चोखेर बाली पर आई यशवंत की पोस्ट के जवाब में मनीषा की पोस्ट और फिर उसपर यशवंत का जवाब पढ़ा। फिर रचना और स्वप्नदर्शी की वे उक्तियां भी पढ़ीं जिनमें उन्होंने चोखेर बाली से अपना सारा संबंध समाप्त करने और इसे सुजाता का व्यक्तिगत ब्लॉग मानने का आग्रह किया था। सभी से एक निवेदन है कि इस मामले में इतनी जल्दबाजी न बरतें।
बहस के मामले में हम हिंदुस्तानी लोग बड़े हड़बड़िए हैं और अगर बात हिंदी में कही-सुनी जा रही हो तो यह हड़बड़ियापन और बढ़ जाता है। बात अपनी भाषा में कही गई है, दिल पर लेने के इरादे से कही गई है तो दिल पर ली ही जाएगी। लेकिन क्यों न हम थोड़े आफ्टरथॉट्स के लिए गुंजाइश बनाएं?
इस संसार में ऐसी अनेक चीजें हैं, ऐसे अनेक लोग हैं, जो हमें पसंद नहीं हैं, फिर भी उनके साथ हमें रहना पड़ता है। लेकिन अगर हम दिल कड़ा करके उनके नजदीक जाएं, उनका मत सुनें, उसे समझने की कोशिश करें तो हम पहले से थोड़े बड़े, थोड़े चौड़े होकर ही लौटते हैं।
आजादी को लेकर औरतों की अपनी बंदिशें हैं और वे पुरुषों से कहीं ज्यादा हैं। लेकिन यह मानना गलत होगा कि पुरुषों की जिंदगी बंदिशों से पूरी तरह मुक्त है। जितना कुक्कुरपना झेलकर लोग फलाने सर या ढिकाने साहब बनते हैं, यहां तक कि दो जून की रोटी के लिए भी उनको जो कुछ झेलना पड़ता है, सौभाग्यवश महिलाओं की वाकफियत अभी तक उससे जरा कम ही है। पुरुषों की जिंदगी में बंदिशें न होतीं तो उनकी दारू महफिलें चार पैग के बाद किसी गंधौरे जंगल जैसा नजारा न पेश करने लगतीं।
इन बंदिशों से आजादी की एक खास धारणा हम सारे लड़के बचपन से अपने भीतर लेकर बड़े होते हैं और उसकी बानगी देखने के लिए ब्लॉग पर भड़ास से बेहतर मंच कोई और नहीं है। जिसकी गालियां हम रोज ही सुनते हैं, उसे, या उसके नाम पर किसी कुत्ते को अकेले में चार गालियां दे लेने की यह युक्ति किसी को पलायन लग सकती है, तो किसी के लिए वह कुंठामुक्त होने का अकेला रास्ता भी हो सकती है। पता नहीं इस, या न जाने किस समझ के तहत यशवंत ने पतनशीलता की एक कंसेप्ट चोखेर बाली पर दी। वह किसी को जमी, किसी को नहीं जमी। ठीक है, उसे अपने हाल पर छोड़ दें और आगे बढ़ें।
एक लिहाज से देखें तो पतनशीलता और प्रगतिशीलता की बहस अभी तक सिर्फ कुछ शब्दों के इर्द-गिर्द ही चली है। सारे गर्जन-तर्जन और भावोच्छ्वासों के बावजूद कुल मिलाकर यह एक उथली बहस ही रही है। इसमें गहराई तभी आएगी जब जीवन के ठोस अनुभवों के इर्द-गिर्द कुछ बातें हों, उनके कुछ अनखोजे आयाम खुलें, कुछ ऐसे अलग पहलुओं से उनपर विचार हो, जो इससे पहले हुआ ही न हो। इन बातों का रूप-स्वरूप क्या हो, मेरे ख्याल से इसे ग्राफ-चार्ट बनाकर समझाने की कोई जरूरत नहीं है।
संसार में ऐसा कोई बहस एक्सपर्ट, कोई बुद्धिजीवी अभी तक जन्मा ही नहीं, जो किसी सामाजिक विमर्श का खाका पहले से निर्धारित कर सके। समय के साथ यह खाका अपने आप तय होता जाता है, बशर्ते समय सचमुच इस विमर्श की मांग कर रहा हो।
