड़े का दूसरा करिश्माई व्यक्तित्व नेपाल में 1990 में उभरकर आए वामपंथी नेता मदन भंडारी का ही माना जाता था, जिनकी 1993 में एक रहस्यमय कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई। 1990 के जनविप्लव को पूरी तरह मदन भंडारी की संगठन और आंदोलन क्षमता की ही उपज समझा जाता था। 1986 में उन्होंने भारत के नक्सली आंदोलन से प्रेरित पार्टी सीपीएन (एमएल) की कमान संभाली थी और चार साल के अंदर देश भर में संगठन का इतना मजबूत ढांचा खड़ा कर दिया था कि फरवरी 1990 में शुरू हुआ प्रदर्शनों का सिलसिला राजशाही फौज के हमलों के सामने टूट-बिखर जाने के बजाय लगातार मजबूत ही होता चला गया। अंदरखाने नेपाली कांग्रेस के लोग भी यह मानते थे कि पुरानी काट के कम्युनिस्टों या कांग्रेसी नेताओं में दमन के सामने टिकने की सलाहियत मौजूद नहीं थी।

मुझे इस बात का संतोष है कि 'जनमत' के लिए पत्रकारिता करते हुए मुझे कॉ. मदन भंडारी के साथ एक बार लंबी बातचीत करने और दो-तीन बार छिटपुट मुलाकात करने का मौका मिला।

पूरी दुनिया के वाम आंदोलन के लिए 1989 से 1992 तक का समय चरम हताशा का था। गोर्बाचेव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका की परिणति हर जगह समाजवाद की सीवनें उधड़ने के रूप में दिखाई पड़ रही थी। शुरुआत पोलैंड में कम्युनिस्ट सत्ता के विघटन से हुई। फिर दीवार टूटने के साथ ही पूर्वी जर्मनी गया। 1989 में चीन में थ्येन-आन-मन चौक पर टैंक चले। फिर एक-एक करके रोमानिया, बुल्गारिया, हंगरी, यूगोस्लाविया और चेकोस्लोवाकिया में भी भ्रष्टाचार और दमन की अकथ कथाओं के बीच समाजवाद के धुर्रे बिखरे। फिर सोवियत संघ खंड-खंड हुआ और अंत में घूम-घुमाकर कट्टरपंथी रूसी खेमेबाजों द्वारा गोर्बाचेव के अपहरण और रिहाई के साथ खुद रूसी समाजवाद का सत्यानाश हुआ।

विचारधारा की दृष्टि से इतने तकलीफदेह दौर में ही नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के महासचिव कॉ. मदन भंडारी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में समाजवादी उम्मीदों के ध्रुव तारे की तरह उभरे थे।

मुझे याद है, यह मेरी नेपाल यात्रा का तीसरा दिन था। मदन भंडारी नेपाल के सुदूर पश्चिमी जिले झापा से काठमांडू वापस लौटे थे। वहां बाघ बाजार में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के साथ सीपीएन (एमएल) के विलय से अस्तित्व में आई पार्टी सीपीएन (यूएमएल) का केंद्रीय कार्यालय था। वहीं ढलती शाम के धुंधलके में उनके साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी। दुआ-सलाम, हालचाल के बाद औपचारिक बातचीत के लिए मैंने कलम-कागज निकाला तो उन्होंने कहा, 'छत पर चलिए, वहीं आराम से बात करते हैं। अक्षरशः उतारने की कोई जरूरत नहीं है। आप मेरी पोजीशन ठीक से समझ लीजिएगा और सिर्फ मेन प्वाइंट्स दर्ज करते जाइएगा। बाद में जैसे चाहे उसे लिख लीजिएगा।'

कॉ. मदन भंडारी उस समय लगभग चालीस साल की उम्र के पकी जवानी वाले खुशनुमा आदमी थे। जेब में रखी स्टील की चुनौटी मे से मोतिहारी वाली कटुई खैनी निकाल कर हथेली पर रगड़ने के बाद चार फटका मारकर जब उसे होंठ के नीचे दबा लेते थे तो और भी खुशनुमा हो जाते थे। उनके लहजे में वैचारिक तीक्ष्णता के अलावा धरके दरेर देने वाला एक ठेठ बनारसी ठसका भी था, जो शायद बीएचयू में अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने हासिल किया था।

