दिलीप मंडल ने कई ब्लॉगों पर प्रकाशित अपने एक लेख में भारतीय समाज के जिस दा विंची कोड की खोज की थी- और जिसका लिंक उन्होंने विवेकानंद पर अपने शानदार पीस में आज एक बार फिर दिया है- उसे पढ़ने का मौका मुझे प्रकाशन के कुछ दिन बाद मिला। फिर गाड़ी किसी और तरफ बढ़ गई और उसपर जो बात करनी थी वह मन में ही रह गई।
एक-दो तथ्यात्मक भूलें सुधार ली जाएं। भारत के औपनिवेशिक ढांचे में उच्च शिक्षा के माध्यम को लेकर 1830 के मध्य में जो बहस चली थी, उसमें भारतीय समाज की कोई सक्रिय भागीदारी नहीं थी। न सवर्णों की, न ही अवर्णों की। वह पूरी तरह यूरोपीय बहस थी, जिसका प्रतिबिंबन भारत में एक तरफ ग्रांट और मैकाले कर रहे थे तो दूसरी तरफ प्रिंसेप, जिन्हें बनारस के पुनरुद्धार का श्रेय देते हुए हाल में ही कई टीवी चैनलों ने जैजैकार का पात्र समझा है। विद्वज्जन इसे ओरिएंटलिज्म बनाम ऐंग्लिसिज्म (प्राच्यवाद और आंग्लवाद) के बीच की बहस करार देते हैं।
फिलस्तीनी मूल के अमेरिकी चिंतक एडवर्ड सईद ने अपनी मशहूर किताब 'ओरिएंटलिज्म' में इस धारणा की ऐसी-तैसी कर दी कि ऐंग्लिसिज्म तो अपने समय में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रतिनिधित्व करता था, जबकि ओरिएंटलिज्म सांस्कृतिक वैविध्य के पक्ष में खड़े होते हुए पूर्वी समाजों की बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था। हकीकत यही है कि ये दोनों विचारधाराएं यूरोपीय साम्राज्यवाद की देन थीं। एक पूर्वी संस्कृति को कुछ पवित्र दायरों में बंद करके उसे अजायबघर की चीज बनाने में यकीन रखती थी तो दूसरी ऐसे बेकार के कामों में साम्राज्य का एक धेला भी खर्च नहीं करना चाहती थी। उसकी चिंता इस पैसे के सदुपयोग की थी जो अंग्रेजी पढ़ाकर सस्ते क्लर्क बनाने के जरिए ही संभव था।
यह भी गौरतलब है कि उस समय भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देसी आधारभूमि की तरह काम करने वाला बंगाली ब्राह्मण और कायस्थ समाज ऐंग्लिसिज्म की तरफ बुरी तरह झुका हुआ था। मैकाले के बहुचर्चित 'मिनट' पर जिस गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने एक झटके में मोहर लगाई, वे काफी समय से खुद भी इसी विचारधारा के तहत काम कर रहे थे और 'ब्रह्मसमाज' की बहबूदी में उनकी अहम भूमिका भी थी। तत्कालीन बंगाली ब्राह्मण समाज में इस बहस की थोड़ी सी झलक आप टैगोर के उपन्यास 'गोरा' में प्राप्त कर सकते हैं।
अगर कोई कहता है कि उस समय के ब्राह्मण तो ओरिएंटलिज्म के पक्ष में खड़े थे जबकि गैर-ब्राह्मण ऐंग्लिसिज्म के साथ जीने-मरने की कसमें खा रहे थे तो इस बारे में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि उसे तथ्यों की जानकारी नहीं है। भारत में ब्राह्मणों के पुनरोदय में जितनी बड़ी भूमिका ऐंग्लिसिज्म ने निभाई है, उतनी शायद खुद ब्राह्मणवादी विचारधारा ने भी न निभाई हो।
