Monday, December 31, 2007

गुल्ली सा उड़े

नया साल सभी को बहुत-बहुत मुबारक हो। पिछले साल का आखिरी हफ्ता गांव में कटा। फोन नहीं, बिजली नहीं, टॉयलेट नहीं, सड़क पर कोई इक्का तक नहीं, लिहाजा सवारी सिर्फ पैदल की। साथ मेरा बेटा भी गया था। होश संभालने के बाद उसकी यह पहली गांव यात्रा थी। सुबह-सुबह लोटा लेकर खेतों में शौच के लिए जाना उसके लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन चुका है- सुखद या दुखद, इसके बारे में दोस्तों से गपास्टक के दौरान उसकी राय अभी मिली-जुली मालूम पड़ती है।

उसके साथ होने से मेरी गांव यात्रा में इस बार एक नया आयाम गुल्ली-डंडे का जुड़ गया। बचपन बीतने के बाद इस खेल से नाता पूरी तरह टूट ही गया था। आश्चर्य कि पचीस-तीस साल बाद डंडा हाथ में आने के बावजूद गुल्ली पर टांड़ अक्सर ही बिल्कुल सही बैठ रहा था। एक-दो बार तो डंडा लगते ही गुल्ली गौरैया की तरह बहुत लंबी उड़ी और मुझे ही नहीं, मेरे खिलाफ खेल रहे बच्चों तक को बाग-बाग कर गई।

इस बार दो साल बाद गांव जाना हुआ था। पिछले बीसेक सालों से यही हाल है। कभी दो तो कभी तीन साल बाद। साल में दो बार तो इस बीच शायद ही कभी गया होऊंगा। बहुत सारी चीजें इस बीच वहां बदल चुकी हैं। ये धीरे-धीरे ही बदली होंगी, लेकिन मेरा वास्ता ही गांव से इतना कम रह गया है कि सारे बदलाव मुझे चमत्कारिक ही लगते हैं।

इंटरमीडिएट मैंने गांव से ही किया था। तब तक गांव में मोरों का कहीं नामोनिशान नहीं था। आठ-दस साल पहले गांव में मोर दिखने शुरू हुए तो बहुत अच्छा लगा। आजकल वही मोर सबके लिए आफत बने हुए हैं। खेतों में लोग गेहूं बोकर आते हैं लेकिन उगता कुछ नहीं, क्योंकि उगने से पहले ही ज्यादातर बीज मोरों के पेट में जा चुके होते हैं। लौकी-कोंहड़ा बचने का कोई सवाल ही नहीं था, लेकिन लोगों ने अब राख छिड़ककर उन्हें बचाने का एक फौरी तरीका खोज निकाला है। जो भी हो, सुबह-सुबह घर की छत पर आई धूप में किसी मोर को पंख फटफटाकर अंगड़ाई लेते देखना खुद में एक अनुभव है।

मोर से कहीं बड़ी और आधुनिक समस्या नीलगाय हैं, जिन्हें दिन-दहाड़े खेत चरते मैंने पहली बार ही देखा। भयंकर सा दिखने वाला काला-सलेटी नर, लोहिया-मटमैले रंग की दो लंबी टांगों वाली सुबुक मादाएं और अद्भुत चपलता के साथ दौड़ता एक बेडौल सा दिखने वाला बच्चा- पूरा झुंड मुझसे ज्यादा मेरे बेटे के लिए एक अद्भुत दृश्य था। गांव के लोग इन्हें अपने असली दुर्भाग्य की तरह देखते हैं। मोरों का कुछ उपाय खोजकर किसी खेत में अगर थोड़ी फसल खड़ी भी हो गई तो उसपर नीलगायों की कृपा होनी निश्चित है।