चोखेर बाली को हिंदी ब्लॉग जगत का जनाना कित्ता समझा जाए, पुरुष लोग उसमें जाने से परहेज करें, ऐसा मानने की जड़बुद्धि तो मेरी नहीं है। लेकिन मुझे शुरू से ऐसा लगता रहा है कि इसे महिलाओं का ही मंच बनाए रखना ज्यादा अच्छा रहेगा। पुरुष ब्लॉगर- कम से कम कुछ समय तक- सिर्फ टिप्पणियों के माध्यम से इसमें साझेदारी करते रहें तो इसमें बुराई क्या है? स्त्री संबंधी अपने विचार व्यक्त करने के लिए उनके व्यक्तिगत ब्लॉग तो हैं ही।
ऐसा मैं एक आभासी प्राइवेसी की चिंता के लिहाज से कह रहा हूं। चोखेर बाली पर अगर सिर्फ महिलाएं नजर आएंगी तो शौकिया तौर पर ब्लॉग विजिट करने वाली गैर-ब्लॉगर लड़कियों-महिलाओं को भी थोड़ा ऐट होम लगेगा। शायद वे पहले टिप्पणियों के जरिए और फिर पोस्टों के जरिए यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराएंगी।
खास तौर पर रचना और स्वप्नदर्शी से आग्रह है कि वे रणछोड़ न बनें। हर सूरत में अपने सामुदायिक मंच को बचाने के लिए लड़ें और जैसी भी उनकी इच्छा-आकांक्षा चोखेर बाली को लेकर उसकी स्थापना के समय थी, वैसा उसे बनाने के लिए नए उत्साह के साथ समवेत प्रयास करें।
16 comments:
thank you for your post u are right but we have already clarified our exit on our personal blog
hope that suffices the issue . and before you give a tag "रणछोड़ " it would be better to understand your own authority to give tag to someone
anyways thanks for highlighting the issue
मुझे चन्द्र भूषण जी की टिप्पणी से इत्तेफ़ाक है.. सच में पहले एक जुट होना और फ़िर अचानक अलग होना.. जल्दबाजी की निर्णय लगता है...
चोखेरवाली... महिलाओं का ब्लाग ही रहना चाहिये और पुरूष वर्ग की स्वस्थ टिप्पणियों के लिये जगह रहनी चाहिये
रचना मैं कोई टैग नहीं दे रहा हूं। 'रणछोड़' कृष्ण का एक बहुत प्यारा नाम है और इसके पीछे एक पौराणिक किस्सा है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का पूरा नाम मोरारजी रणछोड़जी देसाई था, यानी उनके पिता का नाम सिर्फ रणछोड़ रहा होगा। कृष्ण का नाम रणछोड़ इसलिए पड़ा था कि वे कालयवन के साथ हुई लड़ाई में युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए थे। उन्हें दौड़ाता हुआ कालयवन एक गुफा में पहुंचा और वहां एक ऋषि के शाप से भस्म हो गया। भारत की पारंपरिक राजनीतिक शब्दावली में यह शब्द 'टैक्टिकल रिट्रीट' के लिए इस्तेमाल किया जाता है। क्या तुम्हारी टिप्पणी से मुझे अपनी आंख में कुछ किरकिरी सा महसूस हो रहा है? हां, थोड़ा सा।
you are an intellectual and i am an common blogger i want to remain the same , intellectuals can playwith words as they like for me
"रणछोड़ " simply would mean who runs away from fight
call me illiterate !! if you want to .
What a chit of an intelectual I am!
सही निवेदन. सही प्रस्थान बिंदु. अभी तो एकदम शुरुआत है..
