जिस पेशे में मैं हूं, उसके प्रोडक्ट (अखबार, टीवी न्यूज वगैरह) देखने से लगता है कि देश में शुचिता और नैतिकता को बचाए रखने का ठेका उसके ही नाम पर उठा हुआ है। लेकिन इस पेशे को अपने कंधे पर उठाए हुए जिन लोगों के साथ मैं काम करता हूं, या करता आया हूं, उनका बरताव देखकर आज भी पहले दिन की तरह ही चकित हो जाया करता हूं। अच्छा-भला काम करने वाले समझदार लोग, परिश्रमी, साहसी और किसी झोंक में मौत तक से न डरने का दावा कर जाने वाले लोग बड़े प्रेम से ऊपर वालों को चाटते और नीचे वालों को काटते नजर आते हैं- भले ही इस बेढंगी कोशिश में उनके तन और मन, दोनों का ही पूरी तरह दिवाला ही क्यों न निकल जाए।
संपादक, या जो भी वरिष्ठ कुछ बनाने-बिगाड़ने की हैसियत में हुआ, वह लोगों का 'भाई साहब' हो जाया करता है। और भाई साहब भी वह ऐसा, जो पब्लिकली मां-बहन एक कर देने में कोई कोताही नहीं करता। एक बंदा तो मुझे इस पेशे में ऐसा भी मिला, जो चार लोगों के बीच बड़े गर्व से बता रहा था कि भाई साहब तो कभी मुझे नाम से बुलाते ही नहीं। फोन भी करते हैं तो यही कहकर कि अबे साले ऐसा कैसे हो गया, अबे साले वैसा कैसे होगा।
सचमुच के काबिल लोग इस पेशे में बिल्कुल हैं ही नहीं, ऐसी बात नहीं है। लेकिन आगे बढ़ने में काबलियत उनकी ज्यादा मदद नहीं कर पाती। तरक्की और इन्क्रीमेंट अक्सर करके इसी बात पर निर्भर करते हैं कि आप भाई साहब के कितने करीबी हैं। अगर आप इस कला में पारंगत नहीं हैं तो दूसरा रास्ता नौकरियां बदलने का है, लेकिन इस रास्ते के साथ एक ग्लास सीलिंग जुड़ी हुई है। जल्द ही भाई साहब लोगों के सर्किल में यह बात चल निकलती है कि फलनवां तो साला बड़ा काबिल बनता है, भरोसे का आदमी नहीं है। एक नौकरी बदलने के सिलसिले में मुझे एक-दूसरे से सख्त जलन रखने वाले दो भाई साहबों के बीच हुई इस तरह की बातचीत के बारे में पता चला था।
पहले मुझे लगता था कि ऐसा सिर्फ पत्रकारिता में, वह भी हिंदी पत्रकारिता में है, लेकिन अंग्रेजी पत्रकारिता का भ्रम भी जान-पहचान बढ़ने के साथ धीरे-धीरे टूटता गया। दोनों में फर्क सिर्फ एक है कि अंग्रेजी में पत्रकारिता बाकायदा एक सुचिंतित कैरियर है लेकिन हिंदी में यह आज भी हारे को हरिनाम जैसी चीज मानी जाती है। इसके अलावा जिस क्लास से अंग्रेजी के पत्रकार आते हैं, उसकी कड़ियां ताकतवर लोगों के साथ जुड़ती हैं। ऐसे में ऊपर बैठे लोग चार चमचे पालने, दो लड़कियां घुमाने की अपनी संचित अभिलाषा भिन्न तरीकों से पूरी करते हैं। वे ज्यादा डेमोक्रेटिक किस्म के भाई साहब दिखने का प्रयास करते हैं। जूनियर्स के साथ में हंसी-मजाक करते हैं, दारू भी पी लेते हैं, लेकिन फायदे पहुंचाने का उनका शास्त्र भी रत्ती भर अलग नहीं होता।
पत्रकारिता से गर्दन निकालकर थोड़ा-बहुत साहित्य के दायरे में झांकने का मौका भी मुझे मिला है, लेकिन वहां का हाल पत्रकारिता से ज्यादा बुरा है। दंतकथाओं से पता चलता है कि हिंदी साहित्य के ऊपरी सबलाइम दायरे में चमचागिरी अपेक्षाकृत हाल की चीज है। जो साहित्यिक पीढ़ी स्वाधीनता आंदोलन से जन्मी थी, उसकी अपने चेलों से चमचागिरी के अलावा कुछ बड़ी अपेक्षाएं भी थीं। चेलों ने कुछ हद तक इन्हें पूरा भी किया। लेकिन इज्जत, शोहरत और थोड़ा पैसा हाथ आ जाने के बाद सपनों में बसी एक छवि उनकी आंखों के आगे घूमने लगी। लंबी घुमावदार निगाली से हुक्का गुड़गुड़ाते, जांघ तक धोती खिसकाकर किसी लौंडे से पांव दबवाते, पंखा झलती छोटी ठकुराइन के हाथ से मुंह में दी गई गिलौरी दबाए, चार लगुओं-भगुओं की मूर्छनाभरी आह-वाह के बीच गालिब की गजल टेरती किसी मॉडर्न कस्बिन की अदाओं पर निछावर होते एक छोटे-मोटे जमींदार की मनोहारी छवि।
