Friday, February 8, 2008

नर का जीवन

खालिद तब गाजियाबाद के जिस घर में रहता था वहां बिल्ली ने बच्चे दिए थे। बच्चे करीब पंद्रह दिन के हो रहे थे तभी एक दोपहर घात लगाकर उसने तीन में से एक बच्चा पकड़ लिया और तोते के पिंजड़े में रखकर बस से हमारे यहां लेता आया। बच्चा बुरी तरह डरा हुआ था और शायद उसे चक्कर आ रहे थे। थोड़ी देर बाद जब पिंजड़े का दरवाजा खुला तो वह निकलकर बिस्तर के नीचे छुप गया।

वहां मेरे बेटे ने उसे पकड़ने की कोशिश की तो भागा और छिपने की कोशिश में जाकर टॉयलेट में गिर गया। बेटू चिल्लाया- पापा...मम्मी...पापा, ये टॉयलेट में गिर गया। इंदू गईं और बड़ी मुश्किल से दोनों कानों से पकड़कर उसे बाहर निकाला। उसके बाद से वह आलमारी के पीछे जाकर छिपा तो लाख कोशिशों के बाद भी वहां से निकलने का नाम नहीं लिया।

इंदू की तब रेगुलर नाइट ड्यूटी ही हुआ करती थी। बिल्ली का बच्चा शुक्रवार को आया था और शनिवार की रात जब वो खाना खाकर सोने आईं तो बोलीं कि अभी आलमारी के पीछे से निकलकर वो मुझसे छुपमछुपाई खेल रहा था। अगले दिन, इतवार को हम बच्चे को लेकर घूमने निकले तो एक मैदान में कौए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गए। बच्चा वहां इतनी बुरी तरह डरा कि हमसे एक सेकंड के लिए भी अलग होने को तैयार न हो। उसी दिन उसका नामकरण हुआ।

उसके नर या मादा होने पर किसी तरह का विचार किए बगैर उसे बिल्लो नाम दे दिया गया। जल्द ही इंदू की उसे लेकर विचित्र-विचित्र चिंताएं शुरू हो गईं। मसलन यह कि कहीं यह प्रेग्नेंट होकर न आ जाए, वरना बड़ी आफत हो जाएगी। यह चिंता निर्मूल थी क्योंकि बिल्ली-कुत्ते जैसे किसी जानवर की मैच्योरिटी एज मात्र दो-तीन महीने तो नहीं ही हो सकती।

बिल्लो मादा नहीं, नर है, इसका अंदाजा हमें काफी समय बाद हुआ, और इसमें हमारी समझदारी की कोई भूमिका नहीं थी। बिल्ली जाति के जननांग कुत्तों की तरह प्रोमिनेंट नहीं होते, इसका हमें तबतक पता नहीं था- हमारी नासमझी की एक वजह यह भी थी।

यह बच्चा बहुत छुटपन में अपनी मां से अलग हो गया था लिहाजा जिंदा रहने के लिए जिन बुनियादी प्रशिक्षणों की जरूरत होती है, वे पूरे नहीं हो पाए थे। जैसे, बिल्लियों में कुत्तों से मौजूद स्वाभाविक भय उसमें नहीं था और वह किसी कुत्ते के थूथन से अपनी थूथन मिलाकर आराम से उसके साथ हैलो-हाय कर लेता था। एक-दो कुत्तों ने जब उसकी नमस्ते का जवाब देने के बजाय छूटते ही उसे दौड़ा लिया तब धीरे-धीरे करके उसमें कुत्तों से भय विकसित हुआ।

लेकिन पता नहीं क्यों बिल्ले उसके प्रति कुत्तों जितने भी उदार नहीं थे। बमुश्किल दो महीने का होते ही जब बिल्लों ने बाकायदा गोल बांधकर उसे घेरना, दौड़ाना और काटना शुरू किया तभी हमें अंदाजा हुआ कि यह बच्चा मादा नहीं, नर है, बिल्ली नहीं, बिल्ला है। फिर उसके नाम में मौजूद एक स्वर हमने बदल दिया और बिल्लो के बजाय उसे बिल्लू कहकर बुलाने लगे।

