Wednesday, December 5, 2007

आवारा या कॉस्मोपॉलिटन?

कुछ कुत्ते पालतू नहीं बनते। लाख कोशिश करके देख लो, आप उन्हें पालतू बना ही नहीं सकते। पड़ोस के गांव से बहककर कॉलोनी में आ गई एक कुतिया ने दो साल पहले कुछ बच्चे दिए थे, जिनमें दो जिंदा बचे। उनमें एक बड़ा मायालू है। मेरे बेटे ने उसे नर समझकर उसका नाम कोडा रख दिया (मधु कोड़ा उस समय तक झारखंड के मुख्यमंत्री नहीं बने थे और मेरे बेटे को उनका नाम शायद आज भी नहीं पता होगा। ) बाद में पता चला कि वह मादा है। शायद अगले साल उसके भी बच्चे हों- इस बार की कोशिश तो कामयाब नहीं हो पाई।

बहरहाल, मैं यहां कोडा की नहीं, उसके भाई की बात कर रहा हूं, जिसका कोई नाम नहीं रखा जा सका, क्योंकि इन्सानों के साथ सोहबत रखने की उसमें कोई प्रवृत्ति ही नहीं थी। ऐसा क्यों हुआ, इसकी कोई वजह समझ में नहीं आती। जब वह बहुत छोटा था तब एक बार उसके पैर में चोट लगी थी। हो सकता है किसी आदमी या बच्चे ने उसे मारा हो, या इस चोट का कोई और रिश्ता इन्सानों से रहा हो। चोट तो जल्द ही ठीक हो गई लेकिन मन के घाव नहीं गए। यह भी हो सकता है कि यह सिर्फ मेरा अनुमान हो, क्योंकि चोट से पहले भी वह बच्चों से जरा दूर ही दूर रहता था।

सुबह-सुबह हम घूमने निकलते तो कोडा और उसका भाई कभी अपनी मां के साथ तो कभी आपस में खेल रहे होते। कोडा दौड़कर हमारे पास आ जाता (जाती) और इर्द-गिर्द उछलकूद मचाने लगता। उसके लिए रोटी लेकर निकलना हमारी मजबूरी बन गई। जब हम उसे रोटी देते तो एक टुकड़ा हसरत से उसे देख रहे उसके भाई की तरफ भी फेंक देते। रोटी से बिदककर वह ऐसे भागता जैसे उसे पत्थर मारा गया हो। हम थोड़ा आगे बढ़कर देखते कि शायद हमारे दूर चले जाने पर खाए। लेकिन वह रोटी की तरफ नहीं लौटता और उसे निपटाने की जिम्मेदारी भी कोडा को ही निभानी पड़ती।

वह क्या खाता है, कैसे जीता है, यह हमारे लिए रहस्य ही रहा। अलबत्ता स्वास्थ्य उसका अपने खानदान में सबसे बेहतर था और करीब एक साल तक बाहरी कुत्तों से लड़ाई में उसी ने मोहल्ले के झुंड का नेतृत्व किया। फिर एक दिन अचानक वह हमें दिखना बंद हो गया। इलाके में कोई न कोई कुत्ता हर हफ्ते किसी कार या ट्रक से मरा हुआ नजर आता है, लिहाजा हम लोगों ने मान लिया कि उसके साथ भी शायद कोई ऐसा ही हादसा हो गया हो।

इसके कुछ समय बाद एक सुबह मैंने उसे मोहल्ले से थोड़ी दूर बिल्कुल हट्टी-कट्टी हालत में कसाइयों की दुकानों के पास मुर्गे के पंख चाभते देखा। घर आकर मैंने इसकी सूचना दी तो इससे लोग कुछ खास उत्साहित नहीं हुए, क्योंकि हर हाल में मोहल्ले से तो उसका नाता टूट ही गया था। मुझे लगा कि अब कसाइयों की दुकान के पास ही सूअरों और आवारा कुत्तों के बीच उसका आवास हो गया होगा। लेकिन जल्द ही उसके बारे में मेरी यह राय भी गलत साबित हुई।