और सब लाइन-पोजीशन समझ लेने के बाद मैंने उनसे पूछा कि पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी तो आर्मचेयर कम्युनिस्टों की ही मानी जाती है, उससे एका कबतक चलेगा। उन्होंने कहा कि 'यह तो सही है कि उनका कोई नेता जमीन से नहीं जुड़ा है, न ही कोई होलटाइमर है, लेकिन उनमें से कई की अपने-अपने इलाकों में ईमानदार वामपंथी पहचान है। सबसे बड़ी बात यह कि हमें संघर्ष पर भरोसा करना चाहिए। संघर्ष हर किसी को बदल देता है, इन्हें भी बदल देगा।'

फिर पूछा कि राजाशाही का क्या करेंगे, कम्युनिस्ट विचारधारा में राजा के लिए जगह कहां बनती है। भंडारी बोले कि 'राजा को फौज और नौकरशाही पर से नियंत्रण छोड़ना होगा। वे एक सम्मानित नेपाली नागरिक की तरह रह सकते हैं, लेकिन ज्यादा तीन-पांच करेंगे तो हम उन्हें हटा देंगे और भारत की तरह यहां भी कोई चमार-धोबी-पासी राजा चुना जाने लगेगा।'

मुझे उनकी यह बात बहुत बुरी तरह खटकी। एक रेडिकल कम्युनिस्ट के साथ इस तरह की जातिगत शब्दावली का कोई मेल नहीं बनता था। लेकिन उस समय उन्हें टोकने के बजाय मैंने सोचा कि शायद अपनी तरफ से ये ठेठ मुहावरे में एक ऑबविअस सी बात ही कह रहे हैं, लिहाजा फाइनल कॉपी तैयार करते वक्त साक्षात्कार से इसे निकाल दूंगा।

आगे मैंने पूछा कि अगर राजा इस सब के लिए तैयार न हों और आंदोलन का ज्वार थमने के बाद शाही फौज आप लोगों पर टूट पड़े तो उससे निपटने के लिए आपकी तैयारी क्या है। उन्होंने कहा कि 'राजा बिल्कुल ऐसा कर सकते हैं, लेकिन हमें अपनी जनता पर भरोसा है। एक बार हमने उन्हें अपनी ताकत दिखा दी है, जरूरी हुआ तो आगे और भी जबर्दस्त तरीके से दिखा देंगे। जहां तक सवाल तैयारी का है तो जनता के पास लड़ने के अपने हथियार होते ही हैं। हमारे पास एक मजबूत संगठन है। लड़ाई के लिए अगर जरूरत पड़ी तो आगे और हथियार भी आ जाएंगे।'

उनकी ये बातें आंदोलन, संगठन और संघर्ष की मेरी निजी, और अपनी पार्टी की समझ से काफी अलहदा थीं। लेकिन वहां क्रॉस करने की न कोई गुंजाइश थी, न ही इसका कोई औचित्य था। इसके ठीक बाद कॉ. मनमोहन अधिकारी (जो बाद में नेपाल के अभी तक के एकमात्र वामपंथी प्रधानमंत्री बने) से भी वहीं छत पर ही बात हुई। वे नेपाल की पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी से आए हुए थे। किसी दुनिया देखे बुजुर्ग कम्युनिस्ट की तरह डिप्लोमेटिक ढंग से ही बोले, जिसमें फिलहाल याद रह जाने लायक कुछ नहीं था।

बहसें करने की गुंजाइश यूएमएल के छात्र-युवा संगठनों के नेताओं से ज्यादा बनती थी। खासकर रोमनी भट्टराई एशियन स्टूडेंट्स एसोसिएशन के महासचिव के रूप में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहते थे और बहस भी खूब करते थे। उन्होंने एक दिन कहा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां अपनी ढपली अपना राग बजाने में यकीन रखती हैं, वर्ना भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन भी नेपाल की तरह आज सत्ता के मुकाम पर पहुंच रहा होता। मैंने कहा, 'डियर रोमनी, मेरे ख्याल से ये चीजें इतनी आसान नहीं हैं, दो-चार साल नेपाल में लोकतंत्र रह जाने के बाद शायद फिर कहीं हमारी मुलाकात हो, तभी इस बारे में बात करना ठीक रहेगा।'

सड़कों पर उन दिनों हाल ही में भूमिगत हुए वामपंथी संगठन मशाल की चर्चा भी हुआ करती थी, लेकिन किसी गंभीर राजनीतिक शक्ति के बजाय मात्र एक उपद्रवी ताकत के रूप में। इसी संगठन का रूपांतरण कुछ साल बाद नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) में हुआ। प्रचंड नाम के किसी व्यक्ति को उस समय तक कोई नहीं जानता था लेकिन पुष्प कुमार दहल की बात कम्युनिस्ट हलकों में जब-तब हो जाया करती थी।

