लेखक के साथ शुरुआती मुलाकातें घटनाहीन और संवेदनाहीन थीं। उसकी कहानियों से मैं नावाकिफ था और कहानियों के अलावा जो कुछ वह लिखता था उसमें कोई गहरी बात नहीं होती थी। बातचीत शुरू हुई तो बीच-बीच में उसकी कुछ बातें पानी में मछलियों की तरह चिलक जाया करती थीं। फिर आत्मदया की घिस-घिस और खांचा भर ब्योरों के नीचे उतनी ही जल्दी वे गुम भी हो जाती थीं। साठ-सत्तर दशक की प्रयोगधर्मी भाषा की पूंजी उसके पास थी और उर्दू की सहज रवानी भी, जो जब चाहे, जहां से चाहे, कोई कहानी खींच लाती है। लेकिन उसके पास बैठना मुझे हमेशा किसी भंवर के करीब होने जैसा ही लगता था, जिसकी फ़ितरत सिर्फ आपको अपने भीतर खींचते जाने की होती है।
न जाने कितना समय इसी विचित्र से संतुलन में बीत गया। फिर तीन-चार महीने का एक छोटा सा वक्फा आया, जिसमें घटनाएं बड़ी तेजी से घटीं। पता चला कि लेखक ने बहुत साल पहले पाई-पाई जोड़कर जो प्लॉट खरीदा था, उसपर उसके रिश्तेदारों की मदद से एक अच्छा-खासा घर बन गया है। फिर यह कि लेखक के पैर में चोट लगी है। फिर यह कि वह ठीक हो रहा है। फिर यह कि लेखक की पत्नी के पैर में चोट लगी है। फिर यह कि वह भी ठीक हो रही हैं। फिर यह कि ठीक होती पत्नी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल के रास्ते में उनकी मौत हो गई।
करीब साठ की उम्र में अपने नए मकान में लेखक बिल्कुल अकेला- और कैसे-कैसे तो उसके भय! पता चला कि रिश्तेदारों ने इतना अच्छा मकान यही सोचकर बनवाया कि बुड्ढे-बुढ़िया अब कुल कितने दिन के मेहमान हैं। कि पत्नी मकान का बड़ा हिस्सा अपने जीते-जी इन्हीं रिश्तेदारों में से एक के नाम कर गई थीं। कि घर में दो कमरे अभी भी अपने पास हैं, लेकिन ऐसे लोग पता नहीं कभी सोए में गला ही न दबा दें। कि क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है कि पत्नी की वसीयत को जाली ठहराया जा सके?
फिर एक दिन लेखक ने बड़े प्यार से अपनी बेटी के बारे में बात करनी शुरू की। मैंने कहा, लगता है आपके भय गलत साबित हुए। अपने उसी रिश्तेदार की बेटी के बारे में बात कर रहे हैं न?
मुद्रा से लगा कि मेरी बात से लेखक भड़क उठेगा। कहां का रिश्तेदार, कौन उसकी बेटी। मेरी बेटी तो यहीं है, आज शाम उससे आपको मिलवाता हूं।
इस मुलाकात को लेकर मैंने कोई विशेष उत्कंठा नहीं दिखाई। प्रगल्भ किस्म के भावनात्मक रिश्ते मुझे एक अजीब किस्म की घबराहट से भर देते हैं। उन्हें लेकर मेरे मन में तरह-तरह की आशंकाएं हुआ करती हैं, जिनके जाहिर हो जाने का डर मुझे लगातार सताता रहता है। उन रिश्तों के पैराडाइम में मैं कहां फिट बैठूंगा, यह अटपटापन भी कुछ कम नहीं होता। लिहाजा अपने व्यवहार से मैं इस तरह का संकेत देने का प्रयास करता हूं कि उन गहरे रिश्तों से मुझे जितना हो सके उतना दूर ही रखो। तुमसे मेरे जैसे रिश्ते हैं वे भी कुछ कम नहीं हैं, और वे मेरे लिए पर्याप्त हैं।
फिर बेटी से मामला बेटी के ही करीब पड़ने वाली एक संभावित प्रेमिका तक पहुंच गया। पता चला कि असली मामला तो दूसरा वाला ही था और बेटी की भूमिका बाकी चीजों के अलावा इस हुस्ने-परीशां से संवाद शुरू करने के एक माध्यम की भी थी।
