Wednesday, April 16, 2008

बस की छत पर ईलू-ईलू (नेपाल डायरी-3)

ठहरने का कोई पक्का ठिकाना था नहीं। नेताओं से टाइम लिया और दस बजे के आसपास ठीहे से निकल पड़े। लेकिन बीच के बड़े-बड़े वक्फों का क्या करें। इन समयों में काठमांडू की सड़कों पर बेमतलब टहलते हुए पहला कल्चरल शॉक वहां की मांस की दुकानें देखकर लगा। अपने यहां सुअर, बकरा, मुर्गा और मछली खुले में काटकर बेचे जाते हैं लेकिन भैंस जैसे बड़े जानवर बूचड़खाने की बंद दीवारों के भीतर ही काटे जाते हैं। बड़े का मीट खरीदना हो तो आप यूं ही सड़क पर खड़े-खड़े खरीद नहीं सकते। लेकिन काठमांडू की सड़कों पर हर आठवीं-दसवीं दुकान भैंसे के मांस की थी। मोटे-मोटे हुकों पर फुल साइज कटे और उधड़े हुए भैंसे लटके नजर आते थे।

लगभग सभी चाय की दुकानों पर दो रुपये (भारतीय मुद्रा में एक रुपये साठ पैसे) में उपलब्ध दो विकल्प मौजूद थे- अल्मुनियम की गिलास में बेस्वाद मटमैली चाय, या जरा सा नमक पड़ा भैंसे का मीट उबाला हुआ पानी। मौसम गर्मी का होने के बावजूद जरा सी भी बारिश होने पर ठंड विकट पड़ने लगती थी लिहाजा एक-दो आजमाइशों के बाद मैंने दूसरा वाला विकल्प ही स्थायी रूप से अपना लिया।

इस हिंदू राष्ट्र में बेचारे भैंसों के पीछे इतनी बुरी तरह हाथ धोकर कौन पड़ा रहता होगा? पूछने पर पता चला कि बौद्ध धर्म को मानने वाली प्राचीन नेपाली नेवार जाति का बुनियादी खाना भैंसे का मांस ही है। यह सूचना भी जरा चौंकाने वाली ही थी क्योंकि बौद्ध धर्म के साथ दिमाग में अहिंसा वगैरह के पूर्वग्रह मजबूती के साथ जुड़े हुए हैं। फिर टहलते हए एक दिन तीसरे पहर मैं काठमांडू के अत्यंत पुराने बौद्ध मंदिर की तरफ चला गया। यह एक ढलान सी जगह पर बना है, जिसका नाम मुझे याद नहीं है।

भारत में तंत्र का उदय बौद्ध धर्म की महायान शाखा से हुआ बताया जाता है। एक नजर में यह एक अटपटी प्रस्थापना लगती है। बौद्ध धर्म की छवि हमारे मन में एक पाखंड विरोधी तार्किक प्रणाली की है, जबकि तंत्र रहस्यों के आवरण में लिपटी हुई विशिष्ट कर्मकांडी व्यवस्था है। यह अटपटापन काठमांडू के उस बौद्ध मंदिर के भीतर प्रवेश करने के तत्काल बाद समाप्त हो गया।

वहां ठेठ पहाड़ी नैन-नक्श वाली पीतल या कांसे की चमकती बुद्ध मूर्ति के नीचे घी की जोत जल रही थी। मूर्ति की दैनंदिन सफाई तो धर्म का हिस्सा है, लेकिन जिस दिए में अखंड जोत जलाई गई थी, उसकी सफाई शायद कई सौ साल पहले मूर्ति की स्थापना के समय से ही नहीं हुई थी। नतीजा यह था कि यह दिए के बजाय बहुत ही मोटे और बड़े काले मोमियाए खप्पर जैसा दिखने लगा था।

दिए के अलावा वहां ढेरों अगरबत्तियां भी जल रही थीं, जिनका धुआं भी शायद कई सौ साल से उस सीलन भरे गुफानुमा मंदिर में घुमड़ रहा था। अच्छा-भला आदमी मंदिर में जाते ही ट्रांस में पहुंचकर अल-बल बकने लगे, ऐसी वहां की स्थिति थी। बौद्ध धर्म का यह ठेठ नेपाली प्रकार मुझे तांत्रिक अनुष्ठानों या औघड़पंथ के बहुत ज्यादा करीब लगा।

मंदिर से बाहर निकलने के बाद जूते पहन रहा था कि पीछे से आवाज सुनाई पड़ी, हलो भाई साहब, आप इंडिया से आए हैं? मैंने घूमकर देखा तो वहां एक दुबले-पतले सांवले से नौकरीपेशा जैसे लगते सज्जन खड़े थे। बोला जी, बताइए। वे बोले, चलिए ऊपर चलकर कहीं बैठते हैं।

उन्होंने मुझे एक दिन पहले बाघ बाजार में एमाले के दफ्तर में देखा था और पता नहीं कैसे उन्हें लग गया था कि मैं उनकी बात समझ सकता हूं। नाम मुझे उनका याद नहीं रहा, लेकिन वे मुझसे बहुजन समाज पार्टी का संपर्क सूत्र और उसका लिटरेचर मिलने की व्यवस्था के बारे में जानना चाहते थे। उन्होंने बताया कि वे दलित हैं और नेपाली समाज में दलित-आदिवासी तबकों की बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद यहां की राजनीतिक व्यवस्था में उनका कोई पुर्साहाल नहीं है।