त्रिभुवन युनिवर्सिटी में चल रही एक आमसभा में नेपाली कांग्रेस का एक युवा नेता भाषण दे रहा था- 'देश के सामने तीन खतरे हैं-माले, मसाले, मंडले।' इनमें माले तो सीपीएन (यूएमएल) के लिए था, मसाले मशाल ग्रुप के लिए और मंडले राजशाही समर्थक मंडलियों के लिए, जिन्हें मंडल के नाम से जाना जाता था। नेता का दावा था कि ये तीनों समूह मिलकर राजशाही को बचाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि उसके खिलाफ संघर्ष का जिम्मा नेपाली कांग्रेसी ने अकेले दम पर संभाल रखा है।

मेरे नए-नए बने मित्र, फ्री लांस पत्रकार कुंदन अर्याल मुझे मशाल ग्रुप के दफ्तर भी लिवाकर गए। यह एक तीन मंजिला इमारत का एक कमरा भर था, जिसपर ताला पड़ा हुआ था। पान की पीकों से लाल हुई दीवारों के इर्दगिर्द चक्कर काट रहे एक नौजवान से कुछ खुसुर-पुसुर करके कुंदन ने आखिरकार मुझे मशाल के एक संपर्क सूत्र से मिलवा ही दिया।

उन सज्जन ने मुझे मशाल ग्रुप के कुछ डॉक्युमेंट्स दिए और यूएमएल के साथ अपने बुनियादी अंतरों के बारे में बताया। मुझे लगता था कि ये बिहार में सक्रिय पार्टी यूनिटी और एमसीसी किस्म के लोग होंगे- हर हाल में ठेठ चीनी ढंग से ही क्रांति करने के लिए प्रतिबद्ध। लेकिन बातचीत के बाद मेरी यह धारणा गलत साबित हुई। मुझे लगा कि नेपाल के हालात में इन लोगों की वैचारिक तैयारी बेहतर है।

आखिर यह कैसा जनतंत्र था, जिसका कोई संविधान नहीं था। जिसमें सेना और समूची नौकरशाही की वफादारी राजा के प्रति थी। जिसमें राजा के हाथ में इसका पूरा अधिकार था कि वह किसी को भी प्रधानमंत्री बना दे। संसद छह महीने के अंदर अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे खारिज जरूर कर सकती थी, लेकिन इतनी अवधि में संख्याओं का कोई भी खेल खेला जा सकता था। ऐसे जनतंत्र पर आंख मूंदकर यकीन करना, अलग से अपना कोई भूमिगत संगठन, कोई फौजी तैयारी न रखना मेरे ख्याल से सीपीएन (यूएमएल) और उसके सिद्धांतकार कॉ. मदन भंडारी की भारी भूल थी।

इस बारे में भारत वापसी के बाद जब मैंने अपनी पार्टी सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के महासचिव कॉ. विनोद मिश्र से बात की तो सबसे पहले वे इसी बात से चिंतित हुए कि कहीं वहां बातचीत के दौरान मैंने कॉ. भंडारी और यूएमएल के साथियों पर जबर्दस्ती अपनी पार्टी लाइन झाड़ने की कोशिश तो नहीं कर डाली। उन्होंने कहा कि बिरादराना पार्टियों से बातचीत की अपनी मर्यादा होती है और किसी और की लाइन में हस्तक्षेप करना इस मर्यादा का उल्लंघन समझा जाता है। लेकिन फिर- जैसी उनकी आदत थी- उन्होंने तत्काल स्थिति पर पुनर्विचार भी किया और मशाल ग्रुप के बारे में मेरे दिखाए दस्तावेजों और मौखिक रूप से दी गई अन्य सूचनाओं का एहतराम करते हुए कहा कि इस ग्रुप के प्रति भी हमें अपने दरवाजे बंद नहीं करने चाहिए।

3 comments:

अफ़लातून said...

शुक्रिया ,तवारीख़ से तार्रुफ़ कराने के लिए । सिलसिला जारी रहे ।

Sanjeet Tripathi said...

दोनो किश्त पढ़ा!!
शुक्रिया,
कृपया जारी रखें।

Priyankar said...

नेपाल सीरीज़ बहुत मनोयोग से पढ रहा हूं . सही अवसर पर सार्थक प्रस्तुति है .