दुनिया और इन्सानों के बारे में आपकी अपनी समझ है। इस घटनाक्रम से लेखक के बारे में आप जो चाहें वह राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। मेरी भी इस संबंध में कोई मूल्यगत राय बनी होगी, लेकिन उसे यहां ज्यादा तवज्जो मैं देना नहीं चाहता।
अपने समाज में उम्र के लंबे फासलों वाले रिश्तों के लिए ज्यादा स्पेस नहीं है। कभी स्वार्थ तो कभी सहानुभूति के आग्रहों के साथ ये बनते हैं तो जल्द ही बिखर भी जाते हैं। लेखक के साथ भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला, जिसे समझदार लोगों ने 'गुनाह बेलज्जत' के खिताब से नवाजा। मेरी नजर रिश्तों से ज्यादा लेखक पर थी, लिहाजा इस समझदारी में मैं शामिल नहीं हूं।
काश, और लोगों की तरह लेखक को मैं जरा ज्यादा दूर से देखता तो इस घटनाक्रम से बाकी लोगों जितना ही चमत्कृत होता और शायद इसी चौंक में इस बारे में कुछ लिख भी जाता। इस काम के लिए अब लंबा इंतजार करना पड़ेगा।
अकेलेपन और निराशा के विस्तीर्ण मरुस्थल में मृग मरीचिका जैसा प्रेम का एक हल्का सा आभास भी तन-मन में कैसा रसायन रच देता है, इसकी मिसाल लेखक की हाल की रचना-प्रक्रिया है। जीवन में कभी कविताएं न लिखने वाले, हमेशा खुद को कहानियों तक सीमित रखने वाले लेखक ने पिछले दो-तीन सालों में सैकड़ों कविताएं लिखीं। इनमें कुछ झेलाऊ हैं तो कुछ सचमुच असाधारण हैं। इनका क्राफ्ट कहानियों जैसा ही है। कविता को उड़ने के लिए जिन पंखों की जरूरत होती है, उनसे लेखक की कोई वाबस्तगी नहीं है। लेकिन उम्र का उल्टा बहाव पार करते हुए प्रेम को वापस छू लेने की उत्कंठा मिट्टी में छुपे धारदार कांच की तरह जब-तब उंगलियों में खुबकर गजब ढा देती है!
धरती-आकाश के सीपी घटाटोप में
यूं ही अचानक बिजली बन कौंधते हो
तपती रेत के ढेर जैसी जिंदगी
पलक झपकते हरियाली भर देते हो
तुम खुद में चमत्कार
तुम कहां हो प्यार!
6 comments:
कथाकार-सह-कविराज रिश्तेदारों से तो हलकान थे ही और अब आप भी ?
ऐसी बातें पढ़कर बस मुक्तिबोध की यही पंक्तियां याद आती हैं कि मानवी अंतर्कथाएं बहुत गहरी हैं।
अय हय.. बहुत अच्छे.
प्रियंकर जी, कितनी अच्छी बात है कि 'कथाकार-सह-कविराज' ब्लॉग नहीं पढ़ते। और जो लोग पढ़ते हैं, उनमें बस एक-दो को छोड़कर कोई शायद ही कभी जान पाए कि ये सज्जन कौन हैं।
गुरुदेव - कहाँ कहाँ से मजनुओं के किस्से ले आते हैं - जिन भी माननीय का भी किस्सा है - लिखा बहुत मज़ेदार शैली में [पहाड़ में इसे क्वीड़ी स्टाईल कहते हैं] और अंत की कविता भी घटाटोप बढ़िया - नाम गाम को आप अपने बटुए में रखें - कभी २०-३० साल बाद शतरंज खेलते हुए कन्फुसियाएंगे तो समझेंगे - सादर - मनीष
aapne B.M dada pr achchha mja liya hai...aap kaise soch liye ki hm blog nhi padhte....nhi bhi padhte to kya B.M dada ki bat bhala kaise chhipegi....unki premika hi hme bata gyee ji...
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