मैंने उत्सुकता जताई कि पंचायती व्यवस्था में ऐसा रहा हो, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन नई संसदीय व्यवस्था में तो अभी कोई चुनाव भी नहीं हुआ है, फिर ऐसी राय उनकी क्यों बनी हुई है। उन्होंने कहा, सब नेता यहां सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, निचली जातियों को टिकट देने या नेता बनाने की बात कहीं से भी इनके एजेंडा पर नहीं है। मेरे पास कोई तथ्य नहीं था, न कहने को कोई बात थी, सो मैं गुटुर-गुटुर उन्हें सुनता रहा। भारत में बीएसपी के केंद्रीय कार्यालय का पता-ठिकाना मेरे पास था नहीं, लिहाजा औपचारिकतावश उनके साथ नाम-पते का लिखित आदान-प्रदान किया, इस वादे के साथ कि बाद में जानकारी जुटाकर उन्हें सौंप दी जाएगी।

इन तीन-चार दिनों में बड़े नेताओं से मिलने की मेरी चाट खत्म हो चुकी थी। मधेसियों का प्रतिनिधित्व करने वाली नेपाली सद्भावना पार्टी और नेपाली वर्कर्स ऐंड पीजैंट्स पार्टी के नेताओं से अपनी मुलाकात की चर्चा मैं यहां नहीं करने जा रहा हूं, अलबत्ता मधेसियों से जुड़े एक रोचक प्रसंग का जिक्र शायद जगह मिलने पर निकल आए।

शीर्ष नेपाली कांग्रेस नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला के साथ हुई बातचीत का भी कोई टुकड़ा शायद प्रसंग आने पर उठ आए, लेकिन वे इतने डिप्लोमेटिक हैं कि मेरे अंतस पर उनकी रत्ती भर भी छाप नहीं पड़ी। अलबत्ता मनीषा कोइराला की पहली फिल्म 'सौदागर' का गाना ईलू-ईलू उन दिनों हाल-हाल में ही आया हुआ था और गिरिजा बाबू उनके ताऊ हैं, यह जानकारी ठीक उनसे मुलाकात के दिन ही प्राप्त हुई थी। नतीजा यह हुआ कि बातचीत के दौरान और इसके कई दिनों बाद तक कान में ईलू-ईलू ही गूंजता रहा।

तीन-चार दिनों में ही लगने लगा था कि काठमांडू हर मायने में किसी दिल्ली या पटना जैसा ही है, यहां रहकर नेपाली समाज की नस-नाड़ी ज्यादा पकड़ में नहीं आएगी। मैंने एमाले और नेपाली कांग्रेस के नेताओं से किसी पास के जिले के संपर्क सूत्र मांगे, जहां से चुनाव प्रचार का जमीनी हाल-चाल देखकर दो दिन में काठमांडू लौटा जा सके।

सोच-विचारकर धादिङ जाने पर सहमति बनी। निर्दलीय पंचायती व्यवस्था में वहां से चुने जाने वाले कांग्रेसी मिजाज के एक पंच और एमाले के स्थानीय कार्यालय का संपर्क सूत्र लेकर मैं वहां के लिए रवाना हुआ। काठमांडू से यह जगह करीब साठ किलोमीटर दूर है। वहां से आस-पास के गांवों में निकला जा सकता था। जिले के ज्यादातर लोग भारत में जाकर पहरेदारी या मेहनत-मजूरी करने वाले थे, लिहाजा थोड़ी-बहुत हिंदी समझ सकते थे और कुछ बातें भी उनसे कही-सुनी जा सकती थीं।

काठमांडू से धादिङ की बसें बीरगंज और काठमांडू के बीच चलने वाली डीलक्स बसों जैसी नहीं हुआ करतीं। खासकर इंटीरियर इलाकों में जाने वाली बसें तो अपनी लोकल बसों से भी ज्यादा डग्गेमार हुआ करती हैं। जैसे-तैसे एक बाजार में पहुंचने के बाद मैं पैर सीधे करने उतरा तो मेरे चढ़ने से पहले ही भीड़ ने घुसकर दरवाजा जाम कर दिया। फिर मैंने बस में जबरिया घुसने का इरादा छोड़कर दिल में दबा अपना एक बहुत गहरा अरमान पूरा करने का फैसला किया। ऊपर-नीचे फर्न जैसी घूमी हुई हरियर कचर वनस्पतियों से भरे दुर्गम पहाड़ी रास्ते में बस की छत पर बैठकर सफर करने का अरमान!

यह काम कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल था। हालत यह थी कि रास्ते के एक तरफ जितना ऊंचा पहाड़, दूसरी तरफ उतना ही गहरा खड्ड। छत पर सामान रखने के लिए बने बाड़े की छड़ें मैं मजबूती से पकड़े हुए था, फिर भी नीचे झांकने पर लगता था जैसे कोई पकड़कर बहुत बुरी तरह खींचे लिए जा रहा है। बार-बार लगता कि बस ने जरा भी झटका खाया तो मन ही मन ईलू-ईलू करते अपन लुगदी बने किसी खड्ड में पड़े होंगे और गांव-देस तक इसकी खबर पहुंचने में भी महीनों लग जाएंगे। घंटे भर में दिमाग दुरुस्त हो गया, चक्कर जाने में कई घंटे और लगे।

2 comments:

Priyankar said...

यह सोपान तो 'एडवेंचर' की दुस्साहसिक कथा का है . सच तो यह है कि जीवन अपने आप में एक बड़ी 'एडवेंचरस जर्नी' है .

दिनेशराय द्विवेदी said...

नेपाल कथा जारी रहे। बहुत कुछ नया सीखने को है।