दरअसल, अपने नए नामकरण के साथ ही बिल्लू की ट्रेजेडी शुरू हुई, जो करीब दो साल के उसके जीवन के आखिरी (?) क्षण तक जारी रही। थोड़ी सी भी जान उसमें पड़नी शुरू होती कि कोई न कोई बिल्ला आकर उसे बुरी तरह काट जाता। बेटू काल्पनिक रूप से उस खलनायक बिल्ले से लड़ते रहते- 'उसे मैं मार डालूंगा। उठाकर छत से फेंक दूंगा। बिल्लू को लड़ना सिखाऊंगा। उसे अपने साथ स्कूल ले जाऊंगा।' लेकिन न जाने कहां-कहां से एक से एक भयानक बिल्ले आते और उसे काटकर चले जाते।

एक समस्या बिल्लू के लैट्रिन करने को लेकर भी थी। पड़ोस से कोई न कोई बगावत का झंडा उठाए चला आता कि आपकी बिल्ली गंदगी कर गई है, या तो इसे बांधकर रखिए, या आकर सफाई कर जाया कीजिए। एक-दो बार किसी ने मार भी दिया। हालत यह हो गई कि दो साल बीतते-बीतते हम लोग बिल्कुल पक गए। फिर हुआ कि यह यहां रखे-रखे मर जाए, इससे अच्छा है इसे कहीं दूर छोड़ दिया जाए। शायद वहां बच जाए, या और नहीं तो आंख के सामने मरने की नौबत तो न आए।

एक दिन मैंने उसे पकड़कर एक बोरे में बंद किया। स्कूटर पर पीछे बैठकर उसे इंदू ने पकड़ा और ले जाकर बहुत दूर एक जंगली से इलाके में हम उसे छोड़ आए। कई दिन उसके बारे में सोच-सोचकर रोना आता रहा। इस समय तक खालिद ने हमारे घर के पास ही अपना घर खरीद लिया था और बिल्लू बीच-बीच में उसके घर भी चला जाया करता था। खालिद के पापा पाकीजगी-नापाकी के ख्याल से पालतू जानवरों को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लिहाजा बाहर से ही कुछ जजमानी वसूलकर बिल्लू वहां से चला जाता था। उसके परित्याग से खालिद भी हमारे जितना ही, बल्कि हमसे भी ज्यादा दुखी था।

बिल्लू को छोड़ने के चार-पांच दिन बाद हम लोग कहीं बाहर से घर लौटे तो बाहर खालिद के नाम की पर्ची लगी थी- 'बिल्लू आया था'। शाम तक हम लोगों ने देखा कि बिल्लू घर में हाजिर हो चुका था। हम लोग भावविह्वल हो रहे थे कि कहां-कहां से घूमता हुआ यह दुबारा घर वापस आ गया। स्कूटर से बोरे में बंद करके ले गए थे। रास्ते के बारे में कुछ भी नहीं पता। फिर भी कई किलोमीटर दूर से चला आया। इसके बाद से वह लैट्रिन को लेकर भी कुछ ज्यादा ही सजग हो गया था। लेकिन अपने दुर्भाग्य से पीछा छुड़ाना इन्सानों के लिए ही नहीं, जानवरों के लिए भी आसान नहीं होता।

जितने दिन वह घर पर नहीं था, बिल्ले कहीं नजर नहीं आ रहे थे। लेकिन उसकी वापसी के दो-चार दिन बाद ही इतनी बुरी तरह काटा कि पूरी खाल ही उधेड़कर रख दी। हम यही सोचते रहते कि इसने आखिर बिल्लों का बिगाड़ा क्या है जो इतनी बुरी तरह इसके पीछे पड़े हैं। यह अपना इलाका घेरने, 'टेरीटरी' बनाने का जैविक नर गुण है जो बिल्लियों की जाति में सबसे खूंखार तरीके से मौजूद होता है, इसका एहसास हमें बिल्लू के भयानक अनुभवों के जरिए हुआ।

कोई रहम नहीं, कोई बचाव नहीं। इलाका छोड़कर भाग जाना, या मर जाना, या जो भी बिल्ला अपने इलाके में आ जाए उसे भगा देने या मार डालने में सक्षम होना- किसी बिल्ले का अस्तित्व इन सीमित विकल्पों से ही संचालित होता है। बिल्लू के पास लड़ने और बचने, दोनों ही किस्म का कौशल कम था। रिफ्लेक्सेज उसके जबर्दस्त थे। इतने जबर्दस्त कि बिल्ली जाति के अलावा अन्य किसी भी जीव में शायद ही होते हों। लेकिन अपनी जाति के नरों से मुकाबला करने के लिए इतना काफी नहीं था।