ये दोनों चीजें उत्तर प्रदेश में करीब दस साल तक जोर-शोर से चले हिंदुत्व आंदोलन की देन हैं। इससे पहले इनकी आबादी बढ़ने नहीं पाती थी क्योंकि शिकारी और कुछ खास समुदायों के लोग इन्हें मारकर खा जाते थे। सबसे पहले कल्याण सिंह की सरकार ने नीलगायों और मोरों की हत्या को कानून बनाकर प्रतिबंधित किया, फिर लोगों के बीच जगे हिंदुत्व ने इस कानून को कुछ ज्यादा ही सख्ती से लागू करा दिया। कुछ जगह शिकारियों को पकड़कर मारते-पीटते थाने पहुंचाया गया, कुछ जगह वे पीट-पीटकर मार ही डाले गए। जहां यह संभव नहीं हुआ वहां दंगे की नौबत आ गई। नतीजा यह हुआ कि मुसलमान तो मुसलमान, अब कोई हिंदू भी इनके खिलाफ कुछ करने में कांपता है।

एक सतत ध्वंस, भीषण क्षय गांव के पूरे परिवेश को अपनी गिरफ्त में लिए हुए नजर आया। नई-नई चीजों की वहां कोई कमी नहीं है। बड़ी गाड़ियां, लेटेस्ट टेलीविजन, बाजार में घूम रहे लगभग हर लड़के के हाथ में मोबाइल, किसी टुटही सी दुकान में खुला साइबर कैफे, जहां इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है, लेकिन बिजली की सुविधा चार-छह घंटे, वह भी अक्सर देर रात में ही उपलब्ध हुआ करती है। लेकिन ये सारी चीजें सिर्फ चीजें हैं। उनके साथ जुड़ी हुई रवानी या तो नदारद है, या गांव-शहर दोनों को समान गति से रौंदता किसी न किसी परजीवी पेशे में जुटा बहुत छोटा तबका ही इसका आनंद उठा पा रहा है।

घेरने की मानसिकता चरम पर है। गांव में या इसके इर्द-गिर्द कम से कम पचास ढांचे ऐसे खड़े नजर आए, जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता। मिट्टी के गारे से जुड़ी और आप से आप ढह रही कमर या गर्दन की ऊंचाई वाली हजार-दो हजार ईंटें। अपना परिचित कोई अमीन-पतरौल इलाके में आ गया या पंचायत में कोई जुगाड़ बन गया तो कहीं ऊसर में या तालाब पाटकर दो-चार बिस्सा जमीन घेर ली कि इसका यह करेंगे वह करेंगे। फिर कोई सिलसिला नहीं बन पाया और मिट्टी से जुड़ी चीज धीरे-धीरे मिट्टी में मिल गई।

दस साल पहले तक इस काम के लिए लोगों को इफरात में ईंटें मुहैया कराने के लिए इलाके में बहुत सारे ईंट-भट्ठे खुले नजर आते थे। चार-पांच साल चलने के बाद भट्ठेदारों को कोयले का खर्च भारी पड़ने लगा और उनमें से ज्यादातर दीवालिया हो गए। अब यहां भट्ठे नहीं, सिर्फ छिछले गड्ढे हैं, जिनके कीचड़ में मच्छर इफरात पैदा होते हैं। भट्ठों की गर्मी ने इलाके के सारे पेड़ों की जड़ें सुखा दीं और वे खड़े-खड़े मर गए। अब यहां हर तरफ सिर्फ कंटीली झाड़ियां, कुश और रुखड़ी घासें हैं, जिन्हें जीभ कट जाने के डर से भैंसें तक खाने से परहेज करती हैं।