उचित बात है चंदू भाई। सौ फीसदी इत्तफाक। मैंने आपके कहे से अपने लिए निर्देश ग्रहण कर लिए हैं। ये पूरी तरह उचित है। मैं चोखेरबाली पर अपनी उपस्थिति (अगर धकिया कर बाहर न कर दिया गया तो) टिप्पणीकार के रूप में रखूंगा। मैंने पतनशीलता पर जो कनसीव किया है, उसे भड़ास पर उदाहरणों के जरिए समझाने की कोशिश करूंगा। साथ ही, स्त्रियों की बातों को दिल पर न लूंगा।
मेरे खयाल से फिलहाल ये तीन नियम अपने उपर लागू करना पर्याप्त होगा। अगर आप कुछ और सुझाव दे सकते हों तो प्लीज, दीजिएगा, क्योंकि हम सबका मकसद एक है- एक ऐसा समाज जहां लिंग के आधार पर कोई विभेद, कोई रोबदाब, कोई उत्पीड़न प्रताड़ना न हो। और ये सभव तभी है जब हम सभी हड़बड़ा कर गरियाने के बजाय, अपनी बात मनवाने की बजाय, बहस को आगे बढ़ाएं। सबकी बात को समझने की कोशिश करें।
आभार के साथ
यशवंत
सबमिलाकर कुछ ही तो लोग हैं ब्लॉग पर जो अच्छा लिखतें है, अच्छे मुद्वों पर बहस करते हैं, ऐसे में आपसे में ही उलझ कर हम किसको नुकसान पहुंचा रहे हैं, यह ब्लॉगर को तय करने दिजीए कि वो अपने ब्लॉग को एक मंच बनाएं या फिर व्यक्तिगत रुप में लिखते रहें। मोहल्ला, भड़ास या बोलहल्ला को लेकर कभी किसी ने नहीं कहा कि इन्हें बंद हो जाना चाहिए या व्यक्तिगत रुप में चालू रहना चाहिए। ऐसे में हम सब चोखेर बाली के पीछे क्यों पड़ गए हैं। यह सुजाता जी और उनके साथियों का ब्लॉग है। हम क्या कमेंट के माध्यम से चोखेर बाली से नहीं जुड़ सके हैं क्या।
आशीष
हम समाज में बचपन से जिस तरह के कुछ मुहावरे, कहावतें सुनते बड़े होते हैं, जैसेकि-
1- औरत ही औरत की दुश्मन है
2- महिलाओं में एकता नहीं होती। वो मिल-जुलकर कोई काम नहीं कर सकतीं।
3- तिरिया चरित्रम, पुरुषस्य भाग्यम
दैवो न जानाति कुतो मनुष्य:
वगैरह-वगैरह।
इस तरह के निर्णय और व्यवहार कहीं इन कथनों को पुष्ट तो नहीं करते या कि अन्य सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से होने वाले ऐसे व्यवहार ही इतिहास में इन मुहावरों-लोकोक्तियों का रूप ले लेते हैं। ठीक-ठीक पता नहीं, कुछ कयास लगा रही हूं। लेकिन अंतत: मैं इस तरह के निर्णय के साथ नहीं हूं। अविनाश से पूछना पड़ेगा कि मोहल्ला या दूसरे कम्युनिटी ब्लॉगों को भी, जो कि जाहिर है, सिर्फ महिलाओं के कम्युनिटी ब्लॉग नहीं हैं, को भी इस तरह के मतभेदों का सामना करना पड़ा क्या।
आपकी समझदारी और रचना की तल्ख ईमानदारी दोनों अपनी जगह उचित हैं .
पर विचार-विमर्श की जगह से कहीं अधिक 'चोखेर बाली' में 'महाभड़ासी' के इनक्लूज़न द्वारा एक मज़बूत राजनीतिक ताकत बनने,और उसकी मसल पावर के सहारे ब्लॉग जगत के बाबा-टाबा टाइप धुरंधरों को ठिकाने लगा देने -- यानी ब्लॉग का गढ जीत लेने की अदम्य महत्वाकांक्षा ने 'चोखेरबाली' नामक इस परिवर्तनकारी प्रयास और स्त्री-विमर्श के उभरते मंच को विवादों के घेरे में ला दिया. असीमित महत्वाकांक्षा और जोड़-तोड़ की कारीगरी में ज़रूरत से ज्यादा विश्वास रखने वाले नए-नए उछलनकारी तत्व इससे कुछ सबक सीख पाएंगे तो निश्चय ही आगे कुछ बेहतर कर पाएंगे .
