Tuesday, January 15, 2008

ग्यारह गोलियां

कल शाम मन कैसा-कैसा हो रहा था। घर निकलने से पहले मित्र अरिहन जैन कैंटीन की तरफ लिवाते गए। वहीं एक अनजाने से नंबर से एसएमएस आया- 'अबरपुल के कॉमरेड सुफियान नहीं रहे। अपराधियों ने गोली मार दी।' पलटकर फोन किया तो लगातार इंगेज। ऐन स्कूटर स्टार्ट करते वक्त फोन बजा। उठाया तो पता चला सुनील हैं- नंबर कुछ और हो गया है। फिर उन्होंने विस्तार से बताया कि सुफियान अपनी दुकान के सामने कैरम खेल रहे थे, तभी नौशाद गैंग के लोगों ने आकर उनपर गोलियों की बारिश कर दी। स्पॉट डेथ हुई। पोस्टमॉर्टम में ग्यारह गोलियां बदन से निकलीं।

मोहम्मद सुफियान भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा में लगभग अपने बचपन से ही सीपीआई-एमएल लिबरेशन के कार्यकर्ता थे। मेरे निजी मित्र तो वे थे ही। आरा में जब पार्टी का काम शुरू हुआ तो दर्जी यूनियन और बक्सा मजदूर यूनियन ही इसका आधार बनी। संयोगवश इन दोनों ही यूनियनों में बहुसंख्या मुस्लिम मजदूरों की थी। सुफियान के पिता खुद भी दर्जी थे, हालांकि उनके पास अपनी दुकान नहीं थे। वे और शहर में काम करने वाले ढेरों अन्य अनपढ़ बाल मजदूरों की तरह उनके अकेले बेटे सुफियान थोक में कपड़ा सिलने वाली एक दुकान पर काम करते थे। आंदोलन बढ़ा तो मजदूरों की कुछ मांगें मानी गईं, लेकिन इसका नेतृत्व कर रहे सारे लोगों को काम से हटा दिया गया।

तब से जीविका के लिए न जाने कितने छोटे-मोटे धंधे सुफियान ने किए। उनका आखिरी काम एक सैलून खोलने का था, जिसका फीता न जाने क्या सोचकर उन्होंने मुझसे ही कटाया था। उनके सैलून में बाल कटाने वाला पहला व्यक्ति भी मैं ही था। सुनील ने बताया कि इस बार आरा में हुए नगर निगम चुनाव में सुफियान अबरपुल इलाके के वार्ड कमिश्नर चुने गए थे। शायद यह उनका पहला ही चुनाव रहा हो, क्योंकि जबतक मैं आरा में था, तबतक तो यह कल्पना भी करना कठिन था कि सुफियान कभी चुनाव लड़ेंगे।

एक अद्भुत जुझारूपना सुफियान की पहचान हुआ करती थी। वे साथ हों तो किसी से भी भिड़ा जा सकता था- चाहे वह कोई उन्मादी भीड़ हो या अपनी अफसरी के गुमान में फूला कोई पुलिस अफसर। आरा के झोपड़िया स्कूल के सामने गद्दार विधायक श्रीभगवान सिंह का विरोध करते हुए अपने बीस साथियों के साथ मैं और सुफियान भी साथ-साथ जेल गए थे। वहां किसी बात पर झड़प के दौरान जेलर ने सुफियान को घुटना मार दिया था। इसके विरोध में और व्यवस्था से जुड़े कई मुद्दे उठाते हुए हम लोगों ने जेल में भूख हड़ताल की, जिसमें जेल के तीन चौथाई से ज्यादा लोग शरीक हुए।

एक बार चुनावी माहौल में अपनी पार्टी का टेंपो डाउन देख मैं दोनों हाथों में अपना सिर थामे बैठा था, तभी सुफियान आए और मुझपर बिल्कुल बरस पड़े। उन्होंने कहा कि ऐसा करके आप बिगड़ी हालत को और बिगाड़ रहे हैं। मुझे नहीं पता कि हर हालत में भिड़ने, मुकाबला करने की उनकी उस जिद और मस्ती का हाल अभी कैसा था। आखिर अब वे कोई बाल मजदूर नहीं, एक सैलून के मालिक और वार्ड कमिश्नर थे। लेकिन ऐन लोहड़ी की ठंडी रात सुफियान अपनी दुकान के बाहर कैरम खेलते हुए मारे गए, इससे लगता यही है कि बीच के चौदह सालों ने उन्हें भीतर से बहुत ज्यादा नहीं बदला था।

सुफियान को इस तरह याद करना मेरे लिए बहुत अटपटा है। समय की एक चौदह साल मोटी धुंधली दीवार मुझे अपने उस होने से अलगाए हुए है, जिसमें सुफियान और बहुत सारे ऐसे लोग थे, जिनके बिना अपना होना तब नामुमकिन लगता था। यह ध्रुवीय इलाकों में सफर कर रहे अभियान दल के लोगों के बरताव जैसा है, जो अपने पैरों की मर चुकी उंगलियां हथौड़े से तोड़कर आगे बढ़ जाते थे। सुफियान जैसा अपना टूटा हुआ सुन्न अंगूठा हजार मील दूर से निहारते हुए कहीं पहुंचने, कोई मुकाम सर करने जैसी कोई बात अगर अपने जेहन में होती तो लिखना शायद इतना अटपटा नहीं लगता।