बाद में नैदीन गॉर्डिमर के उपन्यास 'माई सन्स स्टोरी' में जब रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में श्वेतों के लिए संरक्षित इलाकों के बारे में कुछ इसी आशय की उपमा मनुष्य जाति के संदर्भ में पढ़ी तो एकबारगी अपने नर होने पर एक दिली हतक सी महसूस की।

अकारण यौन आक्रमण स्त्री जाति की चिरंतन तकलीफ रही है, लेकिन अकारण मार दिए जाने की विडंबना पुरुष जाति को अकेले ही झेलनी पड़ती है। बिल्लू की तरह कोई बेवजह आकर मुझे भी चीर भले न डाले लेकिन अपनी टेरीटरी घेरने की कोशिश में कोई ऐसा मर्द, जिससे मेरी कोई अदावत नहीं है, किसी न किसी बहाने से रोज-रोज मुझे मारे डालता है।

वापसी के बाद बिल्लू महीना भर भी चल नहीं पाया। कई बार कटा, कई बार पिटा, फिर एक दिन गया तो वापस नहीं आया। कई सुबहों हम लोग इधर-उधर भटकते रहे कि शायद वह कहीं दिख जाए या उसकी लाश ही दिख जाए लेकिन कुछ भी नहीं दिखा। हम उसके जिंदा होने का भ्रम पाले रहे क्योंकि एक बार लगभग असंभव स्थितियों में वह लौट आया था। फिर यही सोचकर उसे मरा हुआ मान लिया कि जिंदा होता तो अबतक लौट जरूर आया होता।

और हां, करीब चार साल पहले की यह बात है, लेकिन अपने पूरे इलाके में किसी बिल्ले के दर्शन हमें तब से लेकर आजतक नहीं हुए हैं। उनकी समस्या शायद बिल्लू के होने भर से थी और उसके जाते ही यह इलाका उनकी नजर में अपना सारा रोमांच खो बैठा है।

7 comments:

azdak said...

बावज़ूद ऐसी कहानियों के 'ज़िंदगी मेरे घर आना, ओ ज़िंदगी, ओ ओ ओ..' जैसी चिरकुटैयां भाई लोग गाते रहते हैं! कभी किसी ने किसी बिल्‍ले से पूछा है वह क्‍या गाना या सुनना चाहता है? कुरर्तुल ने भी फालतू ही 'अगले जनम मोहे बिटिया न किजौ' लिख मारी थी, यह किस्‍सा उनके मुंह पर फेंक मारे होते.. बड़ा कसाइन-कसाइन लग रहा

अफ़लातून said...

अन्दाजे बयाँ मोहक है ।

दिलीप मंडल said...

मुझे तो ये बिल्लू किसी इंसान का नाम लग रहा है। रचना की तारीफ करता हूं पर ऐसा करते हुए भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ। मन उदास हो गया चंदू जी।

Pratyaksha said...

जैक लन्डन की किताब 'कॉल ऑफ द वाईल्ड' की याद आई ।
हमने जब सालों पहले स्पित्ज़ पाला था तब ऐसे ही उसका नाम मेरे पिता ने कुंतल सिन्हा (अल्यास कोको) रखा । हर्षिल सिन्हा(मेरा बेटा ) का भाई। बाद में पता चला कि कुंतल तो कुंतला है । हम बाद में हमेशा ये मानते रहे कि इस वजह से उसे भारी आईडेंटिटी क्राईसिस का सामना करना पड़ा और मुँह पर कोको जायेगा , कोको खायेगा , ऐसा चढ़ा कि खायेगी जायेगी , उसके मरने तक हम कभी बोल नहीं पाये ।
कोको पर एक पोस्ट लिखा था यहाँ

mamta said...

आपने हमें हमारी माऊ (हमारी बिल्ली )की याद दिला दी।

स्वप्नदर्शी said...

बहुत बढिया लिखा है. कुछ रोल तो इंसान का भी है, बिल्लो को इस तरह का बनाने मे.

पारुल "पुखराज" said...

RACHANA ME BHAAV MILEY.....