आजकल हर दूसरे-तीसरे दिन अलस्सुबह टहलते हुए वह मुझे रामप्रस्थ में घूमता हुआ मिल जाता है। थोड़ा बसे और ज्यादा अनबसे- लगभग जंगली मिजाज के इस इलाके में वह ऊंचा-पूरा ताकतवर, भूरा मुंहजला कुत्ता किसी राजा की तरह टहलता है। शायद वही उसकी चैन से रात बिताने की जगह है। सुबह से शाम तक वह कसाइयों के इलाके में पंखों, अंतड़ियों और बेकार लेकिन रसदार मोटी हड्डियां चबाकर अपना पेट भरता है और रात बिताने के लिए रामप्रस्थ चला जाता है। वहां उसकी मौजूदगी के चलते ही कोडा जैसा हमेशा पूंछ भीतर डाले रखने वाला डरपोक कुत्ता भी मुंहअंधेरे हमारे साथ रामप्रस्थ जाने की हिम्मत कर लेता है।

दो सौ मीटर के अपने संभावित पालतू दायरे का निषेध करके दो किलोमीटर के विशाल दायरे में राज करने वाले इस कुत्ते को मैं आवारा कहूं या कॉस्मोपॉलिटन- दुविधा में हूं।

6 comments:

Priyankar said...

आवारा काहे कहेंगे. दो किलोमीटर इलाके का मस्तान-राजा कहिये उसको . आखिर अपनी खुद की दमदारी और हिम्मत से अपनी 'कन्स्टीट्युअंसी' बनाई है उसने .

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

वह न तो आवारा है और न कोस्मोपोलिटन. वह सही मायने में स्वतंत्र और मौलिक है, जो हर किसी को होना ही चाहिए. आवारा या कोस्मोपोलिटन में से कुछ भी कहना उसकी बेइज्जती होगी, आखिर अपने इलाके का हाकिम है वह और भी बिना किसी पटवारी की मदद के!

स्वप्नदर्शी said...

couple of years ago, while designing a course in genetics, I came acroos the research in genes responsible for domestication of animals. the common view is that humans have domesticated animals. But on the contarary, animals have genes which make them suitable for domestication, or seek domestication with humans. In the other words animals have domesticated humans. this is very interesting research and I will write sometites about this.
for the time being, I think your Koda's some of the domesticated genes are disturbed.
looks

चंद्रभूषण said...

स्वप्नदर्शी, डोमेस्टिकेशन के जेनेटिक आस्पेक्ट्स के बारे में जब-तब पढ़ता रहता हूं लेकिन आपका ऐंगल अलग है। (वैज्ञानिक लेखों से हटकर हाल में एक बहुत बढ़िया चीज डोरिस लेसिंग की एक कविता इस संबंध में पढ़ी- कहीं मिल जाए तो आप भी पढ़िएगा। शीर्षक अभी मुझे याद नहीं पड़ रहा है। लेसिंग ने इसमें कुत्ते के आदिम पूर्वज को एक आदिम औरत द्वारा पाल लिए गए भेड़िए के बच्चे की तरह ट्रीट किया है।)

कुत्तों के लिए फिलहाल जेनेटिकली नेचुरल क्या है, उनका पालतू होना या जंगली होना? उनके पालतू होने को उनकी विकृति माना जाए या जंगली होने को? इस सवाल का जो जवाब होगा, उससे कुछ बड़े अर्थ निकाले जा सकते हैं।

कुत्तों को लेकर हाल के मेरे कुछ ऑब्जर्वेशन्स मेरी कई वैज्ञानिक धारणाओं को तोड़ने वाले साबित हो रहे हैं। आपसे डॉ. नागर के फॉसिल्स के फोटो न दे पाने के लिए माफी भी मांगनी है। दिलीप ने जो फोटो खींचे, उन्हें लोड करना हमें नहीं आया। फोटो रखे हैं और फॉसिल भी बमुश्किल आधा किलोमीटर दूर हैं लेकिन आपको दिखाएं कैसे, यही समझ में नहीं आ रहा।

अभय तिवारी said...

क्या बात है.. बड़ी गहन दृष्टि से विचारा आप ने!

स्वप्नदर्शी said...

chanrabhushan aap in pictures ko CD par copy kar de, aur is email par sampark kare
nainitaali@gmail.com

mei plant aur animal domestication par teen lekh likh rahii hoon (shekhar Da kee request par), unke kuch hisse aapko mere blog par milenge.