यह कुछ-कुछ कॉरपोरेट मर्जर की तर्ज़ पर हो रहा था . चोखेर बाली और भड़ास दोनों के सीईओ(अघोषित) चहक रहे थे,ताकत के मद में बहक रहे थे, जयजयकार कर रहे थे;पर एक के स्टॉकहोल्डर्स दूसरी कम्पनी की दशा-दिशा और रीत-नीत से असहमत थे .
अब बताइए जब कोई अपने ही सदस्यों के 'चोख' में 'बाली' डालकर एकांगी निर्णय ले तो दोष किसे दिया जाए ?
रंगबाज, (मैं नाम पर नहीं जा रहा हूं) क्या आपको सचमुच लगता है कि इस चिरकुट से मंच पर भी बंदे इतनी लंबी स्ट्रेटेजी बनाकर काम करते होंगे? करते हों तो इससे उन्हें मिलेगा क्या?
आपकी चिंतायें सही लगती हैं । चोखेरबाली की अभी शुरुआत है तो टीदींग प्रॉब्लम्स रहेंगे।
लेकिन ये कतई ज़रूरी नहीं कि सिर्फ महिलाओं का ही मंच हो। कोई भी संतुलन और समझदारी से भागीदारी करे.. अच्छा है । आखिर पूरी दुनिया पुरुष और औरत की है। जब मिलकर पूरी दुनिया मिलती है तो आधे पर संतोष अकेले क्यों करें। और जिस तरीके के जेंडर सिंसिटाईज़ेशन की बात हम करना चाहते हैं उसमें पुरुषों का पक्ष भी सामने आये तो बेहतर है।उनके बिना इस प्रक्रिया का कोई अर्थ नहीं।
चन्द्भभुषण,
पहले तो मै इसे रण नही समझती. दूसरा, इतना मानती हू कि बिना समझे-बूझे मै चोखेर बाली मे कूद पडी, पर बाहर सोच समझ कर निकली हू. पुरुष ब्लोगेर्स का चोखेर बाली मे रहना मेरे लिये असहमति का विषय भी नही है. यशवंत के भडासी दिशा-निर्देश से मेरी असहमति है, पर उनकी वजह से भी मै बाहर नही निकली.
मेरे पास ब्लोग के लिये बहुत ही सीमीत समय है, और उस समय का बेहतर उपयोग किस तरह हो यही मेरी सोच का केन्द बिन्दु है.
बाकी जीवन मे कई तरह के प्रयोग चलते रहते है, इसे भी इसी स्पिरिट से लिया जाय. औरत-औरत की दुश्मन ...आदि...आदि हास्यास्पद है. न सारे पुरुष, न औरते, न एक जाति, एक रंग, एक देश, के लोग सिर्फ इन बाहरी टेग्स के च्लते मतभेद से बचे है, न हम ही अपवाद बनेगे.
यात्रा भी सबसे बडी अपने भीतर ही होती है, और मंथन भी.
रचना और मेरे अलावा तरुन ने भी ब्लोग छोडा है, उसे सब भूल ही गये.
लेकिन क्यों न हम थोड़े आफ्टरथॉट्स के लिए गुंजाइश बनाएं?
बहुत अच्छी बात कही चंदूभाई आपने । यशवंत जी की पोस्ट पढ़कर मैं भी बौखला गया था। टिप्पणी भी लिख दी थी। उससे पहले ही चोखेरबाली की मेल आ गई थी, देख नहीं पाया था पर सुजाता से हुई बात और चोखेर बाली पर कुछ लिखने की मेरी इच्छा का इज़हार याद था। इस प्रकरण मे अचानक लगा कि कुछ गड़बड तो नहीं हो रही है। फिर दोपहर को एक मेल फिर मिला। तब तक आपके ही ततीजे पर पहुंच चुका था।
जल्दबाजी ठीक नहीं। बाकी स्वप्नदर्शीजी, रचनाजी, तरुण जी आदि सभी लोगों की बातें भी सही हैं।
kuchh afterthoughts
http://swapandarshi.blogspot.com/2008/02/blog-post_21.html
http://mujehbhikuchkehnahaen.blogspot.com/2008/02/blog-post_24.html
चन्द्रभूषण का ये कहना रणछोड़ न बनो चोखेर बालियों सही नहीं
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