बहरहाल, इस 'कागद लेखी' से वापस 'आंखन देखी ' पर लौटें तो चाहे वह बेंटिक, ग्रांट और मैकाले का ऐंग्लिसिज्म हो, या फिर प्रिंसेप और मैक्समुलर जैसे 'भारतप्रेमियों' का ओरिएंटलिज्म, दोनों ही भारत में उस वक्त बोली जाने वाली नागर भाषाओं के समान रूप से विरोधी थे। प्राथमिक शिक्षा हिंदी, उर्दू या किसी अन्य स्थानीय नागर भाषा में दी जाए, इससे उनका विरोध नहीं था, लेकिन उच्च शिक्षा का माध्यम इनके मुताबिक संस्कृत, अरबी, फारसी या फिर अंग्रेजी ही हो सकती थी। कृष्ण कुमार की किताब 'राज, समाज और शिक्षा ' इस बारे में आपका ज्यादा ज्ञानवर्धन कर सकती है।
भारतीय नागर समाज में उस समय जिस मिली-जुली भाषा का चलन था, उससे इन दोनों ही औपनिवेशिक विचारधाराओं को सख्त एलर्जी थी। यह भी दिलचस्प है कि 1857 के विद्रोह के बाद ऐंग्लिसिज्म के साम्राज्यवादी अनुयायियों को ओरिएंटलिज्म से इस मायने में गठजोड़ बनाने में जरा भी परेशानी महसूस नहीं हुई और उन्होंने यहां से लूटा गया पैसा खुले हाथों यहीं लुटाकर संस्कृतनिष्ठ हिंदी और फारसीनिष्ठ उर्दू की सांप्रदायिक विभाजक रेखा खींचने में कोई कोताही नहीं बरती।
कभी-कभी मैं खुद को दिलीप की इस प्रस्थापना से सहमत होता महसूस करता हूं कि उच्च शिक्षा का माध्यम यहां अंग्रेजी को न बनाया जाता तो शायद यहां की पारंपरिक सामाजिक सत्ता-संरचनाएं ज्यों की त्यों पड़ी रह जातीं। लेकिन फिर लगता है कि चीनी, जापानी और कोरियाई समाजों में तो न कभी कोई मैकाले था, न कोई ऐंग्लिसिज्म था, तो फिर क्या वहां की पुरानी सामाजिक संरचनाएं ध्वस्त होने से रह गईं?
ऐसे ढांचे टूटना दरअसल समाज की अपनी मांग भी होती है और ऊपर से आए कारक अक्सर इस काम को आसान बनाने के बजाय कुछ और ज्यादा उलझा ही देते हैं। मैकाले के 'मिनट्स' ने इसे उलझाने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाई या सुलझाने में, इस बारे में कोई फाइनल राय जाहिर करना मेरे लिए दिलीप या उनसे कहीं ज्यादा आगे बढ़कर मैकाले की वकालत करने वाले दलितवादी सिद्धांतकारों जितना आसान नहीं है।
भारत में ज्ञान-विज्ञान के सृजन की स्थिति ब्रिटिश-पूर्व 1000 सालों में लगभग ठप थी, ऐसा कहने का चलन काफी है, लेकिन यह भी मूलतः अज्ञान पर आधारित है। निस्टैड्स के संस्थापक रसायनशास्त्री प्रोफेसर एआर रहमान ने अपनी एक किताब में सन् 1600 से 1800 के बीच लिखी गई और हाथ से नकल उतारकर बंटने वाली कुल 1762 संस्कृत, अरबी और फारसी पांडुलिपियों की सूची दी है, जो सारी की सारी ज्ञान-विज्ञान के किसी न किसी पहलू से जुड़ी हैं। इनकी विषयवस्तु कृषि, बागवानी और पशुपालन से लेकर सर्जरी, औषधशास्त्र, गणित, ग्रहचाल, इंजीनियरिंग और कीमियागिरी तक फैली हुई है।
यहां मैं निस्टैड्स से ही जुड़े विज्ञान और तकनीकी के इतिहासकार दीपक कुमार की किताब 'साइंस ऐंड द राज' का उल्लेख भी करना चाहूंगा, जिसका मेरा किया अनुवाद 'भारत में विज्ञान और अंग्रेजी राज' शीर्षक से दिल्ली के ग्रंथशिल्पी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होकर पिछले कई वर्षों से बाजार में है। इसमें अकबर के वेपन-डिजाइनर फतहुल्ला शीराजी के काम को मैं खास तौर पर याद दिलाना चाहूंगा और बाद में अंग्रेजी फौजों में कई बार भगदड़ का सबब बने टीपू सुल्तान के रॉकेटों को भी, जिनका अध्ययन अपनी प्रयोगशाला में करके आइजक न्यूटन ने अंग्रेजी फौजों के लिए बेहतर रॉकेटों का खाका तैयार किया था।
उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के इस्तेमाल को लेकर मेरी राय ज्यादा अच्छी नहीं है। लोहिया के शब्दों में कहें तो भारत में अंग्रेजी सामंतवाद की भाषा है और उच्च शिक्षा पर काबिज होकर इसने यहां सामंतवाद की जड़ें और गहरी की हैं। इस संदर्भ में मैकाले को लेकर मेरी और भी बुरी राय इसलिए बनी हुई है कि अपने मूर्खतापूर्ण ज्ञान-सिद्धांत के जरिए उसने भारतीय समाज में मौजूद पारंपरिक ज्ञान की जड़ ही खोद दी।
अभी साठ साल पहले तक दुनिया की सबसे पिटी हुई और जाहिल कौम समझे जाने वाले चीनियों ने साम्यवाद के तमाम आबे-काबे के बावजूद अपना सदियों पुराना ज्ञान काफी कुछ बचा लिया। मार्शल आर्ट से लेकर अक्यूपंक्चर, अक्यूप्रेशर और चाओमिन से लेकर जिनसेंग और फेंग शुई तक उनके न जाने कितने पारंपरिक ब्रांड आज दुनिया पर छाए हुए हैं, जबकि सोशल रेडिकलिज्म के नाम पर अपने समाज में मैकाले के योगदान से गदगदायमान हम लोग संसार को ढेरोंढेर धूर्त बाबा और पश्चिमी चीजों की सस्ती नकलें ही सप्लाई कर पा रहे हैं।
7 comments:
बढ़िया ।
क्या बात है चन्दू भाई.. जटिल और उलझे हुऎ सवालों पर आप कितनी साफ़ और सरल समझदारी हमें सौंप देते हैं..हम धन्य हैं..
ye Mac. ki shiksha ka hi asar hai ki hum log ya to bevkoofon ki tarah hindustan ki burai karte hain ya phir use aasman par bitha dete hain. aur agar Mac. ki shiksha mein itna hi asar hai to 200 saal baad bhi Dalit kyon pichde hue hain?
चंदू भाई
बड़ी जानकारी आपने दी। मुझे भी ये बात समझ में नहीं आती कि ये कौन से तर्क हैं कि हम अंग्रेजी की वजह से ही आगे जा पा रहे हैं। अंग्रेजी की वजह से हम उनके पीछे-पीछे थोड़ा आगे बढ़े हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं। चीनियों ने अपना सब कुछ बचा लिया और हमारा तो, योग भी अमेरिकियों ने योगा बनाकर छीन लिया है।
सहमत हूं। मगर अंग्रेजी के प्रति रुझान तो मैकाले से भी पहले से ही शुरू हो चुका था और मैकाले की कि जगत्प्रसिद्ध पंक्तियां मुझे भी संदिग्ध ही लगती रही हैं। मैंकाले ने अपने उद्धरणों में हमेशा संस्कृत और फारसी को शिक्षा के लिए अयोग्य ही ठहराया है।
इस बारे में इस लेख को पढें,
http://antardhwani.blogspot.com/2007/04/blog-post.html
मैकाले के इस वक्तव्य के बारे में अधिक जानकारी Koenraad Elst के इस शोधपत्र से प्राप्त करें
http://homer.rice.edu/~nrohilla/macauley.pdf
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http://homer.rice.edu/~nrohilla/macauley.pdf
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