चोरों और लुच्चों की ऐसी भरमार हो गई है कि पिछले दो ही सालों में मेरे घर में दो बार चोरी हुई। एक बार सारे बर्तन और थोड़ी-बहुत नकदी गई, दूसरी बार ओढ़ने-बिछौने तक की वाट लग गई। जिसके भी अंदर कुछ काबलियत है या थोड़ा-बहुत हाथ-पैर चलते हैं वह दिल्ली-बंबई जा चुका है। बाकी लोग पहले स्थानीय नौकरियों और ठेकेदारी वगैरह की तरफ जाते थे, जिसकी अब जनरल कोटे के आम लोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। निकालने वाले पत्थर पेरकर पानी निकाल लेते हैं लेकिन हमारे गांव तरफ अब शायद कुछ लोग चोरी-चुहाड़ी का विकल्प इससे बेहतर समझने लगे हैं।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने सत्तर के दशक की अपनी एक कविता में अपने भोले और छले गए गांव को नए साल पर बहुत प्यारी सी शुभकामना भेजी थी। काश, गांव से भावनात्मक लगाव मुझे भी ऐसी ही किसी रचनात्मक दिशा में ठेलता। मैं चाहता हूं कि देश भर में गाए जा रहे प्रगति के मिथक की तर्ज पर मेरा गांव भी नए साल में किसी अनोखी गुल्ली की तरह ऊंचा ही ऊंचा उड़ता चला जाए, लेकिन उसका जैसा क्षरण देखकर लौटा हूं, उसे याद करके कुछ कहने में जबान अटकती है।

9 comments:

Sanjeet Tripathi said...

तकरीबन हर गांव की हालत एक सी हो रही है क्या भाई साहब!!

नया साल पहले से कुछ और बेहतर दे जाए!! नए साल की शुभकामनाएं

अफ़लातून said...

नमस्कार । राघव शरण आप के लेखन की याद कर रहे थे ।

mamta said...

बस कहने को ही देश प्रगतिशील है।जबकि असली देश गांवों मे ही बसता है।

नया साल आपके और आपके परिवार के लिए मंगलमय हो।

अविनाश वाचस्पति said...

नया साल बेहतर
बिल्कुल माल तर नहीं देगा
जो बच गई हैं ईंटे
मकान में
उसे भी कोई चोर चर लेगा
नींव होगी जरूर
उसे भी कोई सटक लेगा
बयार चली है अब ऐसी
ईमानदार की होती है
अब रोजाना ऐसी की तैसी
जमीन भी ना बचेगी जान लो
उसे भी कोई न कोई गटक लेगा.

VIMAL VERMA said...

कुछ भी तो नहीं बदला !! चन्दू भाई अब हालत ये हो गई है कि ट्रेन की खिड़्कियों से ही, काफ़ी सालों से गांव को देखता आया हूं,कमोंबेश शहरों का भी हाल बहुत बदलने के बाद भी वैसा ही बना हुआ है,इसी शहर में ना जाने कितने आज़मगढ़,बलिया,छ्परा,बस्ती हैं जो विकास के लिये तरस रहे हैं! नये साल की शुभकामनाएं तो ले ही लीजिये !!

Unknown said...

सबसे पहले नया साल मुबारक - (ई-मेल नहीं है तो यहीं सही) - दूसरा गिल्ली डंडा दुरुस्त - बधाई - एक तरफ़ लगा कि आपतो बादलों को खो ही आए, पर बादल दर-असल हुए खालिस दिल्ली का कोहरा. छेकने की संस्कृति कम तो नहीं होती दिखती, लेकिन चार पाँच साल पहले हताश भाव देश के भी थे, कहीं कोई प्रयत्न ज़रूर होगा - प्रतिभा अगर हम (देश प्रदेश) बना/ बरकरार रख सकें तो उम्मीद है - manish

kala kammune said...

नयी उम्मीदों और कोशिशों के साथ नया साल मुबारक!

Unknown said...

P.S. - सर्वेश्वर जी की वो कविता यहाँ मिल सकती है : http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/naya_saal/sets/s_d_saxena.htm

मनीषा पांडे said...

मैं तकरीबन 8 साल से गांव नहीं गई। सालों पुरानी गांव की कुछ अच्‍छी स्‍मृतियां हैं। पुरी दुनिया ही बदल रही है बहुत तेजी के साथ, गांव कैसे अछूते रह सकते हैं। नए साल पर आप दुगुनी पोस्‍ट लिखें, इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ।