Saturday, December 8, 2007

राडार पर मार्क्स

दो-तीन महीने पहले इस जगह मैंने अपने गणित के प्रोफेसर मुशर्रफ साहब का जिक्र किया था। गणित के अलावा धर्म-दर्शन के इर्दगिर्द हमारी वैचारिक निकटता का साल था 1983 , और 1984 में शुरू वाले कुछ महीने। आजमगढ़ में तब मेरा आवास था लालता सिंह वकील के मकान में नीचे वाला एक कमरा, जहां मैं उन्हीं के किराएदार एक नेवी ऑफिसर परिवार के इंटरमीडिएट में पढ़ रहे लड़के को ट्यूशन पढ़ाने के लिए रह रहा था। यह रिश्ता कमरा लेने के दो महीने बाद ही टूट गया क्योंकि किसी बिगड़े हुए मूर्ख लड़के को गणित पढ़ाने से बड़ी यातना और कोई हो नहीं सकती।

वहीं मेरी मुलाकात डॉ. वाहिद से हुई, जो बगल की विशाल इमारत मोतीमहल में प्रैक्टिस करते थे लेकिन आश्चर्यजनक रूप से लगभग हर दोपहर सामने की टुटही चाय की दुकान पर दुनिया भर की अवाट-बवाट चीजों पर बहस करते पाए जाते थे।

एक दिन बातों ही बातों में दर्शन की आत्मा-परमात्मा नुमा किसी शाश्वत बहस में उनसे मुठभेड़ हो गई तो वे दुकान से उठकर अपने क्लिनिक में गए और वहां से एक पत्रिका उठा लाए, जिसका केंद्रीय लेख भगत सिंह का 'मैं नास्तिक क्यों हूं' था। उसे पढ़कर मेरा माथा सटक गया। कहां मैं बर्ट्रेंड रसेल और क्लिफर्ड की मेटाफिजिक्स में उलझा हुआ गीता और इस्लाम की दार्शनिक अवधारणाओं से उनका तालमेल बिठाने में जुटा हुआ था और कहां भगत सिंह बता रहे थे कि धर्म से निकली हुई मूर्त या अमूर्त ईश्वर की सारी अवधारणाएं एक किस्म का षड्यंत्र हैं।

अब हालत यह थी कि दर्शन के मामले में मैं न इतना कच्चा था कि भगतसिंह के तर्कों के असर में रातोंरात नास्तिक पदार्थवादी हो जाता, न ही इतना पक्का था कि उस लेख को उठाकर एक किनारे रख देता और चुपचाप रसेल और क्लिफर्ड की मैथमेटिकल-मेटाफिजिकल दुनिया में वापस लौट जाता।

नतीजा यह हुआ कि इसी दुविधा में जीवन का पहला लेख लिखा गया। कहीं छपने के लिए नहीं, बाल की खाल निकालने वाले अनावश्यक ब्योरों में जाने के लिए नहीं, सिर्फ आत्मा की संभावनाओं-असंभावनाओं पर अपनी उलझनें सुलझाने के लिए।

रसेल ने बचपन में सागरतट पर टहलते हुए उछलती हुई पानी की बूंदों को देखकर अपनी मां से पूछा था- मॉम, डू दे हैव हार्ट? वह मासूम सवाल बड़े दायरों पर तब भी वाजिब था और शायद आज भी वाजिब है- क्या पदार्थ में अनुभूति का गुण होता है? अगर नहीं तो पदार्थमय जगत में यह गुण आता कहां से है? कोई भी प्रक्रिया, चाहे वह कितनी भी लंबी क्यों न हो, क्या न होने में से होने का सृजन कर सकती है?

किताबें मिलती थीं मेहता लाइब्रेरी से, और वहीं मिले मुझे एक त्यागी जी, जो गोरखपुर विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, वहां एक नक्सली संगठन सीएलआई से जुड़े थे और आजमगढ़ किसी सांगठनिक काम के सिलसिले में आए हुए थे। बातचीत हुई तो उन्होंने मेरा लेख भी देखा और एंगेल्स की एक रचना 'डायलेक्टिक्स ऑफ नेचर' पढ़ने की सलाह मुझे देकर चलते बने।

इसके कोई हफ्ते भर बाद ही डॉ. वाहिद ने बड़े गोपनीय तरीके से पास के एक प्राइमरी स्कूल में एक मीटिंग की जानकारी मुझे दी। वहां बनारस के जीडी सिंह ग्रुप के एक दाढ़ी वाले अगियाबैताल सज्जन ने मोतीमहल के इर्द-गिर्द टहलते रहने वाले आठ-दस लोगों को उद्बोधन दिया। उनकी बातों में सिर्फ एक वाक्य अब मुझे याद है- 'ज्यादा कमा लेंगे तो क्या करेंगे, ज्यादा खाएंगे- और दूसरे शब्दों में कहें तो ज्यादा हग्गेंगे!'

आजमगढ़ में रेडिकल वाम की तरफ बढ़ने का यह सारा सिलसिला अचानक अप्रैल 1984 में टूट गया जब गणित और दर्शन की अपनी अबतक की पढ़ाई की अमली जोर-आजमाइश के लिए मैं इलाहाबाद चला गया- 10 जून को वहां आईएएस प्रीलिम्स की परीक्षाएं होने वाली थीं।

इस समय तक मैंने एंगेल्स का नाम त्यागीजी के सौजन्य से सुन लिया था लेकिन मेरे दिमागी राडार पर मार्क्स नाम के किसी शख्स का अवतरित होना अभी बाकी था। इम्तहान देने के ठीक बाद एक दिन अपने भारी पढ़ाकू, लेकिन वैचारिक रूप से भाजपा के नजदीकी चाचाजी से बहुत सालों के अंतराल पर मेरी मुलाकात हुई। उनसे कुछ देर की दांताकिटकिट के बाद मेरे बारे में उन्होंने नतीजा निकाला कि मैं कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रभावित हूं। मैंने उनसे जब पूछा कि ये सज्जन कौन हैं, कहां रहते हैं, इनका धंधा क्या है, तो उन्हें लगा कि मैं झूठ बोल रहा हूं।

7 comments:

Asha Joglekar said...

आपके राडार पर मार्क्स कैसे आये ये तो पता चला । पर आखिर आपने एंगेल्स पढा या नही अगर पढा तो आपके विचारों में क्या परिवर्तन आया और अभी स्टेटस क्या है ?

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, पढ़ रहा हूं, उत्सुकता बनी हुई है, प्रतीक्षा रहेगी!!

आशुतोष उपाध्याय said...

लगभग ऐसी ही जिज्ञासाओं से कभी मेरा भी वास्ता पड़ा था। बी.एससी. के बाद फिजिक्स में एम.एससी. करने के इरादे से मैं नैनीताल आ गया था। दरअसल हम वहां तीन वहां साथ-साथ रहते थे। उन दिनों जाने क्यों मुझे आत्मा की वैज्ञानिक परिभाषा जानने का फितूर सवार हुआ। ऐसा लगता है उन दिनों आत्मा-परमात्मा की संस्कारगत अवधारणाओं से मेरा मोहभंग होने लगा था। हालांकि मार्क्स-एंगेल्स के नाम से मुठभेड़ होने में अभी बहुत दिन बाकी थे। हम तीनों आवेश में भरे हुए रात भर बहस करते और किसी नतीजे पर पहुंचे बिना अगले दिन पुरानी बातें दोहराने लगते। मेरे दोनों प्रतिभाशाली दोस्तों के लिए फिलहाल भाववाद का आकर्षण बरकरार था।

जल्दी ही किसी कारणवश नैनीताल छोड़ना पड़ा और मैं पंतनगर विश्वविद्यालय पहुंच गया। आत्मा की वैज्ञानिक परिभाषा का भूत इस कदर सवार था कि मैंने इसका जवाब ढूंढ़ने की खातिर पिछली कक्षाओं में जीवविज्ञान पढ़े बिना बायोकैमिस्ट्री में एडमीशन ले लिया। हमारी पहली पाठ्यपुस्तक थी मशहूर बायोकैमिस्ट अलबर्ट एल. लेहनिंजर लिखित ‘प्रिंसिपल्स ऑफ बायोकैमिस्ट्री’। इसका पहला ही अध्याय था- ‘द मॉलीक्युलर लॉजिक ऑफ लिविंग आर्गेनिज्म’। मैंने अपनी जिंदगी में इतनी अच्छी पाठ्यपुस्तक कभी नहीं पढ़ी। पहले अध्याय से मुझे अपने सवाल का जवाब मिला और मैं पूरी तरह नास्तिक हो गया। चेतना और पदार्थ के रिश्तों की वैज्ञानिक व्याख्या में दिलचस्पी रखने वालों को यह पुस्तक या कम से कम इसका पहला अध्याय जरूर पढ़ना चाहिए।

आशुतोष उपाध्याय said...

बहुत साल बाद मुझे लेहनिंजर के विश्लेषण जैसा एक शेर पढ़ने को मिला। इसे चकबस्त ने रचा है-

जिंदगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब
मौत क्या है इन्हीं अजजां का परीशां होना

azdak said...

मार्क्‍स आये, बहार आयी?

स्वप्नदर्शी said...

This is the best book avaialble in my knowledge dealing with the mechanistic view of life and principle of vitality in Indian Market
"This is Biology: The Science of the living world" by Ernst mayr (1997)ISBN:81 73712255

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अभय तिवारी said...

वो लेख पढ़ाया जाय.. और इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए अगली कड़ी में भी छापा जाय..