पत्रकारिता में दलितों-पिछड़ों की स्थिति के बारे में दिलीप मंडल की पोस्ट सिर्फ एक हकीकत का बयान है, वह भी असलियत से काफी हल्का। सिर्फ इन जातियों से पत्रकारों का न आना ही अगर इस पेशे की समस्या होती तो इसे समाज की एक खास स्थिति का परिणाम माना जा सकता था। सचाई यह है कि लिखने-पढ़ने के इस धंधे में लगे लोग एक घनघोर वर्चस्ववादी, दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता में जीते हैं। सारे लोग ऐसे ही होते हैं, यह मैं नहीं कह रहा। लेकिन अगर वे खुद ऐसे नहीं होते तो सक्रिय या निष्क्रिय ढंग से इसे अपना समर्थन और बढ़ावा देते हैं। पांच-सात तो ऐसी चुभने वाली घटनाएं मेरी नजर के सामने हैं, जिन्हें मैं एक-एक लाइन में यहां देना चाहता हूं- वक्त कम है लिहाजा दे न पाऊं शायद-
1. अमर उजाला में काम करते हुए मेरे एक मित्र ने पत्रकारिता के एक छात्र को मेरे पास भेजा कि दलित पृष्ठभूम के प्रतिभाशाली नौजवान हैं, इनके लिए कुछ करिए। छात्र से मैं कुछ असाइनमेंट के लिए बात कर रहा था कि तभी मेरे बॉस आए (आजकल एक अखबार में वे बहुत ऊंचे पद पर हैं)। बोले, 'यार चंद्रभूषण, पता है तुम्हें ये साले चमरवे आपस में नमस्कार कैसे करते हैं? कहते हैं जय भीम!' मैं भयानक एंबरासमेंट में डूबा हुआ था। तत्काल कुछ कहते नहीं बना, जिसका अफसोस मुझे आजतक है। उस दिन के बाद से मुझे उस छात्र की शक्ल भी दिखाई नहीं पड़ी।
2. मेरे अत्यंत प्रतिभाशाली मित्र अनिल यादव (जिनकी जमीनी रिपोर्टिंग का लोहा अच्छे-अच्छे मानते हैं) , एक दिन बनारस में 'आज' अखबार में अपनी कविताएं देने गए तो वहां फीचर डेस्क के विद्वज्जनों में यही बात चल रही थी कि अब तो यादव लोग भी कविता लिखने लगे हैं। जैसे ही अनिल ने कविता बढ़ाई, लोग हा-हा करके हंस पड़े कि देखो, एक तो आ भी गए।
3. दैनिक जागरण अखबार में एक दिन ऑप-एड पेज पर एक बड़ी खबर का शीर्षक एक बयान गया, जिसके सामने बयानदाता के रूप में 'मायावती चमाइन' लिखा हुआ था। पता चला, पेज बनाने वाले लोग मजाक-मजाक में एक हेडिंग आजमा रहे थे, जो गलती से अंत तक पड़ी रह गई। बसपा का दबाव पड़ा तो कुछ दिन के लिए पेज बनाने वाला निलंबित रहा लेकिन अब वह दुबारा इस अखबार का सम्मानित कर्मचारी है।
4. अच्छे-खासे रंगे-चुंगे लोग मुसलमानों का जिक्र आते ही कटुओं को काट डालो टाइप बातें करने लगते हैं और पत्रकारिता में इसे सामान्य बात समझा जाता है क्योंकि उन्हें टोकने वाला कोई मुसलमान उनके इर्द-गिर्द होने की संभावना न के बराबर होती है।
5. अंग्रेजी पत्रकारिता हिंदी से कहीं ज्यादा सड़ियल मिजाज लेकिन ऊपरी तौर पर ज्यादा सॉफिस्टिकेटेड है, इसके लिए प्रभु चावला या तवलीन सिंह या करन थापर का लिखा-बोला वह सारा कुछ देखा जा सकता है, जहां दलित, पिछड़े या अल्पसंख्यक राजनेताओं के बारे में वे कोई बात कर रहे होते हैं। यहां करोड़ों हड़पकर एक दिन के लिए भी जेल न जाने वाले पंडित सुखराम सभी के लिए आज भी सम्मानित नेता बने हुए हैं जबकि लालू यादव और शिबू सोरेन का जिक्र आते ही ये लोग नैतिकता की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं।
कितने उदाहरण गिनाएं, आपका वक्त क्यों बर्बाद करें। दिलीप के इस निवेदन पर जरूर गौर करें कि जहां भी दलित-पिछड़े पत्रकारों को जगह देने का मौका मिले, थोड़ा रिस्क लेकर भी जरूर दें। लेकिन इससे ज्यादा जरूरी मुझे यह लगता है कि अगर आप पत्रकार हैं और आपके दायरे में लोग छूटकर किसी जाति, धर्म या क्षेत्र के खिलाफ जहर उगल रहे हों तो आप अलगाव में पड़ जाने का खतरा उठाते हुए भी इसका विरोध करें।
मैं यह बात आपको एक वास्तविक या संभावित आधुनिक मनुष्य के रूप में संबोधित करते हुए कह रहा हूं। और अगर आपको यह अच्छा नहीं लगता- दलितों-पिछड़ों के बारे में कही गई किसी भी बात को आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ बनकर ही सुनना पसंद करते हैं, यूं कहें कि अपनी उपेक्षा से जन्मी कोई परेशानी, कोई ग्रंथि, कोई कुंठा आपको इस समस्या से इसी रूप में संबोधित होने के लिए ठेलती है तो भी एक भुक्तभोगी के रूप में मैं आप से बात जरूर करना चाहूंगा। यह बात और है कि तब हमारी बातचीत किसी और मौके पर, किसी अन्य संदर्भ में होगी।
5 comments:
9o fisdi sampadak
babhan hai aur dalit patrkar jaldi
aage nahi badh sakta yeh patrkarita ka doosra pahlu hai-ambrish
आपने जो लिखा है हकीकत है। पर यह सिर्फ दलितों के साथ नहीं, किसी के साथ हो सकताहै अगर सामने वाला किसी खास क्षेत्र, वर्ग या जाति की मानसिकता से ग्रस्त है। अगर दलित भी उस स्थिति में है और सामने वाले अभ्यर्थी को सिर्फ इसलिए खारिज कर देता है कि वह सवर्ण है तो उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता है। मीडिया में ऐसे भी उदाहरण काफी मिल जाते हैं। मूल बात मानसिकता की है। आप भी इतने संस्थानों में रहे हैं, क्या आपने किसी को भी नौकरी पर रखने या उसकी सिफारिश करने से पहले यह देखा है कि वह किस जाति का है? अगर आपको अनिल यादव में कोई खास बात दिखती है तो उसकी वजह शायद उसकी जाति नहीं, योग्यता है। दूसरी बात दलित पत्रकारों की है तो यही बात महिला पत्रकारों पर भी लागू होती है। शायद ही किसी बड़े अखबार ने अपने यहां महिला पत्रकार को संपादक रखने की हिम्मत दिखाई हो। उन्हें दिखावटी पदों या खबरें निकाल लाने की योग्यता का ही समझा जाता रहा है।
आपने अमर उजाला के एक बॉस का जिक्र किया है, कहीं वे आपके टीपू सुल्तान तो नहीं?
संपादकों की स्टाइल में हड़काया। अच्छा लगा। पंजाब और वहां पूरबियों की स्थिति पर पिछले पांच सालों में कुछ काम किया है। आपके सुझाव के अनुसार उसे क्रम से ब्लाग पर रखने की कोशिश करूंगा। धन्यवाद।
चंदूभाई , आपने हमारा कहा माना और वे बातें लिख डालीं जो फुनियाते विमर्श में सामने आईं थी। दिक्कत यही है कि पढ़ेलिखे लोग पढ़ाई को लजा रहे हैं। नवागत के सामने जो शिष्टाचार उन्होने पेश किया घोर निंदनीय तो है ही साथ ही उनके मनुश्य होने पर प्रश्नचिह्न है। बावजूद इसके , मेरा मानना है कि चीज़ें बदल रही हैं, उप्र , बिहार की तुलना में पूरे देश में तेज़ी के साथ।
बिहार उप्र का पढा-लिखा तबका जितनी तेजी से इन प्रान्तों की गंदगी से घबराकर , दूर भाग रहा है, वह गंभीर खतरा है।
आखिर तो पत्रकार भी उसी समाज से आये हैं, जिस समाज में आज भी जातिवाद और क्षेत्रवाद पूरे तौर पर मौजूद है. मुम्बई में यूं ही तो नहीं हो रहा सबकुछ. दलित ही क्यों, बिहारी और पहाडी भी तो एक गाली की तरह ही इस्तेमाल होने वाले शब्द हैं. बल्कि ये कहिये कि तथाकथित पढे-लिखे लोगों में ये तमाम वाद थोडा और सुसंस्कृत रूप में हैं. समाजवादी पार्टी जो मुस्लिमों के बहुत पक्ष में दिखती है, एक कार्यक्रम में अमर सिंह के साथ पधारे नेता ने किसी वाकये पर मुसलमान शब्द को लेकर जिस तरह कटाक्ष किया कि उसे लिखना तो दूर , सोचना भी गुनाह है . इन सारी बातों के खिलाफ बोलने वाला अपने आसपास से निष्कासित कर दिया जाता है . बस चले तो हम नवजात शिशु के कानों में भी पहला शब्द यही फूंक दें कि वह सवर्ण है या दलित.
चंदू भाई - इसे वाक़यात / दृष्टांत बहुत मिलेंगे - पत्रकारिता ही क्यों, और बड़े सारे "पेशे" हैं जिनमें में कम दलित / पिछड़ी भागीदारी देखी जा रही है / जाएगी भी- ( मेरी समझ में जो है भी वह सही मायने में "दलित" नहीं है- मैं दलित के माने जात से ही नहीं बल्कि समय साधनों से भी जोड़ता हूँ उसके साथ जात मज़हब वगैरह) [१] आप जानते ही हैं सही मायने में दलित होना और बढ़ना बहुत ही मुश्किल सफर है, लगभग असंभव [२] मध्यम वर्गी शहरी / सवर्ण / मुंशी / पटवारी मानुस दलित होने का मतलब कम समझ सकता है [३] कहना कि दलित merit कम है और पत्रकारिता (या अन्य पेशे) meritocracy हैं - हास्यास्पद है - (चूंकी इस का argument बहुत ही सतही है - आप कैसे दलित प्रतिभा बना सकते हैं हमारी अपनी जैसी सामाजिक परिस्थितियों में ?- ज़ाहिर है जिस बच्चे को घर के खर्च के लिए दुनिया भर के काम करने हैं पढ़ाई के साथ साथ - कविता कहानी पढ़ कर भाषा / व्याकरण में महारत हासिल नहीं कर सकता - केवल पढ़ाई की छात्रवृत्ति से काम नहीं चलता - परिवार का) ; [४] तो अव्वल बात है कि दलित प्रतिभा को जितना साधन मिलना चाहिए उतना मुहइया नहीं होता और मजबूरियां अधिकाधिक ही होती हैं [५] फ़िर जो बाड़ फांद पाते है उनके आड़े मठाधीश महामानव आते हैं - धर्म / जात की घुट्टी "संस्कारों(?)" में इस तरह घुली मिली है - समाज में/ हम सभी के परिवारों में - पूर्वाग्रह बहुत है - जो उससे ऊपर उठे उनसा जुझारू कोई नहीं [६] सरकारी नौकरियों में आरक्षण एक तरह से साधन तो देता है पर उन सब को जिन्होंने साधन एक पीढी पहले जुगाड़े थे [७] असली दलित का भगवान् ही मालिक है [ ८] अगर हम सब समता की कसमें खाते है तो मुद्दा पत्रकारों की संवेदना से ज्यादा जुड़ना चाहिए न कि उनकी जात से - समर्थ आवाजें बनें जो समता के कदमों / संवेदनाओं को बल दें - किस जात किस मज़हब से आयें इस बात को थोड़ा पीछे धकेला जाए - [ मैं पत्रकार नहीं हूँ आप हैं ] - सादर - मनीष
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