सारे सपने भला किसके पूरे होते हैं, लिहाजा पत्रकारिता और साहित्य के भाई साहबों का भी यह सपना अवचेतन में ही दबा रह जाता है। लेकिन ईश्वर ने जिस भी हद तक इसे पूरा कर पाने की हैसियत बख्श दी है, उस हद तक भी भला इसे पूरा क्यों न किया जाए। नतीजा यह होता है कि किसी ड्रैकुला की तरह वे अपने मातहतों की गर्दन पर अपने नुकीले दांत धंसाकर उन्हें भी ड्रैकुला बनने की राह पर धकेल देते हैं। नए लोग, पुराने सपने। जब बड़े भाई साहब कहीं और रहते हैं तो छोटे भाई साहबों के बीच चलने वाली दरबारी सियासत के दांव-पेच देखने लायक होते हैं। बड़े भाई साहब किसी सर्वज्ञ की तरह इसपर नजर रखते हैं और जब किसी छोटे भाई साहब के ज्यादा दांत ज्यादा नुकीले होने लगते हैं तो उनके ऊपर किन्हीं और छोटे भाई साहब को हुलकार देते हैं।
मैं नहीं जानता कि बुद्धि, ज्ञान और रचनात्मकता से जुड़े इन दोनों पेशों के अलावा बाकी पेशों में तरक्की और इन्क्रीमेंट का कौन सा शास्त्र काम करता है। लेकिन स्वतंत्र पेशों और बंधे-बंधाए ढर्रे वाली सरकारी नौकरियों को छोड़ दें तो अपने दायरे में आने वाले बाकी धंधों में भी हाल ज्यादा अलग नजर नहीं आता। मुल्क की तरक्की के साथ हमारे पास थोड़े पैसे आ गए हैं, उन पैसों से आने वाली स्लीक किस्म की तमाम मशीनें वगैरह आ गई हैं, लेकिन इन चीजों से जुड़े तमाम आधुनिक पाखंडों के बावजूद अपने मन के दायरों में हम आज भी पहले जैसे ही हैं। सर्वव्यापी चमचागिरी से बेहतर इस बात का प्रमाण और भला क्या हो सकता है?
5 comments:
NDTV India से इस्तीफा देते वक्त मैंने आखिरी मेल में लिखा था कि, "इस अहसास के साथ यहां से जा रहा हूं कि feudal remnants अब भी हमारे समाज में हावी हैं और genuine democracy के लिए अभी बहुत संघर्ष करना पड़ेगा।"
आप बता रहे है कि अंग्रेजी में भी यह रोग है। पहले तो मुझे लगता था कि यह मूलत: हिंदी पत्रकारिता की बीमारी है।
विश्व्विधालयो और जाने माने वैग्यनिक सन्धानो का भी यही हाल है. उपर से लड्कियो के लिये और ज्यादा मुशिबत. आप बहुत लायक य मेहनती है, तो वो मेहनत भी "भाई-साहेब" के चमचो के हिस्से मे आये. सर्कस के बन्दर बन जायो, और नये बन्दर तैयार करो? नौकरी के इंटरवीव मे जाओ, तो सवाल है कि लड्कियो को तो घर चलाना नही है, फिर लडको की नौकरी क्यो छीन रही है?
बहुत नालायक है, तो अच्छी ग्रहणी बन कर दफ्तर मे सब के लिये कुछ खाने-पीने का सामान बना कर ले जाओ, अमुक को भाई, फलाने को प्रेमी, और सारी रिस्तेदारिया फैला दो.
बायोलोजी के किसी भी विभाग मे लडको के मुकबिले लड्किया दोगुनी है, पर किसी भी संस्थान मे शायद ही एक 20% हो.
अपने आदर्श वाद और देश्भक्ती को ताक पर रख कर मुझे हिन्दुस्तान छोडना पडा. थेसिस खत्म करते हुये मुझे धमकी भी मिली थी " लड्कियो को इतना गरूर अच्छा नही, थेसिस तो हो जायेगी, पर आगे सडक मिलेगी...(नौकरी नही)"
खैर अपनी गली मे गुल्मोहर की छाव न हो, तो गैर की गली मे उसकी तलाश करना ही मुझे बेहतर लगा
हो सकता है मैं पूरी तरह ग़लत हूँ और बहक कर बहुत बड़ी बात कर रहा हूँ लेकिन कई बार लगता है कि चापलूसी टिपिकल हिंदू चीज़ है. शास्त्रों में दो देवताओं, दो ऋषियों का संवाद पढ़िए, आप महान हैं, नहीं आप महानतर हैं, नहीं आप तो महानतम हैं..काम की बात अंत में होती है. यह बीमारी दिल्ली में ज्यादा दिखती है क्योंकि मलाई यहाँ ज्यादा है लेकिन वैसे भी हीं हीं खीं, सर जी तुस्सी ग्रेट हो कल्चर हमारे यहाँ उतना ही गहरा है जितना हमारा जातिवाद वगैरह...बहुत कम लोग हैं जो इसका प्रतिकार करते हैं...इसी असली परीक्षा तब होती है जब हम-आप सचमुच भाईसाहब बन जाते हैं...दमघोंटू है सब कुछ, इसमें क्या शक हो सकता है...
हम गुलामी का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। ये सिर्फ हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता तक ही नहीं है। कहीं भी और कभी भी -- एक नजर डालिए
http://batangad.blogspot.com/2007/05/blog-post_27.html
मुझे तो लगता था कि यह चमचागिरी कुछ ही संस्थानों की बीमारी है..लेकिन आपने सच को सामने कर दिया...मैं अनामदास जी से सहमत हुआ जाता हूँ.
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